असामाजिक तत्वों की भूमिका

गाँवों के लोगों ने स्थानीय सांसद को अपनी व्यथा बतायी। उन्होंने लोगों को आश्वस्त किया कि अगर वह चुनाव जीत जाते हैं तो यह जल-जमाव समाप्त करवा देंगे। वह चुनाव जीत भी गए क्योंकि इस मुद्दे पर उन्हें व्यापक जन-समर्थन मिल गया। जनता उनके पास यह कहने के लिए गयी कि हमारी समस्या का किसी तरह निदान करवाइये। सांसद ने यह बात प्रशासन को कही कि एक माह के अंदर इस समस्या को हल करवाइये। उन्होंने डी.एम. और बागमती परियोजना के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर को भी लिखा मगर वहाँ जाकर बात लाल फीता शाही में फंस गयी क्योंकि उसकी स्वीकृति कई स्तरों से मिलनी थी और यह स्वीकृति तमाम प्रयासों के बाद भी नहीं मिली। महीनों बीत गए और कुछ हुआ नहीं तब गाँवों के लोगों ने मिलकर बागमती के पूर्वी तटबंध को काट दिया। इस कार्यक्रम में चन्दौली तक से लोग शामिल हुए थे।

चूहों की तरह तटबंधों के टूटने की जिम्मेवारी से बचने के लिए असामाजिक तत्वों की बहुत बड़ी उपयोगिता है। इस शब्द के चलन के पीछे अमरीकियों का तो नहीं लेकिन अंग्रेजों का हाथ जरुर है। विलियम विल्कॉक्स नाम के एक अंग्रेज इंजीनियर ने पश्चिम बंगाल में बर्द्धमान जिले की सिंचाई और बाढ़ प्रबंधन पर एक बड़ी ही तथ्यपरक और दिलचस्प पुस्तक लिखी है। असामाजिक तत्वों का मूल तलाशने में यह अभिलेख बड़ा ही कारगर है। विल्कॉक्स लिखते हैं, “इस घाटी में किसान नदी के किनारे दो से ढाई फुट ऊँचे बौने तटबंधों का हर साल निर्माण करते थे। सूखे मौसम में इनका इस्तेमाल रास्ते के तौर पर होता था। उनके अनुसार घाटी में बरसात की शुरुआत के साथ-साथ बाढ़ों की भी शुरुआत होती थी जिससे कि बुआई और रोपनी का काम समय से और सुचारु रुप से हो जाता था। जैसे-जैसे बारिश तेज होती थी उसी रफ्तार से जमीन में नमी बढ़ती थी और धीरे-धीरे सारे इलाके पर पानी की चादर बिछ जाती थी। यह पानी मच्छरों के लारवा की पैदाइश के लिए बहुत उपयुक्त होता था। इसी समय उफनती नदी का गंदा पानी या तो बौने तटबंधों के ऊपर से बह कर पूरे इलाके पर फैलता था या फिर किसान ही बड़ी संख्या में इन तटबंधों को जगह-जगह पर काट दिया करते थे जिससे नदी का पानी एकदम छिछली और चौड़ी धारा के माध्यम से चारों ओर फैलता था। इस गंदले पानी में कार्प और झींगा जैसी मछलियों के अंडे होते थे जो कि नदी के पानी के साथ-साथ धान के खेतों और तालाबों में पहुँच जाते थे। जल्दी ही इन अंडों से छोटी-छोटी मछलियाँ निकल आती थीं जो कि पूरी तरह मांसाहारी होती थीं। यह मछलियाँ मच्छरों के अंडों पर टूट पड़ती थीं और उनका सफाया कर देती थीं। खेतों की मेड़ें और चौड़ी-छिछली धाराओं के किनारे इन मछलियों को रास्ता दिखाते थे और जहाँ भी यह पानी जा सकता था, यह मछलियाँ वहाँ मौजूद रहती थीं। यही जगहें मच्छरों के अंडों की भी थीं और उनका मछलियों से बच पाना नामुमकिन था। अगर कभी लंबे समय तक बारिश नहीं हुई तो ऐसे हालात से बचाव के लिए स्थानीय लोगों ने बड़ी संख्या में तालाब और पोखरे बना रखे थे जहाँ मछलियाँ जाकर शरण ले सकती थीं। सूखे की स्थिति में यही तालाब सिंचाई और फसल सुरक्षा की गारंटी देते थे और क्योंकि नदी के किनारे बने तटबंध बहुत कम ऊँचाई के हुआ करते थे और 40-50 जगहों पर एक साथ काटे जाते थे इसलिए बाढ़ का कोई खतरा नहीं हेाता था और इस काम में कोई जोखिम भी नहीं था। नदी के ऊपरी सतह का पानी खेतों तक पहुंचने के कारण ताजी मिट्टी की शक्ल में उर्वरक खाद खेतों को मिल जाती थी। बरसात समाप्त होने के बाद बौने तटबंधों की दरारें भर कर उनकी मरम्मत कर दी जाती थी। विल्कॉक्स लिखते हैं, ‘‘...कोई भी गाँव वाला इस तरह की स्पष्ट तकनीकी राय नहीं दे सकता था अगर उसने अपने बाप-दादों से यह किस्से न सुने होते या उन्होंने खुद तटबंधों को काटते हुए उनको न देखा होता। नदी के तटबंध 40-50 जगहों पर क्यों काटे जाते थे- यह तर्क इस बात को रेखांकित करता है।”

अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को मजबूत बनाने और सुधारने का काम नहीं किया। उन्हें लगा कि चौड़ी और छिछली धाराएं नदी की छाड़न हैं और नदियों के किनारे बने तटबंध केवल बाढ़ से बचाव के लिए बनाये जाते हैं। उन्होंने चौड़ी-छिछली धाराओं की उपेक्षा की और उन्हें ‘‘मृत नदी’’ घोषित कर दिया और जमीन्दारी तटबंधों को बाढ़ नियंत्रण के लिए मजबूत करना शुरू किया। लोगों ने फिर भी तटबंधों को काटना नहीं छोड़ा। उधर अंग्रेज सरकार इस बात पर तुली हुई थी कि वह किसी भी कीमत पर लोगों द्वारा तटबंधों के काटने की इस ‘दुर्भाग्यपूर्ण घटना’ को रोकेगी। उसका मानना था कि इतनी जगहों पर तटबंध नदी की ‘अनियंत्रित बाढ़’ के कारण टूटते हैं। उन्हें इस बात का गुमान तक नहीं हुआ कि तटबंध चोरी-चुपके किसान ही काटते हैं। उन्हें यह भी समझ में नहीं आया कि एक बड़ी लम्बाई में तटबंधों के बीच घिरी नदी से एक ही साल में 40 से 50 स्थानों पर दरारें क्यों पड़ेंगी? तटबंधों के अंदर फंसी नदी की मुक्ति के लिए तो दो एक जगह की दरार ही काफी है- वह इतनी जगहों पर तटबंध क्यों तोड़ेगी?

इस तरह की ‘दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं’ के पीछे स्थानीय किसानों के हाथ होने की जानकारी होने में अंग्रेजों को बहुत समय लग गया और वहीं से बाढ़ नियंत्रण के क्षेत्र में, ‘असामाजिक तत्वों’ का जन्म हुआ। बाढ़ की जिम्मेवारी को असामाजिक तत्वों के खाते में डालने की वारदातें कटिहार जिले में मनिहारी प्रखंड में अक्सर हुआ करती हैं। इस प्रखंड में मनिहारी से दो किलोमीटर पूर्व में एक गांव है मेदिनीपुर, जहाँ गाँव वाले बताते हैं ‘‘हम लोग तीन तरफ से नदियों से घिरे हुए हैं। पूर्व में महानन्दा, पश्चिम में कारी कोसी और दक्षिण में गंगा। हमारी समस्या यही है और हमारी समस्या का समाधान भी यही है। पहले जब तटबंध नहीं था तब नदियाँ चढ़ती थीं तो हमारे यहाँ बाढ़ आती थी और किसी भी नदी का लेवेल कम होने पर हमारे यहाँ पानी घटने लगता था। तटबंध बनने के बाद हमारी समस्या गंभीर हुई है। बारिश में वैसे भी इन तीनों तटबंधों के बीच फंसा पानी हमारे यहाँ अटकता है। कभी महानन्दा का पश्चिमी या कारी कोसी का पूर्वी तटबंध टूटा तो हम डूबे। तटबंधों के बीच फँसा यह पानी अपने आप कभी निकल पायेगा क्या?’’

वह आगे कहते हैं, ‘‘गंगा का तटबंध काटने के अलावा हमारे पास चारा क्या है? अगर नहीं काटते हैं तो मनिहारी, मेदिनीपुर, आजमपुर टोल आदि गाँवों के कम-से-कम 5,000 लोग मरेंगे और मरने वालों में प्रखण्ड या थाने आदि के सरकारी महकमों के भी लोग होंगे। सरकार अगर दस हजार रुपये भी प्रति मृत व्यक्ति का मुआवजा दे तो 5 करोड़ रुपये होता है। काटे गए तटबंध की मरम्मत में दस-बीस लाख रुपये से ज्यादा नहीं लगेगा। प्रशासन के लोग तो खुद खड़ा होकर कटवाते हैं क्योंकि बाढ़ का पानी सरकारी और गैर सरकारी लोगों में अंतर नहीं समझता। ...यह काम किस तरह से असामाजिक है? ...मामला मुकदमा कुछ नहीं होता है क्योंकि जान सबको प्यारी होती है और इस बात से हर अफसर डरता है कि अगली बाढ़ में लोगों ने थाने-पुलिस या मुकद्दमें के डर से अगर बाँध नहीं काटा तो उनका खुद का क्या होगा।’’

बिहार के पुराने समाजवादी नेता और कई बार विधायक रहे (अब स्वर्गीय) परमेश्वर कुँअर कहा करते थे कि नदी को मुक्त रखना चाहिये। वह सभी तटबंध हटा देने की बात किया करते थे। वह यह जरूर मानते थे कि कोसी और गंडक जैसी नदियों के तटबंधों को काट देने के बाद स्थानीय लोगों को उन्हें संभालना मुश्किल हो जायेगा और यह काम सरकार को करना चाहिये मगर बाकी छोटी नदियों के तटबंधों को हटाने का काम स्थानीय लोग भी कर सकते हैं। इसी तरह के तटबंध की परिस्थितिजन्य कटाई की घटना का विवरण देते हैं सीतामढ़ी के समाजकर्मी संजय सिंह ‘मधु’। उनका कहना है, ‘‘...इस जगह का नाम चैनपुर है। यहाँ पुरानी धार बागमती के पानी छलकने से जबर्दस्त जल-जमाव हुआ करता था। नदी का पानी चारों ओर फैलता था और बागमती का तटबंध उसे नदी में जाने से रोक देता था। यह पानी मांड़र, पर्राही, कन्सार, झौवा, चौनपुर और यादव टोली में फैलता था। गाँवों के लोगों ने स्थानीय सांसद को अपनी व्यथा बतायी। उन्होंने लोगों को आश्वस्त किया कि अगर वह चुनाव जीत जाते हैं तो यह जल-जमाव समाप्त करवा देंगे। वह चुनाव जीत भी गए क्योंकि इस मुद्दे पर उन्हें व्यापक जन-समर्थन मिल गया। जनता उनके पास यह कहने के लिए गयी कि हमारी समस्या का किसी तरह निदान करवाइये। सांसद ने यह बात प्रशासन को कही कि एक माह के अंदर इस समस्या को हल करवाइये। उन्होंने डी.एम. और बागमती परियोजना के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर को भी लिखा मगर वहाँ जाकर बात लाल फीता शाही में फंस गयी क्योंकि उसकी स्वीकृति कई स्तरों से मिलनी थी और यह स्वीकृति तमाम प्रयासों के बाद भी नहीं मिली। महीनों बीत गए और कुछ हुआ नहीं तब गाँवों के लोगों ने मिलकर बागमती के पूर्वी तटबंध को काट दिया। इस कार्यक्रम में चन्दौली तक से लोग शामिल हुए थे। कई गाँवों के हजार से ज्यादा लोग काटने के लिए इकट्ठा हुए और उन्होंने बांध काटना शुरू किया। लेकिन यह लोग पेशेवर मिट्टी काटने वाले नहीं थे इसलिए उन्हें दिक्कत हो रही थी। बाद में मजदूरों की मदद से यह काम पूरा किया गया और इसमें पच्चीस हजार के आस-पास रकम खर्च हुई जिसका इंतजाम आम जनता के चन्दे से हुआ। बांध कट जाने के बाद जल-जमाव तो खतम हो गया मगर बागमती परियोजना के इंजीनियर यहाँ जांच पड़ताल करने आये और 40-50 लोगों से पूछ-ताछ की। इंजीनियरों का कहना था कि बांध गाँव वालों ने काटा है इसलिए उसकी मरम्मत का खर्च भी उन्हीं से वसूल किया जायेगा। इस घटना से गाँव के लोग थोड़ा सहम गए और स्थानीय नेता राम चन्द्र सहनी के पास गए। एक जन-सभा की गयी जिसमें ऐलान किया कि जन-हित में बांध काटने का काम किसानों ने किया है और अगर सरकार मुकद्दमा दायर करना चाहती है तो सारे गाँवों के लोगों पर मामला दायर करे। इसके बाद डी.एम. से बात करके गाँव वालों ने उन्हें सारी कहानी बतायी और उसके बाद फिर मामला रफा-दफा हो गया। बागमती परियोजना ने फिर इसकी जिम्मेवारी ली और बांध का गैप भरने का काम करवा दिया। बांध काटने का काम माघ-फागुन में हुआ था। यह 2000 के पहले की बात है। मांड़र में बांध के कट जाने के बाद बाहर सिल्टेशन भी हो गया और अब कोई समस्या नहीं है।’’

1989 में बिहार विधान सभा में हरखू झा के एक प्रश्न के उत्तर में सरकार की तरफ से यह बताया गया कि ‘‘...1987 की अप्रत्याशित बाढ़ अवधि में कुल 104 स्थानों पर क्षति पहुँची जिनमें से 27 स्थानों पर दरारें पड़ीं और 77 स्थानों पर असामाजिक तत्वों के द्वारा तटबंधों को काट दिया गया।’’ सरकार ने यह नहीं बताया कि 27 जगह तटबंध अगर उसकी लापरवाही से टूटे तो क्या यह एक महान सामाजिक कार्य था?

तटबंध काटने के बारे में भूतपूर्व विधायक राम स्वार्थ राय बताते हैं, ‘‘...एक समय ऐसा भी था जब मैं और रघुनाथ झा मिलकर 1990 से लेकर 2004 तक हर साल ‘बांध हटाओ आन्दोलन’ करते थे और बीसों बार सरकार को लिखित अल्टिमेटम दिया कि या तो यथासंभव स्थानों पर तटबंधों में स्लुइस बना कर यहाँ की जल-निकासी की व्यवस्था को दुरुस्त करें अन्यथा तटबंध को हटा दें। कभी-कभी 200-400 लोगों को साथ लेकर बांध काटने के लिए निकल पड़ते थे। अन्दरूनी सच यह था कि न तो हम इस बात के लिए गंभीर थे कि तटबंधों को काट दें और न सरकार का ही कोई ऐसा संकल्प था कि वह तटबंध को ऊँचा या मजबूत करे। यह सब एक दुतरफा राजनैतिक ड्रामा था जो चलता रहता था। विधान सभा में जरूर एक बार 2001 में कार्यवाही रिपोर्ट में आया होगा कि बांध काटने के प्रति हमारे जैसे लोग गंभीर थे। बागमती का पानी बहुत उपजाऊ होता है, साल में एक फसल इस इलाके में बागमती के पानी से जरूर लेनी चाहिये। इससे जमीन की उर्वराशक्ति बनी रहेगी। वैसे भी तटबंध टूटने की जो अधिकांश घटनाएं बतायी जाती हैं उनमें टूटना कम और स्थानीय लोगों द्वारा काटे जाने की घटनाएं ज्यादा होती हैं। मैंने बताया कि लगभग पूरी लम्बाई में तटबंध के किनारे कन्ट्रीसाइड नीचे है। तटबंध से रिसाव होता है तो बाहर वाले की फसल डूबने लगती है। वह तटबंध काट कर समस्या का समाधान कर लेता है। यहाँ से उत्तर में सुरगाहीं है। गाँव का नक्शा अगर आप देखेंगे तो उसमें आपको आधा बांध कुशहर में और आधा सुरगाहीं में दिखाई पड़ेगा। 2000 के पहले स्थानीय लोगों की मांग थी कि इस बांध को पूरा काट दिया जाए। सुरगाहीं, दस्तारा, कुशहर, बेलाही, सलेमपुर आदि गाँव के किसानों ने मिलकर हम से कहा कि अब हमें यह बांध नहीं चाहिये, इसे किसी तरह कटवाइये या फिर इसका कोई उपाय कीजिये। उपाय के क्रम में सबसे पहले सलेमपुर से एक ड्रेन काट कर बागमती की पुरानी धारा तक ले जाया गया। इससे लगभग आधा जल-जमाव तो समाप्त हो गया मगर आधा फिर भी बचा रह गया। 2000 के अन्त में इन गाँव वालों ने कुशहर हाई स्कूल में एक मीटिंग की और तय किया कि बांध को काट दिया जाए। यह प्रस्ताव लेकर यह लोग मेरे पास आये और कहा कि बांध तो हम लोग काट ही देंगे, आप हमें सिर्फ मामला-मुकद्दमा से बचा लीजिये। मैंने उनसे कहा कि आप लोगों को बांध काटने की जरूरत नहीं पड़ेगी, कुछ इंतजाम करते हैं। नवीन कुमार वर्मा यहाँ के कलक्टर थे और उनके जिम्में बांध की रक्षा के लिए फोर्स था। हमने उनसे कहा कि आपका बांध तो बचेगा नहीं, कमजोर है। आप बिना बात उसकी रक्षा के लिए प्रशासनिक खर्च बढ़ायेंगे। आप खाली प्रचार करवा दीजिये कि बांध टूटने वाला है, लोग सुरक्षित स्थानों पर चले जायें। उन्होंने मेरे साथ जाकर बांध का निरीक्षण किया और उनको भी लगा कि बांध बचेगा नहीं। सौभाग्य से वह बांध बिना काटे ही 2001 में ध्वस्त हो गया।

2001 में यह काम हो गया तब जहाँ तटबंध टूट गया वहाँ तो जमीन पर बालू पड़ गया पर वहाँ से दूर बेलहियाँ आदि तक गाद की मोटी परत जमी। उन लोगों को बड़ा फायदा हुआ। बाद में हमने कुशहर के पास 2003 में एक स्लुइस गेट लगाने की व्यवस्था कर दी, अब वहाँ की हालत थोड़ी सुधर रही है। इसके बाद बांध पूरब में चन्दौली और बेलसंड के पश्चिम मधकौल में टूटा। मात्र एक-दो किलोमीटर के बीच तटबंध दो जगह टूटा, यह बड़ी अजीब बात हुई थी। मधकौल में तटबंध के टूटने से तरियानी से लेकर मीनापुर तक जलमग्न हो गया। चन्दौली टूटने से भी पूरे इलाके में सिल्टेशन हुआ था जबकि बेलहियाँ में केवल माटी थी। इसके अलावा यह तटबंध धरमपुर (1999) तथा सौली (2000) में अपने आप टूट चुका है। देकुली से नीचे मौहारी और मौला नगर में भी कन्ट्रीसाइड में जल-जमाव है। वहाँ अगर तटबंध खुद-ब-खुद नहीं टूटा तो लोग भविष्य में जरूर काटेंगे।’’

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Post By: tridmin
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