अपनी बुलेटप्रू्फ कार का शीशा तो खोलिए


अब कार कम्पनियाँ कह रही हैं कि उनको प्रदूषण फैलाने के लिये और अवसर दिया जाए! वे स्वच्छ तकनीक अपनाने के लिये 8-10 साल का समय और मांग रही हैं। उधर यूरोप आज ऐसी तकनीक का प्रयोग कर ही रहा है। कम्पनियों को यह समझना होगा कि अब हमारे पास बिलकुल वक्त नहीं है।

दिल्ली का जानलेवा वायु प्रदूषण राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है। हम अब तक इस समस्या से निपटने में बुरी तरह विफल रहे हैं और ऐसे उपाय तलाश कर रहे हैं जो इस समस्या की गम्भीरता के सामने कुछ नहीं हैं। अब यह समझने का वक्त आ गया है कि हमने क्या कुछ किया है और भविष्य में क्या कदम उठाए जाने चाहिए।

करीब 16 साल पहले सेन्टर फाॅर साइंस एण्ड एनवॉयरनमेंट (सीएसई) ने एक विज्ञापन जारी किया था। उसमें लिखा थाः अपनी बुलेटप्रूफ कार का शीशा खोलिए प्रधानमन्त्री महोदय। आपकी सुरक्षा को खतरा बंदूक से नहीं बल्कि दिल्ली की हवा से है। यह वह समय था जब दिल्ली की हवा काले धुएँ से भरपूर थी, ईंधन में कार्बन उत्सर्जन के मानक थे ही नहीं और वहाँ वाहनों की संख्या बढ़ने की शुरुआत हो ही रही थी। सीएसई ने इससे निपटने का तरीका भी सबके सामने रखा था। इसमें उत्सर्जन मानक तय करने, डीजल वाहनों को सीमितकरने और स्वच्छ ऊर्जा यानी सीएनजी की ओर मुड़ने जैसे उपाय शामिल थे।

बहरहाल, वर्ष 2007 के बाद से हर वर्ष प्रदूषण का स्तर बढ़ता गया है और अब तो खतरनाक हो चुका है। इस जाड़े में वाहनों से निकलने वाले पीएम 2.5 जैसे छोटे कण हमारे फेफड़ों में और गहरे पहुँचकर हमारे रक्त में खतरनाक स्तर तक प्रवेश कर सकते हैं। वास्तव में नवम्बर, दिसम्बर और जनवरी महीने में हवा को 65 दिन तक अत्यन्त प्रदूषित माना गया है। सरकार के खुद के सूचकांक के मुताबिक प्रदूषण इतना बढ़ चुका है कि अब वह किसी स्वस्थ व्यक्ति के श्वसन तंत्र को भी प्रभावित कर सकता है। बीमारों पर तो क्या बीतती है, उसकी चर्चा बाद में। हमें समझना होगा कि दिल्ली की हवा अब साँस लेने लायक नहीं रह गई है।

दिल्ली में प्रदूषण की मात्रा अचानक इतनी ज्यादा कैसे बढ़ गई? तथ्य यह है कि पिछले दशक में जब से सीएनजी का प्रयोग शुरू हुआ है, हालात में कुछ सुधार हुआ था लेकिन इस बीच अकेले दिल्ली में निजी वाहनों की संख्या में 100 फीसदी का इजाफा हुआ है। ऐसे में भले ही बेहतर मानकों की बदौलत कारों के ईंधन स्तर में सुधार हुआ हो, लेकिन उनकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। यानी कुल मिलाकर नतीजा सिफर ही रहा है।

दूसरी बात, वर्ष 2000 में डीजल कारें कुल बिकने वाली कारों का महज 4 फीसदी थी। लेकिन कुछ वर्षों बाद इनकी संख्या बढ़कर 50 फीसदी हो गई। हर डीजल कार को पहले ही पेट्रोल कार के मुकाबले 4 से 7 गुना तक प्रदूषण फैलाने की इजाजत मिली हुई है! तीसरा सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2004 में बाईपास रोड बनाने का आदेश दिया था। ऐसे बहुत से वाहन हैं जो हर रोज दिल्ली शहर के बीच में से गुजरते हैं और आगे जाते हैं। इसलिए अदालत ने कहा था कि एक ऐसी सड़क बनाओ जो शहर के बाहर से ही इन्हें ले जाए। लेकिन वह अब तक नहीं बन सकी है। तो करीब 50,000 प्रदूषक ट्रक हर रोज शहर की हवा में जहर घोलते हुए गुजरते हैं।

वाहनों से इतर बात की जाए तो प्रदूषण का एक और नया स्रोत पैदा हुआ है। इसकी शुरुआत वर्ष 2010 के आस-पास हुई थी। पंजाब और हरियाणा के किसान खेतों में खड़े डंठलों में आग लगा देते हैं। ऐसे में अक्तूबर और नवम्बर में ठंड की शुरुआत के वक्त यह धुआँ दिल्ली की पहले से प्रदूषित हवा को और अधिक प्रदूषित करता है।

सबसे पहले तो जरूरत यह है कि देश में स्वच्छ ऊर्जा और वाहन लाने के लिये बहुत ही प्रभावशाली खाका तैयार किया जाए। लेकिन यह बात उन शक्तिशाली वाहन निर्माताओं को मंजूर नहीं है। तेल कम्पनियों ने एक अप्रैल 2015 से समूचे उत्तर भारत में स्वच्छ ईंधन की आपूर्ति शुरू कर दी है लेकिन कार कम्पनियों को परिवहन मन्त्रालय से स्वच्छ ऊर्जा की आपूर्ति के मामले में अभी थोड़ी और मोहलत मिल गई है। अब कार कम्पनियाँ कह रही हैं कि उनको प्रदूषण फैलाने के लिये और अवसर दिया जाए! वे स्वच्छ तकनीक अपनाने के लिये 8-10 साल का समय और मांग रही हैं। उधर यूरोप आज ऐसी तकनीक का प्रयोग कर ही रहा है। कम्पनियों को यह समझना होगा कि अब हमारे पास बिलकुल वक्त नहीं है।

जरूरी यह भी है कि हवा की गुणवत्ता की निरंतर निगरानी हो ताकि हमें सही समय पर सावधानी बरतने की चेतावनी मिल सके। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि हमें अपनी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को और दुरुस्त करना होगा ताकि बस, मेट्रो, फुटपाथ और साईकिल की मदद से लोग सहज आ-जा सकें। हमें पार्किंग की दरों को भी इतना बढ़ाना होगा कि लोग कार निकालने से हिचकिचाएँ। इसके अलावा अवैध पार्किंग रोकने के लिये गिनी-चुनी क्रेन और ट्रैफिक पुलिस है। इससे काम नहीं चलेगा। आज से कोई 25 बरस पहले हमने वायु प्रदूषण पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उसमें इसे धीमे-धीमे की जा रही हत्या कहा था। आज की हालत एकदम वैसा ही इशारा कर रही है।

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