अनंतराम मिश्र ‘अनंत’

अनंतराम मिश्र ‘अनंत’
ब्रह्मपुत्र
Posted on 02 Dec, 2013 10:01 AM
नील-नीर-परिधान सुशोभित हलधर-सा कृषि का उत्थान-
करता हूं निष्प्राण ऊसरों को उर्वर में जीवन-दान।
आ-आकर मिलती है मुझमें सरिताएं बहुसंख्य-सहास;
सरस-नवीन कल्पनाएं ज्यों आती सिद्ध सुकवि के पास।

तुषाराद्रि ने आयोजित की, नद-नदियों में जो कि अनन्य-
लंबी दौड़ प्रतिस्पर्धा, मैं उसमें सर्वजयी हूं धन्य।
मेरे धावन की लंबाई, धारा की चौड़ाई और-
आकाश-गंगा
Posted on 01 Dec, 2013 03:51 PM
जो है असीम उत्प्रेक्षा - सा विस्तीर्ण परम,
आत्मा-जैसा निर्लिप्त, ज्योतियों का वैभव-
जो है रहस्य का केंद्र, वेद में नेति-नेति,
सरसी-समान ले विकच तारकों के कैरव।

जिसमें उड़ता उद्दाम विस्मयों का सौरभ,
अद्भुत रस का परिपाक महाकवि-सा करता।
ज्योतिषी - दूरगामिनी दृष्टि भी हार गई,
सूक्ष्मातिसूक्ष्म यंत्रों में भेद नहीं भरता।
पावन है तेरी लहर, लहर
Posted on 01 Dec, 2013 03:45 PM
जो पाप-दुर्ग पर दुर्गा-सी टूटती सर्वदा घहर-घहर,
हे अमरधुनी सरयू मैया! पावन है तेरी लहर-लहर।
नगपति के व्यापक आंगन में कन्या-समान इठलाती है,
धरती को करने हरा - भरा, ऊपर से नीचे आती है,
करती प्रचंड गर्जना कभी तू मधुर-मधुर कुछ गाती है,
पथबंधु वनों के वैभव से अपना संसार सजाती है,
तेरे पानी से मोती-सी आभा उठती है छहर-छहर।
ताम्रपर्णी
Posted on 01 Dec, 2013 03:36 PM
शंकर से आज्ञापित मुनि ने, पर्वत के उच्च शिखर पर से-
दी छोड़ कमंडलु की गंगा, वरदान-जलद जैसे बरसे।
लहराती - बलखाती नीचे पिघले तांबे - सी चली धार-
थी कल्लोलिनी ताम्रवर्णी-फेनिल, सवेग, नटखट अपार।

बह उठी तीन धाराओं में ‘नारदी तीर्थ’ घेरती हुई-
मुनिवर कश्यप के आश्रम को कुंडलाकार घेरती हुई।
कुछ दूरी पर फिर ‘अग्निनदी’ उन ‘वेदतीर्थ’ धाराओं को-
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