आठ मोहल्लों वाला-आठनेर

बैतूल जिले का आठनेर यानि आठ मोहल्लों (नेर यानि मोहल्ला) और 16-17 हजार की जनसंख्या वाला विकासखंड मुख्यालय पानी के संकट से हमेशा ही जूझता रहा है। पहले आबादी कम थी और आस-पास के नदी नालों से हमेशा का आजमाया जाने वाला झिर या झिरियाँ का नुस्खा काम आता था। आठनेर विकासखंड के डेढ़ सौ गाँवों के इलाके में जंगलों और नतीजे में बरसात की कमी रही है। तथा पूरा इलाका गहरी चट्टानों से भी भरा पड़ा है। लेकिन फिर भी उथले कुओं से काम चला लेते थे।

आठनेर से चार-पाँच किलोमीटर दूर बने पटेल के कुएँ से पूरे कस्बे के लोगों को पानी मिल जाता था। इसके अलावा एक किसान का कुआँ भी सबको पानी देता था। कस्बे में एक पुराना तपतजीरा (यानि ताप्ती झिरा) तालाब भी है। जिसमें कहते हैं कि ताप्ती नदी की झिर से पानी आता है। सौ-डेढ़ सौ साल पुराने इस तालाब में हमेंशा थोड़ा बहुत पानी रहता है। जो नहाने-धोने तथा निस्तार के काम आता है। इस तालाब को साफ करके उस पर पाट बाँधा गया था। एक और कुआँ आठनेर के मालगुजार का भी था जिसमें एक जमाने में आठ-दस हाथ पर ही अटूट पानी था लेकिन सन् 75-76 के बाद 60-65 फुट खोदने के बावजूद यही कुआँ आधा घण्टा भी पानी नहीं दे पाता।

60 के दशक में हर जगह की तरह यहाँ भी कुओं, नलकूपों की भरमार हुई है। 1960-70 में जहाँ एक एकड़ में एक कुआँ ही रहता था वहाँ, एक अनुमान के अनुसार अब इतने ही इलाके में 30-40 तक कुएँ खुद गए हैं। नतीजे में पानी बँटा है और कम भी हुआ है। पहले मोट और रहट से पानी लेने के कारण कुओं को आराम मिलता था लेकिन अब इनमें मोटरें लग गई हैं। और लगातार पानी उलीचा जाता है। लेकिन ऐसे में पास के धामोरी गाँव के सरपंच अभी भी अपनी कुछ मोटों से सब्जी-भाजी यानी ‘बगापत’ कर लेते हैं।

आठनेर कस्बे में 20-25 नलकूप खोदे गए थे लेकिन ये सभी असफल साबित हुए। 1991 में जब इक्का-दुक्का नलकूप ही थे तब उनमें खूब पानी मिल जाया करता था लेकिन अब दो-ढाई इंच से ज्यादा पानी नहीं मिल पाता। इन नकारा नलकूपों के छेदों को इस आशा से पूरा भी नहीं गया है कि पता नहीं कब प्रकृति की कृपा से इनमें भी पानी आ जाए।

आठनेर के पूर्व में तीन-चार किलोमीटर आगे एक पट्टी है जिसमें पानी मिल जाता है। यहाँ खोदे गए कुओं और सात नलकूपों से पानी लेकर तीन टंकियों में भरा और करीब 1100 घरों को पानी दिया जाता है। खेतों में भी कुएँ हैं जिनको मार्च के बाद नगर जलप्रदाय योजना से जोड़ दिया जाता है। इन किसानों को मार्च तक रबी की फसल हो जाने के बाद पानी की जरूरत नहीं रहती। इस तामझाम के बावजूद पिछले 10 सालों से कस्बे के निवासियों को बरसात तक में हर तीसरे दिन एक बार 40-45 मिनट पानी दिया जाता है। 1970-71 में बनी पेयजल योजना की हालत यह है कि गिलास भर पानी इंतजार में 10-12 लोग चौबीसों घण्टे बैठे मिल सकते हैं। गर्मी के मौसम में यहाँ बीस रूपए में 200 लीटर और कभी-कभी पांच से पन्द्रह रुपए प्रति पीपा की दर से पानी बिकता है।

असल में आठनेर कस्बे के आसपास चार-पाँच किलोमीटर के घेरे में तीन-चार सौ फुट तक पानी नहीं है। यहाँ 45 नलकूप खोदे गए लेकिन एक में भी पर्याप्त पानी नहीं निकला। छह-सात सौ फुट खोदने पर ही पर्याप्त पानी मिल जाने की गुंजाइश रहती है लेकिन इतनी गहराई और ग्रेनाइट व काले पत्थरों की चट्टानों के कारण महंगा नलकूप खुदवाना हरेक के बस का नहीं होता। आसपास के धोड़ंगा, सोनूरा, आमढाना आदि गाँवों में एक-एक मील पहाड़ियों पर चढ़कर पानी लाया जाता है। खड़गर, निरगुनढाना, पातरा, गोहौंदा आदि गाँवों में ताप्ती नदी से पानी लाया जाता है।

भू-गर्भीय जल की इसी कमी की पुष्टि हाइड्रोलॉजीकल सर्वे विभाग ने भी कर दी है। जो कुएँ खुदे हैं उनमें से अधिकतम में भगत-भूमका के बताने पर खोदने से ही पानी निकला है। ऐसी हालत में गाँवों के लोगों ने सुझाया था कि तीन किलोमीटर दूर कोड्डादेव के नाले पर छोटा बाँध बनाने से पानी की आपूर्ति की जा सकती है।

जल संकट की इस मार में लोग मिल-जुलकर भैंसदेही रोड की चौरासी टेकरी, जिस पर चौरासी देवी-देवताओं का वास माना जाता है, वर्षा होने तक पाँच या सात मंगलवार पूजा करते हैं। कहते हैं कि चोरासी टेकरी पर पूजा करके लोग भीगकर ही वापस लौटते हैं। कि चोरासी टेकरी पर पूजा करके लोग भीगकर ही वापस लौटते हैं। इसके अलावा पानी माँगने का एक और तरीका ‘एक्का’ भी है जिसमें एक पैर पर खड़े होकर रामधुन या भजन गाए जाते हैं। मुस्लिम समाज के लोग भी चारों दिशाओं में नमाज पढ़कर वर्षा को बुलाते हैं। आठनेर इलाके में एक तो वैसे ही पानी की कमी है दूसरे सतही पानी को अनदेखा करके भू-गर्भीय जल को उलीचना जारी है। पानी उपलब्ध करवाने के इन सरकारी तरीकों ने लोगों को पानी से और भी दूर कर दिया है।

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Post By: tridmin
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