इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष
13 अक्टूबर अन्तरराष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा न्यूनीकरण दिवस है। जब पोर्टल के श्री रमेश ने मुझसे इस मौके पर बाढ़ को विषय बनाकर लेख लिखने का अनुरोध किया, तो सबसे पहला ख्याल यह आया कि क्या वाकई बाढ़, एक आपदा है?
क्या वाकई बाढ़, एक आपदा है?
जवाब आया कि बाढ़, प्राकृतिक होती है और कृत्रिम कारणों से भी, किन्तु यह सदैव आपदा ही हो, यह कहना ठीक नहीं। आपदा के आने का पता नहीं होता; कई नदियों में तो हर वर्ष बाढ़ आती है। पता होता है कि एक महीने के आगे-पीछे बाढ़ आएगी ही; तो फिर यह आपदा कहाँ हुई?
भारत में आज कितने ही इलाके ऐसे हैं, जहाँ बारिश में बाढ़ आती है और बारिश गुजर जाने के मात्र तीन महीने बाद ही नदियाँ सूख जाती हैं और भूजल खुद में एक सवाल बनकर सामने खड़ा हो जाता है। इसे आपदा क्यों कहें? क्या ऐसी बाढ़ को आपदा कहने की बजाय, पानी का कुप्रबन्धन नहीं कहना चाहिए? फिर ख्याल आया कि भाई, बाढ़ भी तो जरूरी है।
प्राकृतिक बाढ़ अपने साथ लाती है उपजाऊ मिट्टी, मछलियाँ और सोना फसल का। बाढ़ ही नदी और उसके बाढ़ क्षेत्र के जल व मिट्टी का शोधन करती है। बाढ़ के कारण ही आज गंगा का उपजाऊ मैदान है। बंगाल का माछ-भात है। तभी तो कितने इलाके इन्तजार करते हैं कि बाढ़ आये, समृद्धि लाये। मेरे जैसे सोचते हैं कि बाढ़ आये और दिल्ली की यमुना की गन्दगी को अपने साथ बहा ले जाये।
कैसे घटे वेग और टिकने के दिन?
जाहिर है कि यदि आपदा का न्यूनीकरण करना है, तो बाढ़ नहीं, उसके जरूरत से ज्यादा वेग और टिकने के दिनों के कारणों में घटोत्तरी करनी होगी। बाढ़ के दुष्प्रभावों को कम करने के लिये पूर्व तैयारियाँ क्या हों? बाढ़ से तत्काल राहत की योजना जरूरी है, किन्तु बाढ़ वेग निवारण की दीर्घकालिक योजना इससे भी ज्यादा जरूरी है। विचार के विषय ये होने चाहिए।
कृत्रिम कारणों ने बढ़ाया दुष्प्रभाव
स्पष्ट है कि बाढ़ नुकसान नहीं करती है; नुकसान करती है बाढ़ की तीव्रता और टिकाऊपन। नदी मध्य निर्मित बाँध इस नुकसान को रोकते नहीं, बल्कि और बढ़ाते ही हैं। नदी प्रवाह मार्ग में बनने वाले कृत्रिम जलाशय, गाद बढ़ाते हैं। बढ़ती गाद नदी का मार्ग बदलकर, नदी को विवश करती है कि वह हर बार नए क्षेत्र को अपना शिकार चुनेे।
नया इलाका होने के कारण जलनिकासी में वक्त लगता है। बाढ़ टिकाऊ हो जाती है। पहले तीन दिन टिकने वाली बाढ़ अब पूरे पखवाड़े कहर बरपाती है। नदी को बाँधने की कोशिश बाढ़ की तीव्रता बढ़ाने की दोषी हैं। तीव्रता से कटाव व विनाश की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। पूरा उत्तर बिहार इसका उदाहरण है।
कोसी की बाढ़ गवाह है कि बाढ़ की समस्या का समाधान नदियों को तटबन्धों में बाँधने में नहीं, बल्कि मुक्त करने में ही है। नदी को नहर या नाले का स्वरूप देने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। ‘रिवर फ्रंट डेवलपमेंट’ के नाम पर कुछ दीवारें और चमकदार इमारतें खड़ी कर लेना खुद को धोखा देना है।
हालांकि ये बातें देश के अनपढ भी जानते हैं, लेकिन उनकी मानने वालों की संख्या कम होती जा रही है। विकास की असल पढ़ाई के रास्ते में सर्वाधिक तोड़क तथ्य यही है।
पहाड़ी बाढ़ को सांस्कृतिक आड़
गलती यह हुई कि नव सभ्यता का निर्माण करते वक्त हमने संस्कृति के पुराने सन्देशों की अनदेखी की। इसी कारण हमने सघन हिमालय पर्वतमाला पर सघन व विशाल वनराशि के रूप में फैली शिवजटा को खोलने में संकोच नहीं किया। वनराशि पानी को बाँधकर रखती है। यह बात हमने याद रखना जरूरी नहीं समझा।
बाढ़ नुकसान कम करे; इसके लिये परम्परागत बाढ़ क्षेत्रों व हिमालय जैसे संवेदनशील होते नए इलाकों में समय से पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र विकसित करना जरूरी है। बाढ़ के परम्परागत क्षेत्रों में लोग जानते हैं कि बाढ़ कब आएगी। वहाँ जरूरत बाढ़ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के लिये एहतियाती कदमों की हैं: पेयजल हेतु सुनिश्चित हैण्डपम्पों को ऊँचा करना। जहाँ अत्यन्त आवश्यक हो, पाइपलाइनों से साफ पानी की आपूर्ति करना।हमने उत्तराखण्ड के जंगल निःसंकोच काटे। यह नहीं कि जहाँ बाझ, बुरांस, अखरोट जैसे चौड़े पत्ते वाले पेड़ चाहिए, उस उत्तराखण्ड में पानी सोखने व एसिड छोड़ने वाले चीड़ के जंगल लगा दिये। पत्थरों के चुगान और रेत के खदान से मुनाफा भी निःसंकोच कमाया।
देवभूमि में इंसानी गतिविधियाँ भी बेरोकटोक ही चलाई। मुझे यह लिखते हुए गर्व होता है कि मेरे जैसे अध्ययनकर्ता को भी अंगूठा छाप लोगों ने ही सिखाया है कि बाढ़ और सुखाड़ के कारण कमोबेश एक जैसे ही होते हैं। उपाय भी एक जैसे ही हैं। उन्हे अपनाएँ।
जलनिकासी का परम्परागत मार्गों को उत्तराखण्ड में गाड-गदेरे के नाम से जाना जाता है। चाल-खाल जलसंचयन के परम्परागत ढाँचों के नाम हैं। बाढ़ का विनाश कम करने के लिये, उत्तराखण्डवासी ऊपर पहाड़ियों में परम्परागत चाल-खाल बनाते रहे हैं। इन्हीं ढाँचों में रुककर पानी, नीचे नदी में बाढ़ नहीं आने देता था।
यह तर्क, मैदानी नदियों पर भी इतना ही लागू होता है। ताल, पाल, झाल, जाबो, कूलम, आपतानी, आहर पाइन... जाने कितने ही नाम व स्वरूप के साथ देश के हर इलाके में ऐसे परम्परागत ढाँचे मौजूद हैं।
कुछ जरूरी काम
नदियों में आने से पहले और बाद में बारिश के पानी को अपने अन्दर रोककर रखने वाली ऐसी जलसंरचनाओं को कब्जामुक्त कर पुनः जीवित करना होगा। जलनिकासी के परम्परागत मार्ग में खड़े अवरोधों को हटाना होगा। स्थानीय भू-सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करते हुए बड़े पेड़े व ज़मीन को पकड़कर रखने वाली छोटी वनस्पतियों के सघनता बढ़ाने की योजना बनानी होगी।
खनन की नियंत्रित करना होगा और इसके लिये अपने दैनिक जीवन में उपभोग को। विपरीत काम को रोकने और अनुकूल काम को बढ़ाने के लिये जन-जुड़ाव जरूरी है। इससे उत्तराखण्ड में मिट्टी के क्षरण की सीमा लाँघ चुकी रफ्तार भी कम होगी और विनाश भी कम होगा। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के उपाय पहाड़ में भी यही हैं और मैदान में भी।
तात्कालिक राहत हेतु जरूरी पूर्व तैयारी
बाढ़ नुकसान कम करे; इसके लिये परम्परागत बाढ़ क्षेत्रों व हिमालय जैसे संवेदनशील होते नए इलाकों में समय से पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र विकसित करना जरूरी है। बाढ़ के परम्परागत क्षेत्रों में लोग जानते हैं कि बाढ़ कब आएगी। वहाँ जरूरत बाढ़ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के लिये एहतियाती कदमों की हैं: पेयजल हेतु सुनिश्चित हैण्डपम्पों को ऊँचा करना। जहाँ अत्यन्त आवश्यक हो, पाइपलाइनों से साफ पानी की आपूर्ति करना।
मकानों के निर्माण में आपदा निवारण मानकों की पालना। इसके लिये सरकार द्वारा जरूरतमन्दों को जरूरी आर्थिक व तकनीकी मदद। मोबाइल बैंक, स्कूल, चिकित्सा सुविधा व अनुकूल खानपान सामग्री सुविधा। ऊँचा स्थान देखकर वहाँ हर साल के लिये अस्थाई रिहायशी व प्रशासनिक कैम्प सुविधा। मवेशियों के लिये चारे-पानी का इन्तजाम। ऊँचे स्थानों पर चारागाह क्षेत्रों का विकास। देसी दवाइयों का ज्ञान।
कैसी आपदा आने पर क्या करें? इसके लिये सम्भावित सभी इलाकों में निःशुल्क प्रशिक्षण देकर आपदा प्रबन्धकों और स्वयंसेवकों की कुशल टीमें बनाईं जाएँ व संसाधन दिये जाएँ। परम्परागत बाढ़ क्षेत्रों में बाढ़ अनुकूल फसलों का ज्ञान व उपजाने में सहयोग देना। बादल फटने की घटना वाले सम्भावित इलाकों में जलसंरचना ढाँचों को पूरी तरह पुख्ता बनाना। केदारनाथ धाम का गाँधी सरोवर यदि पुख्ता हदबन्दी हुई होती, तो विनाश इतना अधिक नहीं होता।
मूल सुधरे, तो विनाश थमे
कहना न होगा कि लोगों को जोड़े और समस्या के मूल कारणों को समझे बगैर बाढ़ और सुखाड़ से नहीं निपटा जा सकता। समस्या के मूल पर सुधार करना होगा। बिजली बनाने के लिये पवन, सौर और भू-तापीय ऊर्जा बेहतर व स्वच्छ विकल्प हैं। इनसे कोई विस्थापन या विनाश नहीं होता। नदियों को धरती के ऊपर से नहीं, बल्कि धरती के भीतर से जोड़ने की जरूरत है।
वर्षाजल संचयन के छोटी-छोटी संरचनाएँ ही नदी जोड़ का सही विकल्प हैं। नदियों में जल की मात्रा और गुणवत्ता.. दोनों को संयमित करने के लिये लौटना फिर छोटी संरचनाओं और वनस्पतियों की ओर ही होगा। इन्हें जानने के लिये किसी आयोग सा उच्च स्तरीय समूह की जरूरत नहीं है।
हाँ! इन्हें लागू करने के लिये जरूरत समर्पित एक समूह नहीं, कई हजार समूहों की जरूरत इस देश को है। यदि मनरेगा के तहत हो रहे पानी व बागवानी के काम को ही पूरी ईमानदारी व सूझ-बूझ से किया जाये, तो न ही बाढ़ बहुत विनाशकारी साबित होगी और न ही सूखे से लोगों के हलक सूखेंगेे; तब न नदी जोड़ की जरूरत बचेगी, न भूगोल उजड़ेगा और देश भी कर्जदार होने से बच जाएगा। उद्योगों को भी पानी होगा और नदियाँ भी बर्बाद होने से बच जाएँगी।.. तब बाढ़ विनाश नहीं, विकास का पर्याय बन जाएगी। यह सम्भव है; बशर्ते नींव, नीति और नीयत तीनों ईमानदार हो।
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Post By: RuralWater