..और नदियों के किनारे घर बसे हैं

मानव सभ्यता और बाढ़ का रिश्ता आदिकाल से चला आ रहा है। अनेक सभ्यताएं नदियों के किनारे पनपी और बाढ़ से नेस्तनाबूद हो गई। आज भी बाढ़ एक ऐसी आपदा है जिसके नाम से ही देश के अनेक गांवों एवं नगरों के लोग थर्रा उठते हैं। एक शोध के अनुसार 1980 से 2008 के दौरान भारत में चार अरब से भी अधिक लोग बाढ़ प्रभावित हुए। प्रति वर्ष बाढ़ से करोड़ों रुपयों के घर-बार, खेती और मवेशी नष्ट हो जाते हैं।

गंगा के मैदान में एक नजर डालें तो पाएंगे कि अचानक कुछ वषों से बाढ़ की विभीषिका बढ़ चली है, जबकि विडम्बना यह है कि नदी विशेषज्ञ नदियों में घटते जल को लेकर चिंतित हैं- फिर भी ऐसी मारक बाढ़! वाह रे प्रकृति। गंगा बेसिन में गंगा की सहेलियां, यमुना, सोन, घाघरा, गंडक, कोसी और महानंदा नदियां मुख्य हैं। इन नदियों का जाल उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, दक्षिणी एवं मध्य बंगाल में फैला हुआ है। बाढ़ की अधिक समस्या गंगा के उत्तरी किनारे वाले क्षेत्र में है। घनी आबादी वाले नगर भी इसी तट पर बसे हैं। इस क्षेत्र में आबादी का घनत्व अब 500 व्यक्ति प्रति किमी से ऊपर हो चला है और आबादी भी 40 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है।

‘नदी किनारे गाँव रे..’ की प्रवृत्ति के चलते इस मैदान पर आबादी का दबाव इतना है कि आज नदियों के ‘बाढ़-पथ’ तक रिहायशी बन चुके हैं। बाढ़-पथ उस क्षेत्र को कहते हैं, जो पिछले 100 वर्षों में नदी की बाढ़ में एक फुट पानी में डूब चुका हो। पानी का आकर्षण कुछ ऐसा है कि हम रिहायशी कॉलोनियों से लेकर विश्वस्तरीय खेल सुविधाएँ भी बाढ़-पथ पर ही बना रहे हैं।

हिमालय में जल प्रवाह से होने वाले पर्वतीय क्षरण के कारण शैल अनाच्छादन (डेन्यूडेशन) भी निरंतर चलता रहता है। शोधकर्मियों का कहना है कि नदियों से शैल अनाच्छादन की दर 1974 में 0.9 मिमी प्रतिवर्ष से बढ़ कर 2007 में लगभग दोगुनी 1.7 मिमी प्रति वर्ष हो गई। शैल अनाच्छादन की दर बढ़ने के प्राकृतिक एवं मानवजनित दोनों कारण हैं। विश्व की पर्वत श्रृंखलाओं में सबसे युवा होने के नाते हिमालय की चट्टानें मुलायम तथा आसानी से अनाच्छादित हो जाती हैं। मौसम की करवट अनाच्छादन दर बढ़ाने में योगदान करती है। इसके अतिरिक पर्वतीय राज्यों में विकास के लिए हो रहे जंगल कटान, सड़क निर्माण, बांध निर्माण, कृषि भूमि का वैज्ञानिक पद्धति से प्रबंधन न होने के कारण पर्वतीय क्षरण, दावानल तथा चरागाहों का अनियंत्रित प्रयोग सब मिलकर नदियों में बालू-मिट्टी की मात्रा बढ़ाने में मदद करते हैं।

पर्वत की घाटी को चीरती नदी की चाल मैदान में सुस्त हो जाती है। इस कारण उसकी धारा में ‘बोझा’ ले जाने की क्षमता घट जाती है और नदी अपनी धारा में ला रही रेत और मिट्टी को किनारे पर फैला देती है। मैदानी क्षेत्रों में नगरों में बाढ़-पथ पर घनी आबादी बस जाने के फलस्वरूप नदी किनारे बांध बनाना पड़ता है। इस बांध से आबादी तो डूबने से बच जाती हैं, पर उस आबादी को हर बरसात में बिना बाढ़ के जलमग्न होना पड़ता है। बांधों के कारण नदी अपने ‘बोझ’ को बाढ़ के दौरान कम कर लेती है। पर जब हमने बाढ़ रोकने के लिए बांध बना दिए तो नदी अपनी बालू के ‘बोझ’ को कहाँ तक ढोए? बांध जब नदी का रास्ता रोकते हैं तो जल्दी ही नदी अपना ‘बोझ’ अपनी ही तलहटी में छोड़कर आगे बढ़ जाती है। इससे नदी की तलहटी ऊपर उठती जाती है और बांध को और ऊपर उठाना पड़ता है। इस आपधापी में मौका पाकर नदी अपना तटबंध तोड़ देती है। कोसी ने दो वर्ष पूर्व कुछ ऐसा ही किया था।

वन पर्वतीय क्षेत्र के लिए तो महत्व रखते ही हैं, उनका असर मैदानी क्षेत्र पर भी पड़ता है। वनों के कटान से पर्वतों में क्षरण बढ़ गया है। बढ़ती क्षरण की इस दर की बारीकी से जांच होना आवश्यक है, क्योंकि उससे मैदान में बाढ़ अधिक मारक हो सकती है। पर्वतीय क्षेत्र के विकास में सम्भावित शैल अनाच्छादन एवं उसके प्रभाव की पूरी जानकारी कोई भी परियोजना प्रारम्भ करने से पूर्व होनी आवश्यक है। परियोजनाएं बनेंगी तो वन कटेंगे ही और उनका खामियाजा सबको भुगतना पड़ेगा। बदलते मौसम की पुकार है कि नदियों के स्वभाव को बारीकी से देखा-परखा जाए और बाढ़ पूर्व सूचना प्रणाली का जाल बिछाया जाए। बाढ़ का प्रारम्भ ‘वाटर शेड’ से होता है-उसका उचित प्रबंधन होना जरूरी है। बदलते मौसम में प्रबंधन तंत्र को तकनीकी और प्रशासनिक पहलुओं पर अधिक सक्षम बनाना होगा तभी बाढ़ में बहती जिंदगियों को बचाया जा सकेगा!

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