आपदा प्रबन्धन : आवश्यकता एवं पुनर्मूल्यांकन

राज्य का जल संसाधन विभाग आपदा पैदा करता है और आपदा प्रबन्धन विभाग इसका प्रबन्धन करता है। इन दोनों विभागों के बीच बस इतना ही तालमेल बचा है। ऐसा कोई दुर्लभ अवसर ही होगा जब इन दोनों विभागों के कर्ताधर्ता एक साथ बैठें और मिलकर कोई कार्यनीति बनाएँ। जब तक ऐसा नहीं होता, लोग बाढ़ जैसी आपदाओं की चपेट में आते रहेंगे और आपदा प्रबन्धन के नाम पर पीड़ित जनता को अनुग्रह राशि बाँटे जाने की जरूरत पड़ती रहेगी।जल, सिंचाई और बाढ़ सम्बन्धी मुद्दों पर काम करने वाले अनेक विभागों ने हाल ही में अपने नाम बदल लिए हैं। अब सिंचाई विभाग जल संसाधन विभाग बन गया है, बाढ़ नियन्त्रण ने बाढ़ प्रबन्धन नाम धारण कर लिया है और राहत एवं पुनर्वास विभाग ने आपदा प्रबन्धन विभाग का चोला पहन लिया है। नाम परिवर्तित देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो इन विभागों की कार्यशैली बहुत सुधर गई हो। लेकिन अगर कोई पूछे कि उनकी कार्यशैली में क्या बदलाव आया है तो इसका शायद ही कोई समुचित उत्तर मिल पाए। ये अधिकांश विभाग अब भी वही काम कर रहे हैं। बाढ़ नियन्त्रण वाले अब भी तटबन्ध बनाते हैं और आपदा प्रबन्धन विभाग उसी प्रकार राहत कार्य करता है। अगर नाम बदलने से कार्यशैली बदल जाती तो फिर और कुछ करने की क्या जरूरत पड़ती? मानव जीवन को प्रभावित करने वाली सभी चीजों के बारे में यह बात सच है लेकिन जनजीवन को मुश्किलों से सराबोर करने वाली आपदा बाढ़ के बारे में ज्यादा सच है।

आपदा को एक बड़ी एकाएक आने वाली मुसीबत के रूप में परिभाषित किया गया है। अनेक सरकारी और गैर-सरकारी संगठन इस मुसीबत का सामना करने की तैयारी करते हैं। वे इसकी मार कम करने और आपदा-पूर्व स्थिति में लाकर लोगों का कष्ट घटाने और उन्हें काम-धन्धे से लगाने की कोशिश करते हैं। इन्हीं तीनों कामों को इकट्ठा कर दें तो इसे आपदा प्रबन्धन कहा जाएगा। अनेक लोग बाढ़ को प्राकृतिक आपदा मानते हैं, लेकिन समाज का एक महत्वपूर्ण वर्ग इसे मानव सृजित आपदा कहता है क्योंकि अनेक मानवीय कार्यों के चलते यह स्थिति गम्भीर हुई है। यह बहस तेज हुई है और जारी है।

लेखक अपनी स्थिति शुरू में ही स्पष्ट कहना चाहेगा कि वह बाद वाले वर्ग का है और हाल में आई नागपुर, नासिक, भोपाल, होशंगाबाद, बाड़मेर, जयपुर, बान्दा, बंगलुरु और जालन्धर की बाढ़ को आपदा मानता है। लेकिन वह 1998, 2002, 2004, 2007 या कोसी में आई 2008 की बाढ़ को आपदा नहीं मानता। पहले से ही इन बाढ़ों के बारे में जानकारी थी और उन्हें आपदा वर्ग में नहीं रखा जा सकता क्योंकि परिभाषा के अनुसार वे इस वर्ग में नहीं आतीं। मानव सृजित कार्यों के चलते पूर्वी उत्तर प्रदेश, असम, उड़ीसा या पश्चिम बंगाल में बाढ़ की स्थिति गम्भीर हुई और ये मानव जनित आपदा वर्ग में आएँगी भले ही इन राज्यों में बाढ़ नियन्त्रण पर भारी निवेश किया गया है।

प्राकृतिक बाढ़


हम सभी जानते हैं कि मानव सभ्यताएँ नदियों के तट पर फली-फूलीं। बाढ़ों का मानव मात्र के अस्तित्व पर निश्चित और सकारात्मक प्रभाव रहा है। मैदानी इलाकों में बाढ़ आना सतह निर्माण प्रक्रिया का अभिन्न अंग रहा है। इससे कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। भूजल-स्तर की भरपाई होती है और जमीन में नमी फिर से आ जाती है। नदियों वाले मैदान में बाढ़ न आना बाढ़ आने की तुलना में अधिक हानिकर है। भारत में बाढ़ का एक निश्चित मौसम होता है और बाढ़ बहुल क्षेत्रों को इस आपदा के आने के लगभग समय के बारे में निश्चित जानकारी होती है और वे इसका सामना करने को तैयार होते हैं। लेकिन मानवीय गतिविधियों के कारण आने वाली बाढ़ की अवधि लम्बी और तीव्रता गम्भीर हो गई है। यही कारण है कि हम इसे आपदा कहने लगे हैं। मानवीय गतिविधियों में ज्यादातर तटबन्ध निर्माण के रूप में प्रभावित किया है। तटबन्ध इस उम्मीद में बनाए गए कि वे नदियों और आबादी के बीच दीवार बन जाएँगे। लेकिन पिछले कई वर्षों से यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है।

तटबन्ध-बाढ़ के प्रमुख कारण


जैसा कि पहले ही जिक्र किया गया है, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद गंगा-ब्रह्मपुत्र घाटी में नदी तटबन्ध निर्माण का एक विशाल कार्यक्रम शुरू किया गया। जब भारी मात्रा में गाद वाली किसी नदी पर तटबन्ध बनाया जाता है तो तलछट तटबन्धों में फंस जाता है जिससे नदी का जल-स्तर ऊपर उठ जाता है और परिणाम स्वरूप तटबन्धों को भी ऊँचा करना पड़ता है। तटबन्धों को उठाने और बनाए रखने की एक व्यावहारिक सीमा है। नदी का पानी तटबन्ध से रिसता है और आसपास जलभराव को जन्म देता है। खेत उस गाद के उर्वरक से वंचित रह जाते हैं जो नदी के निर्बाध प्रवाह के साथ आता। तटबन्धों के कारण सहायक नदियों का पानी नदी धारा में नहीं आ पाता। इसके लिए स्लुइस गेट बनाने पड़ते हैं। वर्षा काल में इन गेटों को नहीं खोला जा सकता अन्यथा मुख्य धारा का पानी सहायक नदियों में जाने की सम्भावना होती है। इससे उन नये इलाकों में भी बाढ़ आ सकती है जहाँ पहले कभी बाढ़ नहीं आई। एक परिणाम यह भी हो सकता है कि सहायक नदियाँ समानान्तर रूप से बहने लगें। इससे भी नये क्षेत्रों में बाढ़ आ सकती है।

मानव सभ्यताएँ नदियों के तट पर फली-फूलीं। बाढ़ों का मानव मात्र के अस्तित्व पर निश्चित और सकारात्मक प्रभाव रहा है। मैदानी इलाकों में बाढ़ आना सतह निर्माण प्रक्रिया का अभिन्न अंग रहा है। इससे कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। भूजल-स्तर की भरपाई होती है और जमीन में नमी फिर से आ जाती है।सहायक नदियों पर तटबन्ध बनाने के भी सुझाव आ सकते हैं। ऐसा करने पर मुख्य और सहायक नदी के बीच में पानी का प्रवाह अवरुद्ध होगा। इस पानी की निकासी का एकमात्र तरीका सूख कर अथवा रिस कर निकलना होगा। या फिर इसे पम्प करके किसी निकटवर्ती धारा में डाला जाएगा। अगर कोई भी तटबन्ध टूट जाता है तो दो तटबन्धों के बीच रहने वाली आबादी की जल समाधि सम्भव है। अमेरिका और चीन में किसी तटबन्ध के न टूटने की कोई गारण्टी नहीं है।

तटबन्ध बनाकर बाढ़ मुक्ति का रास्ता ढूँढना एक ऐसे पिंजड़े में फंसने जैसा होगा जिसमें से बाहर निकल पाना मुश्किल होगा। इंजीनियरों के एक वर्ग का विश्वास है कि अगर पानी को किसी तंग रास्ते से गुजरने दिया जाए (उदाहरणार्थ, तटबन्धों के बीच से) तो धारा की गति बढ़ जाती है, साथ ही तट के क्षरण और तलहटी में गाद की मात्रा बढ़ जाती है जिससे नदी का जलमार्ग बढ़ जाता है। ज्यादा जलमार्ग का मतलब है अधिक जल निकासी क्षमता। इससे बाढ़ का खतरा कम हो जाएगा। लेकिन इस बात के पक्ष में देश भर में कहीं से कोई सबूत नहीं मिले।

बाढ़ और तटबन्ध की स्थिति


1954 में भारत सरकार ने पहली बाढ़ नियन्त्रण नीति अंगीकार की। इसके बाद नदियों पर 33,928.642 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों का निर्माण शुरू किया गया। 38,809.857 किलोमीटर लम्बे नाले खोदे गए जिसमें अनावश्यक पानी निकले। इन सबका उद्देश्य 2,458 कस्बों को बाढ़ से बचाना और 4,716 गाँवों को अधिकतम दर्ज जल-स्तर से ऊपर उठाना था (जल संसाधन मन्त्रालय, भारत सरकार के मार्च 2006 तक बाढ़ प्रबन्धन कार्यक्रम की निर्माण प्रगति का राज्यवार विवरण देखें)।

जिस किसी भी इलाके में एक बार भी बाढ़ आई है, उसे बाढ़ सम्भावित क्षेत्र मान लिया गया है। इसकी रक्षा के समुचित उपाय किए गए हैं। प्रथम पंचवर्षीय योजना दस्तावेज के अनुसार देश में योजना के शुरू में बाढ़ सम्भावित क्षेत्र सिर्फ 25 मि.हे. था। 1980 में जब राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने इसका आकलन किया तो यह क्षेत्रफल बढ़कर 33.516 मि.हे. हो गया। (जल संसाधन मन्त्रालय, भारत सरकार की 2004 तक अद्यतन की गई वेबसाइट) 10वीं योजना अवधि में योजना आयोग के बाढ़ नियन्त्रण कार्य-समूह ने अनुमान लगाया कि देश में 45.64 मि.हे. क्षेत्र बाढ़ सम्भावित है। इसमें से मार्च 2004 तक 16.457 मि.हे. क्षेत्र बाढ़ रक्षित था।

देश में बाढ़ नियन्त्रण के जो भी उपाय किए गए हैं उनसे फायदा कम, नुकसान ज़्यादा हुए हैं और बाढ़ वाला इलाका बढ़ रहा है। अक्सर कहा जाता है कि हानि इसलिए बढ़ रही है कि आबादी बढ़ती जा रही है, जमीन और सम्पत्ति की कीमतें बढ़ी हैं और कुछ हद तक हानि अनुमान की तकनीक में सुधार को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है।केन्द्रीय जल आयोग का कथन है कि सरकार ने मार्च 2006 तक 18.222 मि.हे. जमीन को बाढ़ से बचाने के बन्दोबस्त किए। (जल संसाधन मन्त्रालय, वही, तालिका 5.17; केन्द्रीय जल आयोग की वेबसाइट, तालिका 5.12, भारत में बाढ़ से हानि, भारी वर्षा) इसके अनुसार 27.418 मि.हे. क्षेत्र ऐसा है जिसे बाढ़ से बचाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई। इसका निहितार्थ यह है कि अब तक जो भी बाढ़ सुरक्षा के उपाय किए गए उनके कोई परिणाम नहीं मिले। जिस क्षेत्र की सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किए गए वह उस रकबे से काफी ज्यादा है जिसकी बाढ़ सुरक्षा के उपाए किए गए हैं। स्पष्ट है कि देश में बाढ़ नियन्त्रण के जो भी उपाय किए गए हैं उनसे फायदा कम, नुकसान ज़्यादा हुए हैं और बाढ़ वाला इलाका बढ़ रहा है। अक्सर कहा जाता है कि हानि इसलिए बढ़ रही है कि आबादी बढ़ती जा रही है, जमीन और सम्पत्ति की कीमतें बढ़ी हैं और कुछ हद तक हानि अनुमान की तकनीक में सुधार को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। लेकिन कुछ भी हो, देश में बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है।

वर्तमान स्थिति के अनुसार हर साल औसतन 7.63 मि.हे. जमीन बाढ़ग्रस्त हो जाती है जिससे 32.92 लाख लोग प्रभावित होते हैं। बाढ़ के कारण प्रति वर्ष 3.56 लाख हेक्टेयर जमीन पर खड़ी 705.87 करोड़ रुपए मूल्य की फसलें बर्बाद हो जाती हैं, 12,35,000 मकान ढह जाते हैं, 94,000 मवेशी और 1,590 लोग मारे जाते हैं (जल संसाधन मन्त्रालय, केन्द्रीय जल आयोग, वही, तालिका 5.12)।

ध्यान देने की बात है कि 1954 में देश व्यापी बाढ़ के कारण देश में पहली बार बाढ़ नीति अपनाई। तत्कालीन बाढ़ सम्भावित क्षेत्र 7.490 मि.हे. से 51 वर्षों में 22 गुना बढ़ गया। ऐसा तब हुआ जब 9वीं पंचवर्षीय योजना के अन्त (2002) तक 8,113.11 करोड़ रुपए का निवेश किया जा चुका था। 10वीं और 11वीं योजनाओं के लिए निर्धारित राशि कई हजार करोड़ रुपए तक पहुँच चुकी है। इन सबके बावजूद गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे राज्य भारत के बाढ़ सम्भावित राज्य बने हुए हैं। आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु भी पीछे नहीं हैं।

कहाँ है आपदा प्रबन्धन


आपदा प्रबन्धकों को लगता है कि आपदा की तह तक पहुँच कर उसके कारणों का पता लगाना उनका काम नहीं है। इसे टेक्नोलॉजी के समुचित प्रयोग और लोगों के पारम्परिक बौद्धिक कौशल से रोका जा सकता है। उन्हें आपदा में फंसे लोगों को हर हाल में उस स्थिति से निकालना है। मानवीय आधार पर इसे बिल्कुल उचित ठहराया जा सकता है। लेकिन होना यह चाहिए कि पहले अब तक किए गए बाढ़ नियन्त्रण कार्य का मूल्याँकन किया जाए और बीते वर्षों में जो गलतियाँ हुई हैं उन्हें सुधारा जाए ताकि बाढ़ प्रबन्धन के लिए साल-दर-साल राहत एवं पुनर्वास पर अरबों रुपए न बहाने पड़ें क्योंकि होने वाले भारी नुकसान की भरपाई इससे नहीं हो सकती।

गैर-सरकारी संगठन इस बहस को आगे बढ़ा सकते हैं लेकिन उन्होंने आपदाओं में निहित स्वार्थ विकसित कर लिए हैं और वे इनका इस्तेमाल लोगों की सहायता करने के अवसर के रूप में करते हैं।

शुरू में ही स्पष्ट कर देना ठीक रहेगा कि उत्तर बिहार में बाढ़ आना एक आम बात मानी जाती है। इसे वैसे ही सामान्य माना जाता है जैसे राजस्थान में सूखा। दुर्भाग्य से बाढ़ की बहस को एक आपदा प्रबन्धन कार्यक्रम का रूप दे दिया गया है जिससे बाढ़ नियन्त्रण नीतियों के बारे में पूछे जाने वाले असुविधाजनक सवाल कभी उठाए ही नहीं जाते।

वर्तमान स्थिति के अनुसार हर साल औसतन 7.63 मि.हे. जमीन बाढ़ग्रस्त हो जाती है जिससे 32.92 लाख लोग प्रभावित होते हैं। बाढ़ के कारण प्रति वर्ष 3.56 लाख हेक्टेयर जमीन पर खड़ी 705.87 करोड़ रुपए मूल्य की फसलें बर्बाद हो जाती हैं, 12,35,000 मकान ढह जाते हैं, 94,000 मवेशी और 1,590 लोग मारे जाते हैं। (जल संसाधन मन्त्रालय, केन्द्रीय जल आयोग, वही, तालिका 5.12)आपदा प्रबन्धन का पहला सिद्धान्त है आपदा निवारण। बिहार के मौजूदा आपदा प्रबन्धक इस मुद्दे पर शायद ही कभी ध्यान देते हों। जब तक इसके कारणों को दूर करने पर जोर नहीं दिया जाएगा, तब तक नदियों को बाँधने की कोई कोशिश सफल नहीं होंगी क्योंकि इन कारणों ने ही बहु-प्रतीक्षित बाढ़ों को आपदा बना दिया है। इसका मतलब यह होगा कि नदियों के निर्बाध प्रवाह को प्रभावित करने वाले तटबन्धों या अन्य निर्माण नहीं किए जाने चाहिए और इनका निर्माण हो भी गया है तो इन्हें टूटने नहीं देना चाहिए। पारम्परिक रूप से बाढ़ के पानी को बड़े व्यापक क्षेत्र में फैलने देना चाहिए ताकि इसकी तलछट भी बड़े इलाके में फैले और धरती को उपजाऊ बनाए। इससे बाढ़ की पीड़ा भी कम हो जाएगी। मैदानों में बाढ़ रोकने से अनेक जटिलताएँ पैदा होती हैं जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है। जरूरत इस बात की है कि इस बात को महत्वपूर्ण समझा जाए कि गाद को धरती पर फैलाना है न कि पानी को।

गलत प्राथमिकताएँ


उत्तर बिहार में 2007 की बाढ़ ने अनेक पूर्व रिकॉर्ड तोड़ दिए। 1 जुलाई से 2 अगस्त तक बिहार के मैदानी इलाके में लगातार बारिश हुई। नेपाल की तराई और निचले हिमालयी क्षेत्रों में काफी समय तक इसके कारण जनजीवन ठप्प पड़ा रहा। समस्तीपुर, पश्चिम चम्पारण और खगड़िया जैसे जिलों में तीन से चार गुना ज्यादा वर्षा हुई और ये इलाके काफी लम्बे अरसे तक अन्य भागों से कटे रहे। क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना था कि उन्होंने अपने जीवन में इतनी ज्यादा वर्षा नहीं देखी थी और न ही उन्होंने इतने लम्बे अरसे तक पानी का जमाव देखा था। आश्चर्य की बात है कि इतनी अधिक वर्षा और बाढ़ के बावजूद उत्तर बिहार की किसी नदी का जल-स्तर सर्वोच्च स्तर तक नहीं पहुँचा। लेकिन बागमती के तटबन्ध में 7, कमला-बलान के तटबन्धों में 14, बूढ़ी गण्डक में 5, मसान तटबन्धों में 3 तथा भुतही बलान, खिरोई ओर कोसी (बदला- नगरपाड़ा) में एक-एक तटबन्ध टूटा। (आपदा प्रबन्धन विभाग, बिहार सरकार, अभूतपूर्व बाढ़ 2007, इण्टरनेट से लिया गया अद्यतन किया रिकॉर्ड)।

बिहार का कोई भी सामान्य व्यक्ति बता सकता है कि टूटने के बाद धारा से नीचे के तटबन्ध की कोई उपयोगिता नहीं रह पाती। अगर इन नदियों का अधिकतम स्तर सर्वाधिक जल-स्तर से कम है तो उम्मीद की जा सकती है कि इनमें बाढ़ आने से नुकसान भी कम हुआ होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस विरोधाभास का जो जवाब सोचा जा सकता है वह है तटबन्धों, नहरों, सड़कों, रेल लाइनों आदि का अधिकतम स्थानों पर टूटना। इसके कारण बाढ़ की विभीषिका कम हो गई। लेकिन इस कारण जलभराव की अवधि बढ़ गई और बाढ़ से परेशान लगभग 2.5 करोड़ लोग अपने मकानों को ढहते और फसलों को सड़ते देखते रहे।

इस समस्या का समाधान यह है कि जल निकासी की समुचित व्यवस्था की जाए। ऐसा करने के बजाय सरकार ने बागमती और महानन्दा के तटबन्ध के मरम्मत की घोषणा की। इस पर 792 करोड़ रुपए और 850 करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान लगाया गया। स्पष्ट था कि तटबन्धों के टूटने को महत्व नहीं दिया गया। राष्ट्रीय और राज्य के राजमार्ग 54 स्थानों पर टूटे। सड़कों की हालत खस्ता हो गई। 829 जगहों पर राजमार्ग टूटे। 1,353 पुलों और पुलियों को नुकसान पहुँचा और इनकी मरम्मत की गई। सड़क टूटने का मतलब यह कि बाढ़ का पानी निकास की तलाश कर रहा है। अगर सरकार बाढ़ के इस पक्ष की अनदेखी करती रही तो ऐसे नुकसान होते रहेंगे।

वो राहत कहाँ है जिसका है इन्तजार


शायद बिहार के इतिहास में यह पहला मौका था जब सरकार ने अच्छा काम किया और बाढ़ पीड़ितों को राहत पहुँचाई। विस्थापितों को अनाज दिया गया और हर पीड़ित परिवार को 2,250 रुपए की सहायता दी गई। लेकिन आपदा राहत कोष और नेशनल केलामिटी कण्टिजेंसी फण्ड के प्रावधानों को ध्यान में नहीं रखा गया। बिहार सरकार जहाँ केन्द्र पर भेदभाव का आरोप लगाती रही वहीं केन्द्र सरकार राज्य सरकार के काम ठीक न करने की आलोचना करती रही।

अब स्थिति यह है कि राज्य का जल संसाधन विभाग आपदा पैदा करता है और आपदा प्रबन्धन विभाग इसका प्रबन्धन करता है। इन दोनों विभागों के बीच बस इतना ही तालमेल बचा है। ऐसा कोई दुर्लभ अवसर ही होगा जब इन दोनों विभागों के कर्ताधर्ता एक साथ बैठें और मिलकर कोई कार्यनीति बनाएँ। जब तक ऐसा नहीं होता, लोग बाढ़ जैसी आपदाओं की चपेट में आते रहेंगे और आपदा प्रबन्धन के नाम पर पीड़ित जनता को अनुग्रह राशि बाँटे जाने की जरूरत पड़ती रहेगी।

(लेखक बिहार बाढ़ मुक्ति आन्दोलन, पटना के संयोजक हैं)
ई-मेलः dkmisra108@ gmail.com

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