अनिश्चित भविष्य लिए हुए भरथुआ

रिंग बांध की बात इसलिए उठी कि हम लोगों का घर नहीं उजड़ेगा, जहाँ है वहीं रहेंगे। अगर ऐसा नहीं किया गया होता तो आज हम भी उसी हालत में होते जो हालत रिंग बांध के बाहर वालों की है। उनके पुनर्वास का कुछ अता-पता नहीं है अभी तक। हमने सरकार से रिंग बांध बनवा लिया है। अब हम भी मस्त हैं और सरकार भी मुक्त है। हमें दूसरे किसी रिंग बांध या उससे होने वाली किसी भी परेशानी के बारे में जानकारी नहीं है।

बेनीपुर के बगल का गाँव है भरथुआ और यह भी बागमती के नये तटबंधों के बीच फंसा हुआ एक गाँव है। यह एक बहुत ही प्राचीन गाँव हैं। कहते हैं कि राजा भतृहरि को जब वैराग्य हो गया तब वह यहीं के जंगलों में आकर रहने लगे थे और वैराग्यशतकम् की रचना उन्होंने यहीं रहते हुए की थी। यहीं पास में पंचभिखा (पंचभिण्डा) नाम का एक डीह है। कहते हैं कि भतृहरि ने यहीं डेरा-डण्डा डाला, तपस्या की और वैराग्यशतकम् लिखा। अगर यह सच है तो इस गाँव का नाम पहले कभी भतृहरि आश्रम या भतृहरि ग्राम रहा होगा जो कि अपभ्रंश होते-होते भरथुआ हो गया। यहाँ के बाशिन्दे बताते हैं कि यह इलाका पहले जंगल था और दरभंगा महाराजा की रियासत का हिस्सा था। सन् 1672 में औरंगजेब के जमाने में जब चोटी (टिकी) पर कर लगा तो उनके पूर्वज बाबा शिवनाथ नगरकोट, कांगड़ा से यहाँ चले आये। सामने डीह पर एक बहुत बड़ा कुँआ था। वहीं उन्होंने एक सियार को देखा एक कुत्ते को खदेड़ते हुए, तब उनको लगा कि यह जरूर कोई संस्कारी जगह है सो यहीं रह गए। यहीं कटौंझा के पास शंकरपुर का गढ़ है जहाँ भुअरबार नाम का एक डकैत रहता था, वह राजा को टैक्स नहीं देता था। बाबा शिवनाथ कुछ जमीन की आशा से राजा के पास गए तो राजा ने जो दान-पत्र लिखा उसमें कहा कि पहले भुअरबार से मिल लीजिये। राजा को शायद अनुमान था कि वह डाकू उन्हें यहाँ रहने नहीं देगा। मगर बाबा का शरीर भी पर्वताकार था। बाबा ने इस जगह पर कब्जा कर लिया। बाबा तो अकेले आये थे। यहाँ परसौनी राज में मीनापुर थाने में एक भटौलिया गाँव है जहाँ ब्रह्मभट्ट लोग रहते थे और परसौनी के राजा ने ही बाबा का विवाह उस गांव में करवाया। उनके आठ लड़के हुए। उन्हीं आठों के वंशज अब यहाँ रहते हैं। बगल में एक नमोनारायण का मन्दिर है, जिसे गाँव के एक मौनी बाबा ने बनवा दिया था।

1934 के बिहार भूकम्प के समय पूरे मुजफ्फरपुर जिले में जबर्दस्त तबाही हुई थी। भूकम्प के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (जो बाद में भारत के पहले राष्ट्रपति बने) पास के बेदौल गाँव में कैम्प कर के रहते थे और राहत कार्यों की देख-रेख किया करते थे। उनके रहने की वजह से यहाँ बहुत से नेता यहाँ आया-जाया करते थे। उन दिनों भरथुआ में इसी नाम का एक चौर हुआ करता था। बागमती नदी उन दिनों यहाँ नहीं थी, वह धरमपुर के पास बहा करती थी। भूकम्प के बाद चौर के पानी की निकासी में बड़ी बाधा पड़ी और वनस्पतियों के सम्पर्क से यह पानी सड़ने लगा और चारों ओर दुर्गन्ध व्याप्त होने लगी। प्रख्यात पत्रकार सत्यदेव विद्यालंकार राजेन्द्र बाबू के यहाँ आया-जाया करते थे। एक बार तो वह लगातार 6 महीनें यहीं रह गए। बगल के बेनीपुर में रामबृक्ष बेनीपुरी का घर था। बेदौल में इस तरह के लोगों का अच्छा जमावड़ा हुआ करता था। रामबृक्ष बेनीपुरी के सौजन्य से विद्यालंकार जी ने राजेन्द्र बाबू से गांधी जी के लिए एक चिट्टी लिखवायी और उनसे सम्पर्क किया और उन्हें भरथुआ की व्यथा बतायी। गांधी जी ने कहा बताते हैं कि यदि वहाँ की स्थिति इतनी ज्यादा खराब है तो वह इसे खुद देखना चाहेंगे और ब्रिटिश सरकार से पानी की निकासी की सिफारिश करेंगे। अगर सरकार कुछ नहीं करती है तो फिर वह अपने संसाधन से इस पानी की निकासी करवायेंगे। गांधी जी के इतने आश्वासन पर रामबृक्ष बेनीपुरी उन्हें भरथुआ लाने में सफल हुए और नाव पर पूरा इलाका घुमाया। उन दिनों यहाँ मलेरिया फैला हुआ था और ज्यादातर लोग बीमार थे। यहाँ का पानी काला हो गया था और जलवायु स्वास्थ्य के लिए पूरी तरह से दूषित हो चुकी थी। इस तरह से भरथुआ की जल-निकासी की व्यवस्था हुई।

भरथुआ के एक अवकाश प्राप्त जेलर पंडित प्रसाद भट्ट अपने गाँव के पुनर्वास का किस्सा कुछ इस तरह बयान करते हैं, ‘‘...हुआ यह कि जब तटबंध बेनीपुर से आगे बढ़ना शुरू हुआ तो हम लोगों को लगा कि हम लोग फंस जायेंगे तब हम लोगों ने तटबंध के निर्माण कार्य में व्यवधान उत्पन्न किया और काम बंद करवा दिया। हमलोगों का कहना था कि नदी से जनार मात्र 13 चेन की दूरी पर था तो उसे जोड़-तोड़ करके तटबंध का अलाइनमेन्ट बदल कर के बाहर कर दिया तो भरथुआ जो कि नदी की धारा से 45 चेन दूर था उसे क्यों तटबंधों के बीच फँसाया जायेगा। अगर यह तटबंध बनाना इतना ही जरूरी है तो फिर हमारे लिए सुरक्षा रिंग बांध बने। पुनर्वासित होना हमें मंजूर नहीं था। जब हम लोगों ने एक बार काम रुकवा दिया था तो ठेकेदारों के कुछ लोग हम लोगों को डराने-धमकाने के लिए आये थे जिसका हम लोगों ने सामूहिक विरोध किया। हम लोगों ने सरकार को यह भी चेताया कि हम लड़ेंगे, आत्मदाह कर लेंगे और अगर हम पर गोली चलाई गयी तो उससे भी निपट लेंगे पर गाँव छोड़ कर नहीं जायेंगे। फिर हम लोग मिले अपने मंत्री देवेश चन्द्र ठाकुर से और उन्हें पूरा किस्सा बताया। उन्होंने हमारी बड़ी मदद की और बहुत से अधिकारियों से हम लोगों को मिलवाया। उन्हीं के प्रयासों से चीफ इंजीनियर ज्वाला प्रसाद जी यहाँ आये।

हम लोगों ने हाइकोर्ट में भी मुकद्दमा किया था। वहाँ अभियंता प्रमुख ने हलफनामा दायर किया कि यह तटबंध तो तीस साल पहले से स्वीकृत था तब तो किसी ने कोई विरोध नहीं किया तो अब विरोध का कोई औचित्य नहीं है। तीस साल से यह लोग क्यों सोते रहे? हमारा कहना था कि अगर हम सो रहे थे तो तीस साल से सरकार क्या जगी हुई थी? वह भी तो सो ही रही थी। विरोध तो तभी होगा जब हम प्रभावित होंगे। अब प्रभावित हो रहे हैं तो विरोध कर रहे हैं। सरकार के सामने हमारा प्रस्ताव था कि पहले हमारा सुरक्षा बांध बने तभी मुख्य बांध पर काम शुरू हो। यह प्रस्ताव मुजफ्फरपुर में मुख्य अभियंता ज्वाला प्रसाद के पास गया। वह यहाँ आये, बात की और प्रस्ताव मंजूर कर लिया। इस पर काम शुरू हुआ। जिस जमीन से होकर तटबंध गुजरा है उसका न तो अधिग्रहण हुआ है और न ही किसी को अभी तक मुआवजा मिला है पर गाँव के हक में सुरक्षा बांध बनाने का यह काम पूरा हो गया। यह सब ज्वाला बाबू की वजह से हुआ। 16 मई 2008 को मुजफ्फरपुर में कलक्टर के साथ बहुत से लोगों की मीटिंग हुई उसमें हमारे आपदा प्रबंधन मंत्री देवेश चन्द्र ठाकुर भी थे। तय हुआ कि हम लोग स्वेच्छा से जमीन देंगे और तब रिंग बांध बन जायेगा। उनका कहना था कि लिखा-पढ़ी और कानूनी पेंच में पड़ेंगे तो देर हो जायेगी और पूरा गाँव ही बह जायेगा। हम लोगों की समझ में बात आयी और काम शुरू हो गया। मुआवजा अब धीरे-धीरे मिलना शुरू हो रहा है। थोड़ा बहुत झमेला हमारे गाँव के श्मसान को लेकर हुआ। तटबंध को पहले इसी पर से गुजार देने का कार्यक्रम था, हम लोगों ने विरोध किया कि जब शंकरपुर में कब्रिस्तान को बचाने के लिए तटबंध को तीन चेन खिसकाया जा सकता है या बभनगाँवाँ में भी यही काम किया जा सकता है तो भरथुआ में यह क्यों नहीं होगा? इस पर भी एक कमेटी आयी थी गाँव में, भूतपूर्व अभियंता प्रमुख बृज मोहन बाबू और कबीर साहब, एक्जीक्यूटिव इंजीनियर उसमें शामिल थे। इस कमेटी ने सिफारिश की तब कहीं जाकर हमारे गाँव का श्मसान बचा। रिंग बांध की बात इसलिए उठी कि हम लोगों का घर नहीं उजड़ेगा, जहाँ है वहीं रहेंगे। अगर ऐसा नहीं किया गया होता तो आज हम भी उसी हालत में होते जो हालत रिंग बांध के बाहर वालों की है। उनके पुनर्वास का कुछ अता-पता नहीं है अभी तक। हमने सरकार से रिंग बांध बनवा लिया है। अब हम भी मस्त हैं और सरकार भी मुक्त है। हमें दूसरे किसी रिंग बांध या उससे होने वाली किसी भी परेशानी के बारे में जानकारी नहीं है। निर्मली, महादेव मठ, भटनियाँ, करहारा, बैरगनियाँ या चानपुरा रिंग बांध आदि के विषय में हम नहीं जानते।’ हम अपना पानी निकाल लेते हैं, अभी तटबंध को चीरा हुआ है बाद में स्लुइस बन जायेगा। हम लोग यहाँ नारायण की दी हुई जमीन पर बसे हैं-यह रिंग बांध भी भगवान की देन है। हम लोग कभी कष्ट नहीं भोगेंगे। स्लुइस गेट प्रोसेस में है। इस साल नहीं तो अगले साल जरूर बन जायेगा। देवेश ठाकुर जी मंत्री हैं, यहीं अथरी के हैं और उनका यह वायदा है। अभी हमारी हालत यह है कि हम लोग बाढ़ से तो बच गए मगर बरसात के पानी में फंस गए हैं। घर-घर के सामने पानी लगा है। निकासी का रास्ता अभी नहीं है। यह जल-जमाव बीमारी का घर है। इतने मच्छर हैं कि शाम के समय दरवाजे पर बैठ नहीं सकते। भरथुआ में करीब 400-500 घर होंगे। रिंग बांध पर साढ़े तीन करोड़ रुपया खर्च हुआ है। एक महीनें में काम खत्म हो गया। 6 मई 2008 को काम शुरू हुआ और 6 जून 2008 को खत्म हो गया। हमारे पूरे गाँव को पुनर्वासित करने में सरकार का साढ़े बारह करोड़ रुपया खर्च होने वाला था। रिंग बांध में सिर्फ 3-5 करोड़ रुपया खर्च हुआ। सरकार को भी फायदा था और हम लोग घर से बेघर नहीं हुए। यह रिंग बांध तो बन गया मगर अब इसमें भी कटाव लग गया है, हम लोगों ने ज्वाला बाबू को संपर्क किया तब उन्होंने एक और टीम यहाँ भेजी। हम लोगों का टीम से कहना था कि रिंग बांध की सुरक्षा, हमारी सुरक्षा, जान-माल की सुरक्षा का एक ही उपाय है कि यहाँ रिंग बांध के बाहरी भाग में वैसी ही फाइलिंग की जाए जैसा कि जनार के पास दाहिने तटबंध को बचाने के लिए की गयी है। ऐसा अगर नहीं होगा तो यह रिंग बांध सुरक्षित नहीं रह पायेगा। अब देखना है विभाग क्या करता है।’’

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Post By: tridmin
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