औराई आन्दोलन के राजनैतिक पैंतरे

मैंने यह रिपोर्ट देखी नहीं है मगर यह तय है कि इस रिपोर्ट के आने के बाद ही मुआवजे की रिकवरी की बात उठी होगी। अब मुआवजा कौन लौटा पायेगा? सरकार ने कुछ लोगों पर मुकदमा किया हुआ है जिसका मुख्य अभियुक्त बेचन महतो नाम के एक विकलांग को बनाया हुआ है। यह मुकदमें वापस हो जाने चाहिये थे। ओइना, खोंपा आदि गाँवों में 1970 में जो गोली काण्ड हुआ था उसके अभियुक्तों पर दायर किये गए मुकदमें कर्पूरी ठाकुर सरकार ने 1977 में उठा लिये थे। मगर सरकार चाहे किसी की भी क्यों न हो, उसकी भाषा एक ही होती है और वह है लाठी, गोली तथा जेल की भाषा। चौथा विकल्प तो किसी भी सरकार के पास नहीं होता।

बेचन महतो आगे कहते हैं, ‘‘...नीतीश कुमार, शरद यादव, सुशील कुमार मोदी ने पूरे बिहार में औराई गोली काण्ड के खिलाफ आन्दोलन किया। बिहार बन्द हुआ, जेल भरो अभियान चला और जब उनकी सरकार बनी तब उनकी ही सरकार में औराई गोली काण्ड के अभियुक्तों पर वारन्ट भी जारी हुआ। कई लोगों का नाम जुड़ा। राबड़ी देवी सरकार ने जो राहत बांटी थी उसको वापस लेने का जो नोटिस दिया गया था उसको भी नीतीश कुमार की सरकार ने खत्म नहीं किया और नीतीश जी की सरकार में किसी भी बाढ़ पीड़ित को कोई न्याय नहीं मिला। हम उनके दल के लोग हैं। मुझे कोई विधायक या सांसद थोड़े ही बनना है जो मैं सच न बोलूं।’’ बेचन महतो ने नामजद अभियुक्त बनाये जाने के बाद अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ अग्रिम जमानत की अर्जी दी (1 सितम्बर 2001) जो मंजूर कर ली गयी। फैसला लिखते हुए विद्वान न्यायाधीश ने जो कुछ लिखा उसका कुछ अंश इस तरह है, ‘‘...प्राथमिकी में थाना प्रभारी औराई जो इस काण्ड के सूचक हैं, ने 23 उपद्रवियों का नाम मजमा के पहचाने गए सदस्य के रूप में अंकित किया है। इसमें आवेदक भी सन्निहित था। इस प्रकार आवेदक एवं भीड़ के अन्य लोगों के विरुद्ध अन्य आरोपों में मौलिक आरोप है कि इन सभी लोगों ने उग्र रूप धारण करते हुए थाना भवन में आग लगा दी थी तथा थाना के मुंशी को हत्या के उद्देश्य से घसीटते हुए ले जाने लगे और सरकारी सामानों को तितर-बितर कर दिया।

इस प्रकार कानून को अपने हाथ में लेते हुए प्राथमिकी में अंकित घटनाओं के अपराध को किया। प्राथमिकी के अवलोकन से मात्रा यही स्पष्ट होगा कि अभियुक्त को इतनी बड़ी भीड़ के सदस्य के रूप में पहचाना है। ऐसी स्थिति में जब भीड़ में चार से पांच हजार व्यक्ति उपस्थित थे तब यह कहना मुश्किल होगा कि किसने कौन सा अपराध किया। आवेदक के विद्वान अधिवक्ता ने बहस की कि दण्ड विधान संहिता की धारा 199 की मदद से सबों के विरुद्ध जरूरी कार्यवाही की गयी है परन्तु इसमें आवेदक को झूठे फंसाया गया है। आगे सूचक इतने सारे व्यक्तियों को घटना स्थल पर पहचान नहीं सकता। आवेदक के अधिवक्ता के मुताबिक वस्तुतः पुलिस ने ही निर्दोष, गरीब पीड़ित जनता के विरुद्ध आक्रामक रुख अख्तियार किया। जो लोग बाढ़ पीड़ित होते हुए राहत हेतु राशन की मांग करने पहुँचे उनके ऊपर उन लोगों ने गोलियाँ चलाईं। उन्होंने गोलियों से भीड़ के सदस्यों को भूंज दिया जिसमें चार व्यक्तियों की जानें गईं और 40 से अधिक व्यक्ति घायल हुए हैं। अधिवक्ता ने बहस की कि यह मामला पुलिस बर्बरता का नमूना है। पुलिस ज्यादती का यह नमूना जो निर्दोष बाढ़ पीड़ितों के प्रति की गयी है, बेमिसाल है। पुलिस यद्यपि इस कार्य में इस कदर लिप्त हुई है कि सरकार भी चिन्तित हो गयी है एवं यही कारण है कि पुलिस ज्यादती के विरुद्ध सरकार ने उच्चस्तरीय जांच बैठा दिया है।

ऐसी स्थिति में अभी इस स्तर पर यह कहा जाना कि आवेदक या अन्य अभियुक्त इस काण्ड में दोषी हैं एवं इस प्रकार दोषी हैं कि पुलिस उन्हें पुनः गिरफ्तार करे न्याय के बिलकुल विपरीत होगा। आवेदक के अधिवक्ता ने कहा है कि इसमें किसी भी पुलिस अधिकारी को कोई जख्म नहीं पहुँचा। अगर आम जनता के सदस्य जो भीड़ के सदस्य भी कहे जाते हैं उन्हें पुलिस द्वारा गिरफ्तार करने को विवश किया जाए तो यह न्याय से परे होगा। आवेदक जो मात्रा एक हाथ का व्यक्ति है एवं दूसरे हाथ कटे हुए हैं जमानत का अधिकारी है। मैं आदेश देता हूँ कि अगर इनकी गिरफ्तारी की जाती हो या यह स्वयं आत्म समर्पण करते हों तो इनके द्वारा नौ हजार रुपये तथा इतनी ही राशि के दो जमानतदारों द्वारा बन्ध पत्र निस्तारित करने पर इन्हें छोड़ दिया जाए।’’ बेचन महतो की अग्रिम जमानत की अर्जी तो मंजूर हो गयी पर मामले में एक नया मोड़ आया जब घटना के दस साल बाद 8 फरवरी 2010 को उन्हें इस सारी घटना का मुख्य अभियुक्त बनाया गया। यह खबर स्थानीय समाचार पत्रों में छपी। दैनिक जागरण के मुजफ्फरपुर संस्करण में 9 फरवरी 2010 को यह समाचार ‘‘अपाहिज व्यक्ति के खिलाफ आरोप सत्य’’ के शीर्षक से छपी थी। पटना की एक समाजकर्मी प्रो. तारिणी राय इस मामले को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में ले गई हैं और उस पर कार्यवाही चल रही है।

उधर थाने में और हिन्दी स्कूल में हुई पिटाई के कारण अमिन्दर साह के जोड़ों में रह-रह कर दर्द उठता है। वे कहते हैं, ‘‘...हड्डी तो नहीं टूटी थी मगर अभी भी जब पुरवइया बहती है तो सारा बदन दर्द करता है। हम लोगों ने थाने के मुंशी पर नाजायज तरीके से पकड़ने और शारीरिक यातना देने के लिए मुकदमा दायर किया जिसकी संख्या 61/2001 है। इस केस पर अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई। सरकार ने दस हजार रुपया इलाज करने/मुआवजे के तौर पर मुझे दिया था। यह पैसा घटना के कोई पन्द्रह दिन बाद मिला होगा। फिर दो साल बाद इसी पैसे की रिकवरी का नोटिस सरकार की तरफ से आया कि पैसा वापस कर दो मगर उसका कोई कारण नहीं बताया गया था। हम लोगों ने इसका न तो कोई जवाब दिया न पैसा लौटाया। पिछली साल अगस्त (2009) में फिर वही नोटिस हमको मिला। इस तरह के मिले नोटिसों के खिलाफ गणेश प्रसाद यादव कलक्टर के ऑफिस पर धरने पर बैठे तब जाकर मामला कहीं टल गया। गणेश बाबू नहीं रहते तो हमलोग बर्बाद हो गए होते। नवल किशोर राय एम.पी. भी हम लोगों के पक्ष में खड़े थे।’’

6 अगस्त की गोली चालन की घटना के विरोध में विधायक गणेश प्रसाद यादव थाना परिसर में ही धरने पर बैठ गए थे। उन्होंने इस पूरी घटना की तुलना जलियाँवाला बाग हत्या काण्ड से की और पुलिस कर्मियों को जनरल ओ’ डायर की संज्ञा दी जिन्होंने निहत्थे और निरीह लोगों पर गोली चलायी थी। उन्होंने सीतामढ़ी के आरक्षी अधीक्षक के निलम्बन की मांग की और जिन पुलिस वालों ने राहत मांगने वालों पर गोली चलायी उनके विरुद्ध हत्या का मुकदमा चलाने की बात कही। सारे मृतकों के आश्रितों को सरकारी नौकरी और 10-10 लाख रुपये का मुआवजा देने की भी उन्होंने मांग रखी। 8 अगस्त 2001 को भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माले) ने मुजफ्फरपुर बन्द का आह्नान किया जिसका व्यापक असर देखा गया। लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों ने अपने स्तर से घटना की जांच करवायी और कमोबेश वही माँगें रखी जिनके लिए गणेश प्रसाद यादव धरने पर बैठे थे। जिन 23 नामजद लोगों पर पुलिस ने मुकदमें दायर किये थे उन्हें भी उठा लेने की मांग की गयी। 21 अगस्त 2001 को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (राजग) ने प्रान्त में बन्द का आयोजन किया।

फिलहाल औराई में इस घटना को लोग इतिहास के तौर पर ही याद करते हैं। यह सब चीजें इस तरह की किसी भी घटना के विरोध में अवश्य ही एक कर्मकाण्ड का स्वरूप ले चुकी हैं। सरकार की तरफ से भी पीड़ित व्यक्तियों और उनके आश्रितों को मुआवजे की घोषणा, नौकरी देने का वायदा, दोषी व्यक्तियों को न बख्शे जाने की घोषणाएं, जांच आयोग बैठाना आदि का काम किफायत के साथ होता है और इन सब के बाद सारी बातें कुछ समय के बाद भुला दी जाती हैं जब तक ऐसा ही कोई कांड दुबारा कहीं और न घटित हो जाए।

इस पूरी घटना को समेटते हुए गणेश प्रसाद यादव कहते हैं, ‘‘...औराई तो बाजार है यहाँ हर तरफ से लोग सौदा-सुल्फ लेने आते हैं। भीड़ पर गोली चली तो बहुत से लोग घायल हो गए। भगदड़ मच गयी और एक तरह का अघोषित कर्यू ए यहाँ लग गया। मुझे खबर मिली तो मैं पटना से यहाँ आया। स्थानीय स्तर पर किसी पर कोई कार्यवाही तब तक नहीं हुई जब तक हमने इसे राजनैतिक स्वरूप नहीं दे दिया। बाद में सरकार ने इसकी जांच बैठायी और एक ऐसे अधिकारी को जांच के लिए भेजा जिससे सरकार जो चाहती लिखवा लेती। इस बीच कुछ घायलों और मृतकों को थोड़ा-बहुत मुआवजा मिल चुका था। मैंने यह रिपोर्ट देखी नहीं है मगर यह तय है कि इस रिपोर्ट के आने के बाद ही मुआवजे की रिकवरी की बात उठी होगी। अब मुआवजा कौन लौटा पायेगा? सरकार ने कुछ लोगों पर मुकदमा किया हुआ है जिसका मुख्य अभियुक्त बेचन महतो नाम के एक विकलांग को बनाया हुआ है। यह मुकदमें वापस हो जाने चाहिये थे। ओइना, खोंपा आदि गाँवों में 1970 में जो गोली काण्ड हुआ था उसके अभियुक्तों पर दायर किये गए मुकदमें कर्पूरी ठाकुर सरकार ने 1977 में उठा लिये थे। मगर सरकार चाहे किसी की भी क्यों न हो, उसकी भाषा एक ही होती है और वह है लाठी, गोली तथा जेल की भाषा। चौथा विकल्प तो किसी भी सरकार के पास नहीं होता। हमारे यहाँ का रिवाज है कि बाजार लगने के पहले वहाँ जेबकतरे पहुँच जाते हैं। समाज और व्यवस्था अगर इन जेबकतरों की मदद नहीं करती है तो अनदेखी जरूर करती है। जब तक इन घेंटकट्टों पर नियंत्रण नहीं होगा, इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी।’’

Path Alias

/articles/auraai-anadaolana-kae-raajanaaitaika-paaintarae

Post By: tridmin
×