जो है असीम उत्प्रेक्षा - सा विस्तीर्ण परम,
आत्मा-जैसा निर्लिप्त, ज्योतियों का वैभव-
जो है रहस्य का केंद्र, वेद में नेति-नेति,
सरसी-समान ले विकच तारकों के कैरव।
जिसमें उड़ता उद्दाम विस्मयों का सौरभ,
अद्भुत रस का परिपाक महाकवि-सा करता।
ज्योतिषी - दूरगामिनी दृष्टि भी हार गई,
सूक्ष्मातिसूक्ष्म यंत्रों में भेद नहीं भरता।
ऐसे नभ में वैज्ञानिक प्रज्ञा न जितने-
है अनुसंधानों के उपयोगी छंद गढ़े-
उसको उतना ही बोध हुआ- है ज्ञान-कूट
उन्नत अनंत, जिन पर हम अब तक नहीं चढ़े।
इस महाव्योम में क्षीरायण स्वर्गगंगा है-
पौराणिक आख्यानों की गर्मस्थली बनी।
कल कांति कुंतला मानो नीहारिका एक
या चादर उज्जवल वरदानों की टंगी-तनी।
‘है वक्र चंद्र को राहु नहीं ग्रसता कदापि’
इस नीति-रीति को समझ, जिह्वा धाराओं में-
उत्तर से दक्षिण में बहती है नभ-गंगा-
भर-भर नवीन चेतना विचारों-भावों में।
हैं घूर्णमती पृथ्वी पर आभासित होतीं -
ईशान और नैर्ऋत्य कोण में धाराएं
इसकी वैसे दूसरी, असम्यक् अवगति से-
माया में मिलती जैसे भ्रम की कलनाएं।
है रोम-रोम के कोटि-कोटि ब्रह्मांड लसित-
जिसके, देती है उस विराट का परिचय ये।
अगणित सूर्यों की प्रभा जहां फीकी पड़ती,
हैं वहां स्वयं को देने वाली प्रश्रय ये।
अनुमित होता ब्रह्मांड हमारा भी इसमें-
कुंडली-कल्प, दुधिया छटा से पूरित है।
दूरी की तो कल्पना, जल्पना ही होगी-
यह इतनी अगम-अगोचर हमसे दूरित है।
‘पंचगंगा’ में संकलित
आत्मा-जैसा निर्लिप्त, ज्योतियों का वैभव-
जो है रहस्य का केंद्र, वेद में नेति-नेति,
सरसी-समान ले विकच तारकों के कैरव।
जिसमें उड़ता उद्दाम विस्मयों का सौरभ,
अद्भुत रस का परिपाक महाकवि-सा करता।
ज्योतिषी - दूरगामिनी दृष्टि भी हार गई,
सूक्ष्मातिसूक्ष्म यंत्रों में भेद नहीं भरता।
ऐसे नभ में वैज्ञानिक प्रज्ञा न जितने-
है अनुसंधानों के उपयोगी छंद गढ़े-
उसको उतना ही बोध हुआ- है ज्ञान-कूट
उन्नत अनंत, जिन पर हम अब तक नहीं चढ़े।
इस महाव्योम में क्षीरायण स्वर्गगंगा है-
पौराणिक आख्यानों की गर्मस्थली बनी।
कल कांति कुंतला मानो नीहारिका एक
या चादर उज्जवल वरदानों की टंगी-तनी।
‘है वक्र चंद्र को राहु नहीं ग्रसता कदापि’
इस नीति-रीति को समझ, जिह्वा धाराओं में-
उत्तर से दक्षिण में बहती है नभ-गंगा-
भर-भर नवीन चेतना विचारों-भावों में।
हैं घूर्णमती पृथ्वी पर आभासित होतीं -
ईशान और नैर्ऋत्य कोण में धाराएं
इसकी वैसे दूसरी, असम्यक् अवगति से-
माया में मिलती जैसे भ्रम की कलनाएं।
है रोम-रोम के कोटि-कोटि ब्रह्मांड लसित-
जिसके, देती है उस विराट का परिचय ये।
अगणित सूर्यों की प्रभा जहां फीकी पड़ती,
हैं वहां स्वयं को देने वाली प्रश्रय ये।
अनुमित होता ब्रह्मांड हमारा भी इसमें-
कुंडली-कल्प, दुधिया छटा से पूरित है।
दूरी की तो कल्पना, जल्पना ही होगी-
यह इतनी अगम-अगोचर हमसे दूरित है।
‘पंचगंगा’ में संकलित
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