आज सिंचाई सुविधाएं कृषि के विकास की अनिवार्य शर्त बन गई हैं। चाहे सिंचाई के लिए हो या अन्य उपयोग के लिए हो, वर्षा पानी की आपूर्ति का अंतिम स्त्रोत होती है । मनुष्य वर्षा जल को या तो नदियों पर बांध बनाकर अथवा उसे रिसन के जरिए भूजल भण्डारों में पहुंचने के बाद, उसका उद्वहन करके उपयोग करता है ।
पानी के प्रति व्यक्ति की उपलब्धता दिनों-दिन कम होती जा रही है । ऐसे में पानी की आपूर्ति का वह तरीका श्रेष्ठ माना जाएगा जो पानी के उपयोग में मितव्ययता को संभव बनाए । मितव्ययता की दृष्टि से तालाबों और बांधों की तुलना में कुओं, नलकूपों के माध्यम से पानी का उपयोग ३०-४० प्रतिशत बेहतर होता है । बाधों और तालाबों के पानी को नहरों के माध्यम से खेतों तक पहुंचाने की प्रक्रिया में वाष्पीकरण और रिसन के कारण पानी पहुंचाने की प्रक्रिया में वाष्पीकरण तथा रिसन के जरिए पानी अधिक बरबाद नहीं होता है । फिर कुओं, नलकूपों के माध्यम से सिंचाई में किसान फसल की आवश्यकता के अनुरूप सिंचाई कर सकता है, जबकि नहरों से सिंचाई में पानी की आपूर्ति का समय सिंचाई अधिकारियों द्वारा तय किया जाता है ।
नहरों, तालाबों से सिंचाई की तुलना में कुओं, नलकुपों से सिंचाई, कई दृष्टि से बेहतर होने के बावजूद आजादी के बाद सरकार केवल नदियों पर बांध बनाकर और उनमें नहरें निकालकर सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य करती रही है । सरकार की नीति जो भी रही हो, किसान नहरों की तुलना में कुओं, नलकूपों से सिंचाई की श्रेष्ठता से परिचित रहे हैं और उन्होंने आजादी के बाद, विशेषकर सन् १९७० के बाद से कुओं, नलकूपों में भारी निवेश करके सिंचित क्षेत्र में वृद्धि की है । आज स्थिति यह है कि कुल सिंचित क्षेत्र का ६३ प्रतिशत भाग इनसे ही सिंचित होता है ।
मध्यप्रदेश में नहरों और तालाबों के कुल सिंचित कुल क्षेत्र की तुलना में कुओं, नलकूपों से सिंचित क्षेत्र दुगने से भी अधिक हैं । यह किसानों के अपने प्रयासों का ही परिणाम हैं । भूजल विशेषज्ञों का कहना है कि किसी क्षेत्र में उपलब्ध भूजल भण्डारों के ७० प्रतिशत भाग का दोहन ही संपोषणीय होता है अर्थात इतनी मात्रा का वर्ष दर वर्ष दोहन किया जा सकता है क्योंकि वर्षा के जरिए उसका पुनर्भरण संभव होता है । इससे अधिक भाग के दोहन, अर्थात ७० से ९० प्रतिशत भाग के दोहन को सेमीक्रिटिकल ९० से १०० प्रतिशत भाग के दोहन को क्रिटिकल एवं १०० प्रतिशत से अधिक दोहन को अतिदोहन की व्यवस्था का प्रतीक माना जाता है ।
भूजल भण्डारों के दोहन की दृष्टि से प्रदेश में काफी विषमताएं पाई जाती हैं । प्रदेश के सिंचाई मंत्रालय के भूजल संभाग से सन् २००४ में प्रदेश में जिला स्तर तथा विकास खण्ड स्तर पर भूजल संसाधनों के दोहन के स्तर के आंकड़े प्रकाशित किए गए थे । इन आंकड़ों के अनुसार जहां शहडोल जिले में भूजल संसाधनों के दोहन का स्तर मात्र ७ प्रतिशत, डिंडोरी जिले ८ प्रतिशत और उमरिया जिले में ९ प्रतिशत ही है, वहीं भोपाल एवं बुरहानपुर में ७९ प्रतिशत, बैतूल में ८४ प्रतिशत, नीमच में ९२ प्रतिशत, धार में १०० प्रतिशत, इन्दौर में १०४ प्रतिशत, मंदसौर और उज्जैन में १०९ प्रतिशत, शाजापुर में ११४ प्रतिशत और रतलाम में ११७ प्रतिशत है । इस प्रकार प्रदेश का रतलाम जिला भूजल के सर्वाधिक अतिदोहन का शिकार है । जैसा कि ऊपर बताया गया, भूजल भण्डारों के ७० प्रतिशत भाग का ही दोहन सम्पोषणीय होता है । लेकिन उपरोक्त जिन १२ जिलों में भूजल के भण्डारों का दोहन ७० प्रतिशत से भी अधिक होता है, उनकी क्षतिपूर्ति वर्षा के दौरान नहीं हो पाती और उनमें भूजल स्तर वर्ष दर वर्ष नीचे चले जाता है ।
प्रदेश में उपरोक्त १२ जिलों में, जहां भूजल भंडारों का दोहन ७० प्रतिशत या अधिक है, भूजल का स्तर वर्ष दर वर्ष नीचे जाता जा रहा है । ऐसे में किसान को भूजल के उद्वहन में अधिक विद्युत खर्च करनी पड़ती है, सेंट्रीफ्यूगल पंपों के स्थान पर अधिक मंहगे सबमर्सिबल पंप लगाने पड़ते हैं आवश्यकता से अधिक दोहन के कारण भूजल स्तर के नीचे जाने के कारण मिट्टी में आर्द्रता हो जाती है और उस स्थिति में उसमें वनस्पतियों का पनपना कठिन हो जाता है । खेतों में सिंचाई की आवश्यकता बढ़ जाती है जो भूजल भण्डारों के और दोहन का कारण बन सकती है । भूजल स्तर के नीचे जाने के कारण प्रकृति की वह व्यवस्था भी भंग हो जाती है जिसके अंतर्गत वर्षाकाल में नदियों में जलस्तर ऊंचा होने पर वे भूजल भण्डारों का पनुर्भरण करने में मदद करती हैं, और गर्मियों में जब नदियों में जब जलस्तर नीचे चला जाता है, तब वे भूजल से पानी प्राप्त् कर बारहमासी बनती हैं । परंतु जब भूजल स्तर बहुत नीचे चले जाता है तो गर्मियों में उससे नदियों में पानी आना बाधित हो जाता है और उनमें पानी का प्रवाह प्रतिकूल प्रभावित हो जाता है । ऊपर बताया गया था कि भोपाल, बुरहानपुर, खरगोन, राजगढ़, बैतुल, नीमच, धार, इंदौर, मंदसौर, उज्जैन, शाजपुर और रतलाम जिले में भूजल भण्डारों के अतिदोहन के शिकार हैं । उनमें से बैतूल को छोड़ दिया जाए तो शेष सभी जिले पश्चिमी मध्यप्रदेश में स्थित हैं । इन जिलों में प्रदेश का मालवा क्षेत्र भी शामिल है जिसके बारे में कभी कहा जाता था कि मालवा धरती गहन गंभीर, पग पग रोटी, डग डग नीर । भू-विशेषज्ञों का कथन है कि अगर मालवा में भूजल भण्डारों के अतिदोहन की प्रक्रिया इसी तरह जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जबकि मालवा मरूस्थल में परिवर्तित हो जाएगा ।
मध्यप्रदेश के इन १२ जिलों को भूजल के अतिदोहन के दुष्परिणामों से बचाना आवश्यक है । इस हेतु हमें दो स्तरों पर कार्य करना होगा । चूंकि भूजल भण्डारों के ९० प्रतिशत से अधिक दोहन कृषि में सिंचाई के उद्देश्य से होता है, अत: एक ओर से कृषि में सिंचाई हेतु पानी की आवश्यकता कम करना होगा, वहीं दूसरी ओर भूजल भण्डारों की क्षमता में वृद्धि के प्रयास भी करने होंगे । कृषि में सिंचाई हेतु पानी की मांग में कमी के उद्देश्य से सिंचित क्षेत्र में कमी लाने के प्रयास तो व्यावहारिक होने से सफल नहीं हो सकते हैं । किसान सिंचाई के माध्यम से ही अपनी कृषि को फायदेमंद व अर्थक्षम बना सकते हैं । अत: वे सिंचित क्षेत्र में कमी के लिए किसी भी स्थिति में तैयार नहीं होंगे । सौभाग्यवश हमारे पास सिंचाई में पानी की खपत को कम करके भी कृषि की उत्पादकता को बनाए रखने की तकनीकें उपलब्ध हैं । सिंचाई की टपक एवं फव्वारा विधियों का उपयोग कर हम सिंचाई में पानी की खपत को ५० प्रतिशत कम कर सकते हैं । भारत के तमिलनाडु और महाराष्ट्र राज्य में इन विधियों का उपयोग बड़े पैमाने पर हुआ है, जिसके चलते उन क्षेत्रों में सिंचाई में प्रति हैक्टेयर प्रयुक्त पानी की मात्रा में तो कमी आई ही है, साथ ही फसलों की उत्पादकता भी बढ़ी है । सिंचाई की पद्धतियों के उपयोग हेतु प्रारंभ में काफी निवेश करना होता है जो किसानों के लिए संभव नहीं होता । सरकार को यह देखना होगा कि सिंचाई की टपक और फव्वारा विधियों के लिए पर्याप्त् अनुदान की व्यवस्था तो हो ही, साथ ही इस क्षेत्र के किसानों को ये सरलता से उपलब्ध भी हो सकें । अगर बहुसंख्यक किसानों द्वारा सिंचाई की पद्धतियों का उपयोग किया जाने लगे तो न केवल भूजल भण्डारों के अतिदोहन की स्थिति से मुक्ति मिल सकेगी बल्कि सिंचित क्षेत्र में वृद्धि की संभावनाएं भी निर्मित हो सकेंगी ।
सिंचाई हेतु टपक और फव्वारा विधियों को प्रोत्साहन के साथ-साथ रिक्त हो रहे भूजल भण्डारों के पुनर्भरण की दिशा में किसानों एवं सरकार दोनों को मिलकर प्रयास करने होंगे । किसान अपने स्तर पर भूजल भण्डारों के पनुर्भरण हेतु वर्षा के पानी के उपयोग हेतु कुओं में आवश्यक संरचनाओं का निर्माण कर व अपने खेतों में छोटे पोखरों का निर्माण कर सकते हैं । इस हेतु तकनीकी मार्गदर्शन की व्यवस्था करनी होगी और इस प्रक्रिया में कुओं में जमने वाली गाद को निकालने हेतु मदद भी देना होगा । इन संरचनाओं के निर्माण हेतु पर्याप्त् अनुदान देकर सरकार किसानों को इस दिशा में प्रोत्सोहित कर सकती है । इस हेतु एक समयबद्ध कार्यक्रम अपनाना होगा ताकि इन १२ जिलों में हर किसान के द्वारा टपक अथवा फव्वारा विधियों का उपयोग होन लेगे ।
किसानों द्वारा इस दिशा में उठाए कदमों के साथ-साथ सरकार भी रिसन तालाबों का निर्माण तथा चेक डैम, स्टॉप डैम, भूमि के नीचे सबसर्फेस डाइक्स आदि का निर्माण कर सकती है । इन संरचनाओं की देखरेख मरम्मत आदि के लिए स्थानीय जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी । इनके निर्माण तथा देखरेख के लिए स्वैच्छिक संस्थाओं को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।
मध्यप्रदेश के इन १२ जिलों में भूजल भण्डारों के पुनर्भरण के प्रयासों का इस क्षेत्र में बने बांधों के अधिकारियों द्वारा यह कहकर विरोध किया जाता है कि इनसे बांधों में आने वाला पानी की मात्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । इन क्षेत्र में बहने वाली नदियों में चंबल, माही और नर्मदा प्रमुख हैं । चंबल पर तो सन् १९६० में ही मध्यप्रदेश और राजस्थान की संयुक्त परियोजना चंबल घाटी विकास परियोजना के अंतर्गत गांधीसागर बांध का निर्माण हो चुका है । गांधीसागर जलाशय में चंबल परियोजना द्वारा दोहन किए गए पानी का ८३ प्रतिशत भाग संग्रहित होता है । चंबल नियंत्रण मण्डल की बैठकों में राजस्थान हमेशा आवाज़ उठाता रहा है कि मध्यप्रदेश चंबल के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के संग्रहण हेतु तालाब, स्टॉप डैम आदि का निर्माण कर रहा है और वह इसी आधार पर गांधीसागर में मध्यप्रदेश के हिस्से में कटौती की मांग करता रहा है । इसी तरह धार जिले में वर्षाजल को संग्रहित करने तथा भूजल भण्डारों के पुनर्भरण में उसका उपयोग करने पर माही बांध के अधिकारियों द्वारा उसमें पानी आवक के प्रतिकूल प्रभावित होने की बात उठाई जा सकती है । तर्क दिया जा सकता है कि गांधीसागर, माही बांध आदि के निर्माण पर भारी खर्च हो चुका है अत: इनमें पानी की आवक प्रतिकूल प्रभावित हो ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए ।
अर्थशास्त्र की भाषा में इसे संककॉस्ट वर्क कहा जाता है । परंतु वास्तव में दिनों दिन गिरती पानी के प्रति व्यक्ति उपलब्धता की पृष्ठभूमि में पानी के उपयोग से उस तरीके को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जो पानी में मितव्ययितापूर्ण उपयोग को संभव बनाता है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि सतही स्त्रोतों से सिंचाई की तुलना में भूजल स्त्रोतों से सिंचाई में पानी का उपयोग मितव्ययिता पूर्ण होता है । इस क्षेत्र में भूजल भण्डारों के पुनर्भरण के प्रयासों की वजह से बांधों में पानी की आवक के प्रतिकूल प्रभावित होने की बात तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं । फिर भूजल स्त्रोतों तक पहुंचने की प्रक्रिया में पानी मिट्टी से छनकर शुद्ध हो जाता है और गुणात्मकता की दृष्टि से सतही जल की तुलना में भूजल बेहतर साबित होता है । एक तर्क जो प्राय: भूजल से पानी के दोहन के प्रतिकूल जाता है, वह यह है कि भूजल के दोहन में ऊर्जा-बिजली, डीज़ल आदि - की आवश्यकता होती है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि प्रदेश में भूजल से सिंचित क्षेत्र का आकार नहरों और तालाबों से सिंचित क्षेत्र के दुगने से भी अधिक है और अगर हम भूजल भण्डारों के पुनर्भरण द्वारा भूजल स्तर को ऊंचा उठाते हैं तो ऐसी स्थिति में उसके उद्वहन में प्रयुक्त विद्युत, डीज़ल की मात्रा तो पूर्व की तुलना में कम हो जाएगी जिसके अनुकूल पर्यावरणीय एवं आर्थिक प्रभाव होंगे । मध्यप्रदेश में बिजली की आपूर्ति मांग की तुलना में कम है । इस पृष्ठभूमि में वर्षा के पानी से भूजल स्त्रोतों का पुनर्भरण एक बेहतर उपाय सिद्ध होता है ।
पानी के प्रति व्यक्ति की उपलब्धता दिनों-दिन कम होती जा रही है । ऐसे में पानी की आपूर्ति का वह तरीका श्रेष्ठ माना जाएगा जो पानी के उपयोग में मितव्ययता को संभव बनाए । मितव्ययता की दृष्टि से तालाबों और बांधों की तुलना में कुओं, नलकूपों के माध्यम से पानी का उपयोग ३०-४० प्रतिशत बेहतर होता है । बाधों और तालाबों के पानी को नहरों के माध्यम से खेतों तक पहुंचाने की प्रक्रिया में वाष्पीकरण और रिसन के कारण पानी पहुंचाने की प्रक्रिया में वाष्पीकरण तथा रिसन के जरिए पानी अधिक बरबाद नहीं होता है । फिर कुओं, नलकूपों के माध्यम से सिंचाई में किसान फसल की आवश्यकता के अनुरूप सिंचाई कर सकता है, जबकि नहरों से सिंचाई में पानी की आपूर्ति का समय सिंचाई अधिकारियों द्वारा तय किया जाता है ।
नहरों, तालाबों से सिंचाई की तुलना में कुओं, नलकुपों से सिंचाई, कई दृष्टि से बेहतर होने के बावजूद आजादी के बाद सरकार केवल नदियों पर बांध बनाकर और उनमें नहरें निकालकर सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य करती रही है । सरकार की नीति जो भी रही हो, किसान नहरों की तुलना में कुओं, नलकूपों से सिंचाई की श्रेष्ठता से परिचित रहे हैं और उन्होंने आजादी के बाद, विशेषकर सन् १९७० के बाद से कुओं, नलकूपों में भारी निवेश करके सिंचित क्षेत्र में वृद्धि की है । आज स्थिति यह है कि कुल सिंचित क्षेत्र का ६३ प्रतिशत भाग इनसे ही सिंचित होता है ।
मध्यप्रदेश में नहरों और तालाबों के कुल सिंचित कुल क्षेत्र की तुलना में कुओं, नलकूपों से सिंचित क्षेत्र दुगने से भी अधिक हैं । यह किसानों के अपने प्रयासों का ही परिणाम हैं । भूजल विशेषज्ञों का कहना है कि किसी क्षेत्र में उपलब्ध भूजल भण्डारों के ७० प्रतिशत भाग का दोहन ही संपोषणीय होता है अर्थात इतनी मात्रा का वर्ष दर वर्ष दोहन किया जा सकता है क्योंकि वर्षा के जरिए उसका पुनर्भरण संभव होता है । इससे अधिक भाग के दोहन, अर्थात ७० से ९० प्रतिशत भाग के दोहन को सेमीक्रिटिकल ९० से १०० प्रतिशत भाग के दोहन को क्रिटिकल एवं १०० प्रतिशत से अधिक दोहन को अतिदोहन की व्यवस्था का प्रतीक माना जाता है ।
भूजल भण्डारों के दोहन की दृष्टि से प्रदेश में काफी विषमताएं पाई जाती हैं । प्रदेश के सिंचाई मंत्रालय के भूजल संभाग से सन् २००४ में प्रदेश में जिला स्तर तथा विकास खण्ड स्तर पर भूजल संसाधनों के दोहन के स्तर के आंकड़े प्रकाशित किए गए थे । इन आंकड़ों के अनुसार जहां शहडोल जिले में भूजल संसाधनों के दोहन का स्तर मात्र ७ प्रतिशत, डिंडोरी जिले ८ प्रतिशत और उमरिया जिले में ९ प्रतिशत ही है, वहीं भोपाल एवं बुरहानपुर में ७९ प्रतिशत, बैतूल में ८४ प्रतिशत, नीमच में ९२ प्रतिशत, धार में १०० प्रतिशत, इन्दौर में १०४ प्रतिशत, मंदसौर और उज्जैन में १०९ प्रतिशत, शाजापुर में ११४ प्रतिशत और रतलाम में ११७ प्रतिशत है । इस प्रकार प्रदेश का रतलाम जिला भूजल के सर्वाधिक अतिदोहन का शिकार है । जैसा कि ऊपर बताया गया, भूजल भण्डारों के ७० प्रतिशत भाग का ही दोहन सम्पोषणीय होता है । लेकिन उपरोक्त जिन १२ जिलों में भूजल के भण्डारों का दोहन ७० प्रतिशत से भी अधिक होता है, उनकी क्षतिपूर्ति वर्षा के दौरान नहीं हो पाती और उनमें भूजल स्तर वर्ष दर वर्ष नीचे चले जाता है ।
प्रदेश में उपरोक्त १२ जिलों में, जहां भूजल भंडारों का दोहन ७० प्रतिशत या अधिक है, भूजल का स्तर वर्ष दर वर्ष नीचे जाता जा रहा है । ऐसे में किसान को भूजल के उद्वहन में अधिक विद्युत खर्च करनी पड़ती है, सेंट्रीफ्यूगल पंपों के स्थान पर अधिक मंहगे सबमर्सिबल पंप लगाने पड़ते हैं आवश्यकता से अधिक दोहन के कारण भूजल स्तर के नीचे जाने के कारण मिट्टी में आर्द्रता हो जाती है और उस स्थिति में उसमें वनस्पतियों का पनपना कठिन हो जाता है । खेतों में सिंचाई की आवश्यकता बढ़ जाती है जो भूजल भण्डारों के और दोहन का कारण बन सकती है । भूजल स्तर के नीचे जाने के कारण प्रकृति की वह व्यवस्था भी भंग हो जाती है जिसके अंतर्गत वर्षाकाल में नदियों में जलस्तर ऊंचा होने पर वे भूजल भण्डारों का पनुर्भरण करने में मदद करती हैं, और गर्मियों में जब नदियों में जब जलस्तर नीचे चला जाता है, तब वे भूजल से पानी प्राप्त् कर बारहमासी बनती हैं । परंतु जब भूजल स्तर बहुत नीचे चले जाता है तो गर्मियों में उससे नदियों में पानी आना बाधित हो जाता है और उनमें पानी का प्रवाह प्रतिकूल प्रभावित हो जाता है । ऊपर बताया गया था कि भोपाल, बुरहानपुर, खरगोन, राजगढ़, बैतुल, नीमच, धार, इंदौर, मंदसौर, उज्जैन, शाजपुर और रतलाम जिले में भूजल भण्डारों के अतिदोहन के शिकार हैं । उनमें से बैतूल को छोड़ दिया जाए तो शेष सभी जिले पश्चिमी मध्यप्रदेश में स्थित हैं । इन जिलों में प्रदेश का मालवा क्षेत्र भी शामिल है जिसके बारे में कभी कहा जाता था कि मालवा धरती गहन गंभीर, पग पग रोटी, डग डग नीर । भू-विशेषज्ञों का कथन है कि अगर मालवा में भूजल भण्डारों के अतिदोहन की प्रक्रिया इसी तरह जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जबकि मालवा मरूस्थल में परिवर्तित हो जाएगा ।
मध्यप्रदेश के इन १२ जिलों को भूजल के अतिदोहन के दुष्परिणामों से बचाना आवश्यक है । इस हेतु हमें दो स्तरों पर कार्य करना होगा । चूंकि भूजल भण्डारों के ९० प्रतिशत से अधिक दोहन कृषि में सिंचाई के उद्देश्य से होता है, अत: एक ओर से कृषि में सिंचाई हेतु पानी की आवश्यकता कम करना होगा, वहीं दूसरी ओर भूजल भण्डारों की क्षमता में वृद्धि के प्रयास भी करने होंगे । कृषि में सिंचाई हेतु पानी की मांग में कमी के उद्देश्य से सिंचित क्षेत्र में कमी लाने के प्रयास तो व्यावहारिक होने से सफल नहीं हो सकते हैं । किसान सिंचाई के माध्यम से ही अपनी कृषि को फायदेमंद व अर्थक्षम बना सकते हैं । अत: वे सिंचित क्षेत्र में कमी के लिए किसी भी स्थिति में तैयार नहीं होंगे । सौभाग्यवश हमारे पास सिंचाई में पानी की खपत को कम करके भी कृषि की उत्पादकता को बनाए रखने की तकनीकें उपलब्ध हैं । सिंचाई की टपक एवं फव्वारा विधियों का उपयोग कर हम सिंचाई में पानी की खपत को ५० प्रतिशत कम कर सकते हैं । भारत के तमिलनाडु और महाराष्ट्र राज्य में इन विधियों का उपयोग बड़े पैमाने पर हुआ है, जिसके चलते उन क्षेत्रों में सिंचाई में प्रति हैक्टेयर प्रयुक्त पानी की मात्रा में तो कमी आई ही है, साथ ही फसलों की उत्पादकता भी बढ़ी है । सिंचाई की पद्धतियों के उपयोग हेतु प्रारंभ में काफी निवेश करना होता है जो किसानों के लिए संभव नहीं होता । सरकार को यह देखना होगा कि सिंचाई की टपक और फव्वारा विधियों के लिए पर्याप्त् अनुदान की व्यवस्था तो हो ही, साथ ही इस क्षेत्र के किसानों को ये सरलता से उपलब्ध भी हो सकें । अगर बहुसंख्यक किसानों द्वारा सिंचाई की पद्धतियों का उपयोग किया जाने लगे तो न केवल भूजल भण्डारों के अतिदोहन की स्थिति से मुक्ति मिल सकेगी बल्कि सिंचित क्षेत्र में वृद्धि की संभावनाएं भी निर्मित हो सकेंगी ।
सिंचाई हेतु टपक और फव्वारा विधियों को प्रोत्साहन के साथ-साथ रिक्त हो रहे भूजल भण्डारों के पुनर्भरण की दिशा में किसानों एवं सरकार दोनों को मिलकर प्रयास करने होंगे । किसान अपने स्तर पर भूजल भण्डारों के पनुर्भरण हेतु वर्षा के पानी के उपयोग हेतु कुओं में आवश्यक संरचनाओं का निर्माण कर व अपने खेतों में छोटे पोखरों का निर्माण कर सकते हैं । इस हेतु तकनीकी मार्गदर्शन की व्यवस्था करनी होगी और इस प्रक्रिया में कुओं में जमने वाली गाद को निकालने हेतु मदद भी देना होगा । इन संरचनाओं के निर्माण हेतु पर्याप्त् अनुदान देकर सरकार किसानों को इस दिशा में प्रोत्सोहित कर सकती है । इस हेतु एक समयबद्ध कार्यक्रम अपनाना होगा ताकि इन १२ जिलों में हर किसान के द्वारा टपक अथवा फव्वारा विधियों का उपयोग होन लेगे ।
किसानों द्वारा इस दिशा में उठाए कदमों के साथ-साथ सरकार भी रिसन तालाबों का निर्माण तथा चेक डैम, स्टॉप डैम, भूमि के नीचे सबसर्फेस डाइक्स आदि का निर्माण कर सकती है । इन संरचनाओं की देखरेख मरम्मत आदि के लिए स्थानीय जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी । इनके निर्माण तथा देखरेख के लिए स्वैच्छिक संस्थाओं को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।
मध्यप्रदेश के इन १२ जिलों में भूजल भण्डारों के पुनर्भरण के प्रयासों का इस क्षेत्र में बने बांधों के अधिकारियों द्वारा यह कहकर विरोध किया जाता है कि इनसे बांधों में आने वाला पानी की मात्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । इन क्षेत्र में बहने वाली नदियों में चंबल, माही और नर्मदा प्रमुख हैं । चंबल पर तो सन् १९६० में ही मध्यप्रदेश और राजस्थान की संयुक्त परियोजना चंबल घाटी विकास परियोजना के अंतर्गत गांधीसागर बांध का निर्माण हो चुका है । गांधीसागर जलाशय में चंबल परियोजना द्वारा दोहन किए गए पानी का ८३ प्रतिशत भाग संग्रहित होता है । चंबल नियंत्रण मण्डल की बैठकों में राजस्थान हमेशा आवाज़ उठाता रहा है कि मध्यप्रदेश चंबल के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के संग्रहण हेतु तालाब, स्टॉप डैम आदि का निर्माण कर रहा है और वह इसी आधार पर गांधीसागर में मध्यप्रदेश के हिस्से में कटौती की मांग करता रहा है । इसी तरह धार जिले में वर्षाजल को संग्रहित करने तथा भूजल भण्डारों के पुनर्भरण में उसका उपयोग करने पर माही बांध के अधिकारियों द्वारा उसमें पानी आवक के प्रतिकूल प्रभावित होने की बात उठाई जा सकती है । तर्क दिया जा सकता है कि गांधीसागर, माही बांध आदि के निर्माण पर भारी खर्च हो चुका है अत: इनमें पानी की आवक प्रतिकूल प्रभावित हो ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए ।
अर्थशास्त्र की भाषा में इसे संककॉस्ट वर्क कहा जाता है । परंतु वास्तव में दिनों दिन गिरती पानी के प्रति व्यक्ति उपलब्धता की पृष्ठभूमि में पानी के उपयोग से उस तरीके को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जो पानी में मितव्ययितापूर्ण उपयोग को संभव बनाता है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि सतही स्त्रोतों से सिंचाई की तुलना में भूजल स्त्रोतों से सिंचाई में पानी का उपयोग मितव्ययिता पूर्ण होता है । इस क्षेत्र में भूजल भण्डारों के पुनर्भरण के प्रयासों की वजह से बांधों में पानी की आवक के प्रतिकूल प्रभावित होने की बात तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती हैं । फिर भूजल स्त्रोतों तक पहुंचने की प्रक्रिया में पानी मिट्टी से छनकर शुद्ध हो जाता है और गुणात्मकता की दृष्टि से सतही जल की तुलना में भूजल बेहतर साबित होता है । एक तर्क जो प्राय: भूजल से पानी के दोहन के प्रतिकूल जाता है, वह यह है कि भूजल के दोहन में ऊर्जा-बिजली, डीज़ल आदि - की आवश्यकता होती है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि प्रदेश में भूजल से सिंचित क्षेत्र का आकार नहरों और तालाबों से सिंचित क्षेत्र के दुगने से भी अधिक है और अगर हम भूजल भण्डारों के पुनर्भरण द्वारा भूजल स्तर को ऊंचा उठाते हैं तो ऐसी स्थिति में उसके उद्वहन में प्रयुक्त विद्युत, डीज़ल की मात्रा तो पूर्व की तुलना में कम हो जाएगी जिसके अनुकूल पर्यावरणीय एवं आर्थिक प्रभाव होंगे । मध्यप्रदेश में बिजली की आपूर्ति मांग की तुलना में कम है । इस पृष्ठभूमि में वर्षा के पानी से भूजल स्त्रोतों का पुनर्भरण एक बेहतर उपाय सिद्ध होता है ।
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