अलवर में नदियां एक-दूसरे से जोड़ी नहीं गई हैं। यहां लोग, गांव, नदियों से, अपने तालाबों से जुड़े हैं। यहां पैसा नहीं बहाया गया है, पसीना बहाया है लोगों ने और अच्छे काम और अच्छे विचारों ने अकाल को एक दर्शक की तरह पाल के किनारे खड़ा कर दिया है।
आग लगने पर कुआं खोदना पुरानी कहावत है। अकाल की आग लगी। सरकार और समाज ने भी कुआं खोदना शुरु किया। कहावत में तो कुंआ खोदने पर शायद पानी भी निकलता है पर इस बार अकाल में कुआं खोदने पर पानी नहीं मिला। टैंकरों से, रेलों से और तो और गुजरात में पानी के जहाज से पानी पहुंचाया गया। सिर्फ हवाई जहाज रहा गया।
जिस 21वीं सदी में भारत को ले जाने के लिये हमारे सभी दलों के सभी राजनेता पिछले 20 बरस में बहुत आतुर दिख रहे थे उस 21 वीं सदी का यह पहला अकाल है। और जिस सूचना की क्रांति का इतना हो-हल्ला हो रहा था, इस क्रांति के महान दूतों को, महान सपूतों को बिना सूचना दिये देश के आधे हिस्से में अकाल 'चुपचाप' उतर आया है।
पर अकाल कभी चुपचाप नहीं आता। वह बिना तिथि बताये आने वाला अतिथि नहीं है। सितंबर के अंत में जब मानसून ने अपने को समेटा था तब बहुत-से हिस्से में उसने यह जानकारी, यह सूचना भी बरसा दी थी कि कहां-कहां औसत से कम वर्षा हुई है। पर कुछ अपवाद छोड़ कर न तो धरती के बेटों ने, किसानों ने और न कलेक्टरों ने इस सूचना को बटोर कर रखा। सब जगह गांवों में, खेतों मे, शहरों में पीने का पानी, सिंचाई का पानी उसी ढंग से उलीचा जाता रहा। नतीजा यह हुआ कि छह-सात राज्यों में जल-स्तर लगातार नीचे गिरता गया। वह इतना नीचे गिर गया कि फिर बिजली के भी हाथ नहीं लग सका।
इस तरह की अनीति के इस दौर में सरकार का ध्यान जलनीति बनाने की तरफ भी गया है। इस नई जलनीति का एक प्रारूप अकाल से पहले भी बन चुका है। जिन टेबुलों पर जलनीति बनी है, उन्हीं टेबुलों से देश की सारी नदियों को एक-दूसरे से जोड़ देने की सबसे खर्चीली और शायद सबसे भयानक, अव्यावहारिक योजना की भी बात लगातार आ रही है। ऐसी चर्चाओं को, वार्ताओं को अकाल भी असामयिक, असामाजिक नहीं बना पाया है। जिम्मेदार लोग, मंत्रिगण ऐसी ही गप्पों से व्यस्त रहें तो क्या कहा जा सकता है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि कभी भी अकाल अकेले नहीं आता। उसके आने से पूर्व अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है। यहां विचार और काम दोनों में कोई अंतर नहीं है। यह आज की नई शब्दावली से अलग है। इसमें ‘ऐक्शन’, ‘फील्ड वर्क', ‘ग्रासरूट’ का काम कुछ ज्यादा महत्व और वजन लिये दिखता है और सोचना-समझना एक घटिया दर्जे का माना जाता है। पर इसके विपरीत अच्छे कामों से अच्छे विचार निकलते हैं और अच्छे विचारों से अच्छे काम। इन दोनों में से कोई भी 'टर्मिनेटर सीड' नहीं होता।
इस अकाल के बीच भी अच्छे काम और अच्छे विचार का एक सुंदर छोटा-सा उदाहरण राजस्थान के अलवर क्षेत्र का है, जहां तरुण भारत संघ पिछले पन्द्रह बरस से काम कर रहा है। वहां पहले अच्छा विचार आया तालाबों का, हर नदी, नाले को छोटे-छोटे बांधों से बांधने का। इस तरह वहां और आसपास के कुछ और जिलों के कोई 600 गांवों ने बरसों तक वर्षा की एक-एक बूंद को सहेज लेने का काम चुपचाप किया। इन तालाबों, बांधों ने यहां सूखी पड़ी पांच नदियों को 'सदानीरा' का दर्जा वापस दिलाया।
अच्छे विचारों से अच्छा काम हुआ और फिर आई चुनौती भरे अकाल की पहली सूचना। नदियों मे, तालाबों मे, कुआं में वहां तब भी पानी लबालब भरा था। फिर भी, इस क्षेत्र के लोगों ने, किसानों ने आज से सात-आठ माह पहले यह निर्णय किया कि पानी कम गिरा है, इसलिये ऐसी फसलें नहीं बोनी चाहिये जिनकी प्यास ज्यादा होती है, तो कम पानी लेने वाली फसलें लगाई गईं। इसमें उन्हें कुछ आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा पर आज यह क्षेत्र अकाल के बीच में एक बड़े हरे द्वीप की तरह खड़ा है। यहां सरकार को न तो टैंकरों से पानी ढोना पड़ रहा है, नअकाल राहत का पैसा बांटना पड़ा है। लोग, गांव किसी के आगे हाथ नहीं पसार रहे हैं। उनका माथा ऊंचा है। पानी के उम्दा काम ने उनके स्वाभिमान की भी रक्षा की है।
अलवर में नदियां एक-दूसरे से जोड़ी नहीं गई हैं। यहां लोग, गांव, नदियों से, अपने तालाबों से जुड़े हैं। यहां पैसा नहीं बहाया गया है, पसीना बहाया है लोगों ने और अच्छे काम और अच्छे विचारों ने अकाल को एक दर्शक की तरह पाल के किनारे खड़ा कर दिया है।
साफ माथे का समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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