आज चोआ 80 से 100 फुट पर है अर पाणी बेकार होग्यो। निहाल चंद के मुताबिक, इस कुएं का अत्यंत शीतल जल थकी-हारी आंखों को तो सुख देता ही था, तिल्ली की बीमारी के लिए भी रामबाण दवा था। तिल्ली के रोगी रिश्तेदार और परिचित यहां आकर रुकते थे और इस कुएं का पानी पीकर स्वस्थ हो लौटते थे। मीठिया कुएं का पानी अत्यधिक मीठा था और इसीलिए इसका यह नाम पड़ा। टिब्बों, रेत और मैदान की संयुक्त, संपन्न जल परंपरा के गवाह गुड़गांव के भांगरौला में अब तालाब, जोहड़ी और कुओं में से कुछ नहीं बचा है। गांव में घुसते ही हमारी मुलाकात 62 साल के निहालचंद से होती है। गांव के तालाब, जोहड़ और कुओं का इतिहास, समाज से उनका रिश्ता और सरोकार उनकी जबान पर कंप्यूटर की तरह है।
गांव में तालाब और कुओं की बात शुरू होते ही कहते हैं, म्हारे गांव के कुओं, तालाब और जोहड़ियों के पाणी म्ह इतनी ताकत थी के कोए बीमार ए ना होया करता। छोटी-मोटी बीमारी हो भी जाया करती तो डाक्टरों की जरूरत ए ना थी, पाणी ए इलाज था, अर नहीं रह्या अपणा पणी तो आई रोज बीमारी।
राजस्व रिकार्ड के मुताबिक भांगरौला में गुड़गांव जिले का सबसे बड़ा तालाब था। चूंकि गांव में कई छोटी-छोटी जोहड़ियां थीं, इसलिए इसे तालाब ही कहते थे। उस वक्त मेवात भी गुड़गांव जिले का ही हिस्सा था। बकौल निहालचंद, 12 एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैले इस तालाब में मल शुद्धि आदि की इजाजत नहीं थी।
अब इस तालाब के आधे से अधिक हिस्से पर कब्जे हैं। गांव की आबादी गत एक दशक में ही डेढ़ गुना बढ़ गई है। सारी आबादी का गंदा पानी, मल-मूत्र 50 फुट गहरे इस तालाब में गिरता है।
तालाब और जोहड़ियों का निर्माण इस तरह से किया गया था कि भूजल स्तर बना रहे और बाढ़ का खतरा पैदा न हो। तालाब पूर्व में तो सारी जोहड़ियां गांव के पश्चिम में हैं। मावसआली जोहड़ी का आधे से अधिक भाग कब्जे में है। इस जोहड़ी पर अमावस्या वाले दिन ग्रामीण अपना दान-पुण्य और पूजा करने आते थे। इसीलिए इसे मावसआली (अमावस्या वाली) जोहड़ी कहते थे।
पानी के प्रति हमारी परंपरा कितनी वैज्ञानिक और सनातन थी, यह धकौंड़ा जोहड़ी से पता चलता है। विष्णु के मुताबिक, इस जोहड़ी के आसपास धौंक के पेड़ थे, इसीलिए इसे धौंकड़ा और बाद में धंकोड़ा कहा जाने लगा। लगभग एक एकड़ की मथुरावाली जोहड़ी अब बस्ती के अंदर है। यह अब एक-डेढ़ कनाल की रह गई है।
सिसकंदी जोहड़ी का इतिहास बहुत रोचक है। जनश्रुति के मुताबिक रोहतक के एक गांव दुल्हेड़ा के लोगों ने 250 साल पहले भांगरौला पर हमला किया था। तब लड़ाई में कुछ हमलावर सिसकते रह गए थे। इसीलिए इसका नाम सिसकंदी पड़ गया।
गांव के भीतर और खेतों में तकरीबन 100 कुएं थे। यहां के तालाब और जोहड़ों सी ही समृद्ध परपरा थी कुओं की भी। यह अलग बात है कि अब एक भी कुआं नहीं हैं। एक कुएं का तो यह भी नहीं पता कि कभी यहां कुआं भी था। 62 साल की बिमला कहती हैं, जब कुएं-जोहड़ थे तो कभी पाणी का कदै नहीं होया।
आज चोआ 80 से 100 फुट पर है अर पाणी बेकार होग्यो। निहाल चंद के मुताबिक, इस कुएं का अत्यंत शीतल जल थकी-हारी आंखों को तो सुख देता ही था, तिल्ली की बीमारी के लिए भी रामबाण दवा था। तिल्ली के रोगी रिश्तेदार और परिचित यहां आकर रुकते थे और इस कुएं का पानी पीकर स्वस्थ हो लौटते थे। मीठिया कुएं का पानी अत्यधिक मीठा था और इसीलिए इसका यह नाम पड़ा। डुलाना कुएं पर दो चिड़स होती थी और चौलाना पर चार चिड़स। खारिया कुएं का पानी खारा था।
नरक जीते देवसर (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम | अध्याय |
1 | |
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3 | पहल्यां होया करते फोड़े-फुणसी खत्म, जै आज नहावैं त होज्यां करड़े बीमार |
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11 | जिब जमीन की कीमत माँ-बाप तै घणी होगी तो किसे तालाब, किसे कुएँ |
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16 | सबमर्सिबल के लिए मना किया तो बुढ़ापे म्ह रोटियां का खलल पड़ ज्यागो |
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19 | |
20 | पाणी का के तोड़ा सै,पहल्लां मोटर बंद कर द्यूं, बिजली का बिल घणो आ ज्यागो |
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