मखाना (Euryale Ferox) वाटर लिली परिवार का जलीय फल है, जिसके बीज पोषक खाद्य की भांति उपयोग में लाये जाते हैं। यह अपने देश में मिथिलांचल की अपनी विशिष्ट उपज है। हालाँकि कुछ परिमाण में मखाना विश्व के अत्यधिक उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंध के दक्षिण पूर्व तथा पूर्व एशिया के विभिन्न क्षेत्रों में भी पैदा होता है। मखाना चीन, नेपाल, बांग्लादेश, कोरिया, जापान, रूस, उत्तरी अमेरिका के जलाशयों में बहुलता से पाया जाता है। भारत में उत्तरी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा नेपाल सीमा के तराई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। इसके अलावा पश्चिम बंगाल, मणिपुर, राजस्थान, मध्य प्रदेश, त्रिपुरा, आसाम तथा बांग्लादेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी आंशिक रूप से उगाया जाता है। वैज्ञानिक प्रसंस्करण के माध्यम से इसका गुण-संवर्द्धन कर मखाना उत्पादों का विश्वव्यापी बाजार तैयार किया जा सकता है।
मखाने का महत्त्व एवं गुणवत्ता
मखाने का पौष्टिक आहार के रूप में प्रयोग होता है। इसकी गुणवत्ता की वजह से इसके निर्यात की प्रबल संभावनाएं हैं। इस प्रकार मखाना के उत्पादन से जुड़े किसानों की आमदनी बढ़ेगी और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी तथा इसके निर्यात से देश के विदेशी मुद्रा भण्डार में भी बढ़ोत्तरी होगी।
मखाने के कच्चे लावा में 9.7 प्रतिशत प्रोटीन, 76.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.1 प्रतिशत वसा, 1.3 प्रतिशत खनिज (कैल्शियम 20 मिलीग्राम, फॉस्फोरस 90 मिलीग्राम, आयरन 1400 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम) एवं 12.8 प्रतिशत नमी की उपस्थिति होती है। भुने हुए मखाने के लावे में प्रोटीन 9.5 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट्स, 84.9 प्रतिशत वसा, 0.5 प्रतिशत नमी, 4 प्रतिशत एवं क्रूड फाइबर 0.6 प्रतिशत पाया जाता है। प्रति 100 ग्राम मखाने के लावा के सेवन से 382 किलो कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त मखाने के लावा की सफाई के दौरान मखाना-ब्रान एक तरह का उप-उत्पाद निकलता है, जिसके विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि इसमें भी पौष्टिकता काफी अच्छी है। इसका प्रयोग मछली, मुर्गी तथा मवेशियों के भोजन के रूप में किया जा सकता है।
मखाने के रासायनिक विश्लेषण से इसमें विद्यमान एमिनो एसिडों की संरचना से ज्ञात होता है कि इसमें मुख्यरूप से आरजीनिन और ग्लुटॉमिक एसिड पाया जाता है। इसके अतिरिक्त लाइसिन, हिस्टीजीन, आस्पाटिर्क एसिड, थियोनाइन, सेरीन, प्रोलीन, ग्लाइसिन, सिस्टाइन, ल्यूसीन, फिनाइलएलानिन इत्यादि पाए जाते हैं।
मखाने के उपयोग
मखाने के बीज के अन्दर उपस्थित सफेद परिभ्रूण ही खाने योग्य भाग होता है, जिसका लावा के रूप में सेवन होता है। मखाने से विभिन्न प्रकार के व्यंजन तैयार किये जाते हैं। घी में भुना हुआ मखाना-फ्राई, मखाने की सब्जी, मखाने की खीर, मखाने का हलवा इत्यादि बनाया जाता है। वर्तमान में मखाना व्यावसायिक तौर पर सील बंद पैकेटों में ‘मखाना स्नेक्स’, मखाना खीर मिक्स, मखाना सेवई खीर एवं मखाना फ्लैक्स के रूप में बाजारों में मखाना काफी प्रचलित हो रहा है।
मखाने में औषधीय गुण भी विद्यमान हैं। मखाने का सेवन बेरी-बेरी से बचने, डिसेन्ट्री की रोकथाम तथा स्वास्थ्यवर्द्धक के रूप में भी किया जाता है। इसके साथ-साथ इसके बीज के अर्क से कान के दर्द, पत्ते की भस्म का किण्वित चावल के साथ प्रयोग करने से महिलाओं की प्रसव बाधा तथा इसके फलों के प्रयोग से वीर्य क्षय जैसे बीमारियों का इलाज करने में उपयोग किया जाता है। औषधीय गुणों में एस्टिजेन्ट एवं मूत्रावर्धन के लिये मखाना अधिक लोकप्रिय है। इसके अतिरिक्त मखाना स्टार्च का प्रयोग कपड़ों को चमक-दमक प्रदान करने के लिये भी किया जाता है।
मखाने का उत्पादन
मखाने की खेती स्थिर जलवाले क्षेत्रों में की जाती है, जिसकी औसतन गहराई 1 से 1.5 मीटर तथा तलहटी पर ‘ह्यूमस’ का अच्छा जमाव होना उपयुक्त माना गया है। अधिक गहराई वाले तालाब एवं प्रवाहित जल में मखानों की खेती अनुपयुक्त होती है। मखाने का बेहतर उत्पादन प्राप्त करने के लिये काली दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त होती है। मखाना अनुसंधान केन्द्र, दरभंगा के कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो पारंपरिक मखाना तालाब में प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की मात्रा 408-684 किलोग्राम, फास्फोरस की मात्रा 28.6-48.4 किलोग्राम तथा पोटाश की मात्रा 154-366 किलोग्राम पाई जाती है। तालाब का पानी और मिट्टी अम्लीय होने पर चूने का प्रयोग कर उसमें सुधार लाने से तालाब मखाने की खेती हेतु अनुकूल हो जाता है। सामान्यतः मखाने की खेती हेतु तालाबों में साल भर पानी रहना चाहिए तथा पानी का पी.एच.मान 7.1-8.2, पारदर्शिता 40 से 50 सेंटीमीटर तथा पानी का तापमान 18-25 डिग्री सेल्सियस उपयुक्त माना जाता है। पारम्परिक रूप से मखाना की खेती जलाशयों में ही की जाती है, जहाँ वर्ष भर पानी जमा रहता है। किन्तु वर्तमान में निचले भू-भाग में या वेटलैण्ड में, जिसकी गहराई मात्र डेढ़ से दो फीट हो, जैसे बिहार के कटिहार, पूर्णियाँ, मधेपुरा, सहरसा जिलों में मखाना उत्पादन किया जा रहा है। ऐसे कम गहरे क्षेत्रों में मखाने की खेती के बाद किसान धान, गेहूँ जैसे अन्य फसलों की खेती करके भी आर्थिक लाभ कमाते हैं। इसका प्रचलन पारंपरिक मखाना क्षेत्रों में भी प्रारम्भ किया जा रहा है। इस प्रयोग से यह ज्ञात हुआ है कि मखाने की खेती में प्रति हेक्टेयर किसानों को अधिक उपज मिल रही है।
तकनीकी विकास
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के द्वारा दरभंगा (बिहार) में मखाना अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की गई है, जिसमें मखाना उत्पादकता के स्थायीत्वकरण, यांत्रिकरण, लावा बनाने की प्रक्रिया का यांत्रिकरण, उचित भंडारण, मखाना आधारित उद्योगों की स्थापना, मछुआरों और उत्पादन से जुड़े किसानों का सशक्तिकरण सह प्रशिक्षण, उन्नत किस्म के बीजों का विकास, गुणवत्ता में संवर्द्धन तथा विपणन एवं निर्यात में वृद्धि पर जोर दिया जा रहा है।
सम्पर्क
श्री रवि रौशन कुमार
सचिव, कल्पना चावला विज्ञान क्लब, C/o- मोबिल कॉर्नर, मिर्जापुर, स्टेशन रोड, जिला-दरभंगा, (बिहार) 846004; मोबाईलः-09708689580, ईमेल- info.raviraushan@gmail.com
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