ऐसे तो बदलने से रहे गांव

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सौ स्मार्ट सिटी बनाने का इरादा जताने के बाद अब गांवों को भी स्मार्ट बनाने के इच्छुक हैं। उन्होंने अपनी सरकार के एक और महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ की शुरुआत कर दी है। इस योजना के तहत सभी सांसद 2019 तक तीन गांवों में बुनियादी और संस्थागत ढांचा विकसित करने की जिम्मेदारी उठाएंगे। गांवों में साफ-सफाई रखी जाएगी और वहां शांति-सौहार्द के साथ लिंग समानता और सामाजिक न्याय कायम करने पर भी काम किया जाएगा। आदर्श ग्राम का एक कार्यभार महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना भी होगा। नरेंद्र मोदी खुद भी अपने संसदीय क्षेत्र बनारस के रोहनियां इलाके के ककरहिया गांव को विकसित करने का काम करेंगे।

कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री का मकसद ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ के जरिए देश के लगभग छह लाख गांवों को उनका वह हक दिलाना है, जिसकी परिकल्पना स्वाधीनता संग्राम के दिनों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने की थी। महात्मा गांधी की नजर में गांव गणतंत्र के लघु रूप थे, जिनकी बुनियाद पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी होनी थी। लेकिन, गांधी की वैचारिक विरासत के दावेदारों यानी आजाद भारत के शासकों ने विकास का जो मॉडल अपनाया, उससे आजादी के साढ़े छह दशकों में गांवों की हालत लगातार बद से बदतर होती गई। आज जो हालात हमारे गांवों के हैं, वे बताते हैं कि हम गांधी के सपनों के भारत से कितनी दूर भटक गए हैं।

चुनिंदा गांवों के विकास की योजना पहली बार सामने नहीं आई है। वित्त वर्ष 2009-10 में यूपीए सरकार ने भी इसी तरह का एक कार्यक्रम ‘प्रधानमंत्री आदर्श गांव योजना’ के नाम से शुरू किया था। योजना कितनी कारगर रही, यह ठीक-ठीक कोई नहीं बता सकता, शायद योजना शुरू करने वाले भी नहीं। दोनों योजनाओं में एक महत्त्वपूर्ण फर्क यह है कि इसे प्रधानमंत्री या केंद्र सरकार को नहीं, सांसदों को अंजाम देना है। प्रधानमंत्री ने हर सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र का कोई ऐसा गांव चुनने को कहा है जिसकी जनसंख्या तीन हजार से पांच हजार के बीच हो। 2016 तक इसे आदर्श गांव के रूप में विकसित करने के बाद 2019 तक सांसद को दो गांव और गोद लेने होंगे। इस तरह अगले आम चुनाव तक हर सांसद को तीन गांवों को आदर्श गांव बनाना होगा। प्रधानमंत्री ने उम्मीद जताई है कि इस तरह के कुछ गांव तैयार होने पर बाकी गांव भी इसी तर्ज पर विकसित हो जाएंगे और ग्रामीण भारत का कायाकल्प हो जाएगा।

प्रधानमंत्री ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ के जरिए देश के लगभग छह लाख गांवों को उनका हक दिलाने चल पड़े हैं। सवाल है कि क्या ग्रामीण भारत के विकास के तकाजे को इस तरह चुने हुए गांवों पर केंद्रित कर देने की नीति सही है? गांवों को आत्मनिर्भर बनाकर, लोगों के लिए रोजी-रोजगार के साधन मुहैया कराकर ही गांवों का विकास संभव है। इसके बगैर गांवों की तस्वीर में कभी मुकम्मल और टिकाऊ बदलाव नहीं हो सकता। इस योजना के तहत आदर्श गांवों की अवधारणा में बुनियादी ढांचे को छोड़ दें तो बाकी सारी बातें वही हैं जो पंचायती राज या गांवों पर केंद्रित अन्य योजनाओं के संदर्भ में कही जाती रही हैं। कंगाली और बदहाली के महासागर में संपन्नता के कुछ टापुओं को छोड़ दें तो बाकी सारे गांवों में जीने के लिए आवश्यक बुनियादी चीजें भी नहीं हैं। आजादी के बाद के वर्षों में, खासकर नवउदारीकरण की अर्थव्यवस्था शुरू होने के बाद, शहरों की तो चांदी हो गई, पर इसकी कीमत भी देश की आत्मा कहे जाने वाले गांवों को ही चुकानी पड़ी, क्योंकि सरकारों ने रीयल एस्टेट या बड़े कल-कारखानों के लिए किसानों की जमीनों का अधिग्रहण शुरू कर दिया। गांव के छोटे-मोटे उद्योग-धंधे और व्यवसाय चौपट हो गए। शिक्षा, स्वास्थ्य और व्यवसाय जैसी तमाम बुनियादी सुविधाओं का रुख शहरों की ओर मुड़ गया। गांव बुनियादी सुविधाओं तक से महरूम बने रहे। बदहाली और मजबूरी के इसी माहौल के चलते गांवों से लोगों के पलायन का दौर शुरू हो गया, जो आज भी चिंताजनक रूप से जारी है।

दरअसल गांवों का मूलाधार है खेती और उस पर आधारित लघु उद्योग। देश की विकास नीतियां इनके लिए घातक साबित हुई हैं। आजादी के बाद हरित क्रांति जरूर हुई और उससे देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर भी बना, मगर उस हरित क्रांति का दायरा सीमित ही रहा जिसकी वजह से देश में एक असंतुलन ही पैदा हुआ। दरअसल, आजादी के बाद आई तमाम सरकारों की प्राथमिकताओं में खेती-बाड़ी की जगह काफी नीचे रही। सवाल उठता है कि क्या गांवों के विकास को कृषि की बेहतरी के तकाजे से अलग करके देखा जा सकता है? तमाम सरकारें बेशक गांवों के विकास पर भारी-भरकम खर्च करने का दावा करती रही हैं, लेकिन सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार के चलते बिजली, पानी और शौचालय जैसी बुनियादी ज़रूरतों से महरूम हमारे गांवों की हकीकत तो कुछ और ही बयां करती है।

सवाल है कि क्या इन हालात को सुधारने का अकेला यही रास्ता है कि कुछ आदर्श गांव पेश कर दिए जाएं? केंद्र सरकार की इस नई योजना को लेकर भी पहला सवाल यही उठता है कि क्या चुनिंदा गांवों पर ही विशेष ध्यान देने से बाकी ग्रामीण भारत के प्रति भेदभाव नहीं होगा? सियासी गुणा-भाग से ज्यादा अहम सवाल यह भी है कि क्या ग्रामीण भारत के विकास के तकाजे को इस तरह चुने हुए गांवों पर केंद्रित कर देने की नीति सही है?

सरकार कोई सामाजिक संस्था नहीं है कि वह एक क्षेत्र विशेष में विकास का नमूना पेश करने तक सीमित रहे। उसे तो समूची आबादी के बारे में सोचना चाहिए। ग्रामीण इलाकों को ध्यान में रखकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा, भारत निर्माण जैसी कई योजनाएं अस्तित्व में हैं। हालांकि, इनके अमल में बहुत-सी खामियां सामने आती रही हैं, पर इन खामियों को दूर कर योजना का ज्यादा कारगर क्रियान्वयन करने के बजाय ऐसी नीति क्यों अपनाई जा रही है, जिससे बाकी गांव खुद को उपेक्षित महसूस करें? अहम सवाल यह भी है कि सरकार के फैसलों और नीति-निर्धारण में भागीदारी करने वाले हमारे सांसदों को सरकार के फैसलों और नीतियों को अधिक जनपक्षीय बनाने पर जोर देना चाहिए, या किसी खास गांव पर अपना ध्यान केंद्रित करने पर? दरअसल गांवों को एक हद तक आत्मनिर्भर बनाकर, गांव के लोगों के लिए रोजी-रोजगार के साधन मुहैया कराकर ही गांवों का विकास संभव है। ऐसी व्यवस्था के बगैर गांवों की तस्वीर में कभी कोई मुकम्मल बदलाव नहीं हो सकता। जो भी बदलाव होगा, उसके भी टिकाऊ होने की कल्पना नहीं की जा सकती।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं), ईमेल : anilj137@gmail.com
 

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