ऐसा कब तक चलेगा, मी लॉर्ड

<i>इलाहाबाद हाईकोर्ट</i>
<i>इलाहाबाद हाईकोर्ट</i>
अदालतों का काम है, आदेश देना और शासन-प्रशासन का काम है, उसकी पालना करना। किंतु ऐसा लगता है कि हमारी सरकारों ने अदालती आदेशों की अनदेखी करना तय कर लिया है; खासकर, पर्यावरणीय मामलों में। रेत खनन, नदी भूमि, तालाब भूमि, प्रदूषण से लेकर प्रकृति के विविध जीवों के जीवन जीने के अधिकार के विषय में जाने कितने अच्छे आदेश बीते वर्षों में देश की छोटी-बड़ी अदालतों ने जारी किए हैं। किंतु उन सभी की पालना सुनिश्चित हो पाना, आज भी एक चुनौती की तरह हम सभी को मुंह चिढ़ा रहा है।

कितने अवैध कार्यों को लेकर रोक के आदेश भी हैं और आदेश के उल्लंघन का परिदृश्य भी। किसी भी न्यायतंत्र की इससे ज्यादा कमजोरी क्या हो सकती है, कि उसे अपने ही आदेश की पालना कराने के लिए कई-कई बार याद दिलाना पड़ेे। आखिर यह कब तक चलेगा और कैसे रुकेगा? बहस का बुनियादी प्रश्न यही है।

आदेश 1: दादरी जलक्षेत्र


दादरी, ग्रेटर नोएडा का एक गांव है, बील अकबरपुर। यहां स्थित एक विशाल जलक्षेत्र 300 से अधिक दुर्लभ प्रजाति के पक्षियों का घर है। वास्तव में यह जलक्षेत्र नदी के निचले तट की ओर स्थित बाढ़ क्षेत्र है। रिकॉर्ड में दर्ज इसका मूल रकबा 72 हेक्टेयर था। वर्ष 2009 में जांच के दौरान कुछ पर्यावरण कार्यकताओं ने मात्र 32.7 हेक्टेयर रकबा ही अतिक्रमण के चंगुल से बाहर पाया; बाकि पर पहले ही अतिक्रमण हो चुका था। इस पर एक निजी विश्वविद्यालय द्वारा किए अतिक्रमण को लेकर मामला प्रकाश में आया।

इस संबंध में दायर मामले पर विचार करते हुए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने वर्ष-2012 में इस जलक्षेत्र के 500 मीटर के दायरे में निर्माण पर रोक लगा दी थी। यह न्यायिक आदेश की प्रशासनिक अवहेलना नहीं तो और क्या है कि बावजूद इसके निर्माण जारी रहा। लिहाजा, दो वर्ष बाद 19 सितम्बर, 2014 को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण मौके की वीडियोग्राफी का आदेश देने को विवश हुआ।

आदेश 2: नदी नियमन क्षेत्र


तीसरा मामला, एक दिन इसी साल के 18 सितम्बर का है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ को लेकर स्पष्ट विचार पेश न करने को लेकर केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को एक बार फिर कटघरे में खड़ा किया है। ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ यानी नदी नियमन क्षेत्र! समुद्री नियमन क्षेत्र की तर्ज पर इसे एक ऐसे क्षेत्र के रूप में परिभाषित और अधिसूचित किया जाना अपेक्षित है, ताकि नदियों के बाढ़ क्षेत्र में बढ़ आए अतिक्रमण को रोकने की कानूनी बाध्यता सुनिश्चित की जा सके।

गौरतलब है कि हिंडन-यमुना बाढ़ क्षेत्र में अतिक्रमण के इसी मामले की सुनवाई करते हुए पिछले साल न्यायाधिकरण ने मंत्रालय से पूछा था कि वह क्या कार्रवाई कर रहा है। दो दिसम्बर, 2013 यानी करीब साढ़े नौ महीने पहले मंत्रालय ने मंजूर किया था कि वह देश की सभी नदियों के किनारों को ‘नदी नियमन क्षेत्र’ के रूप में अधिसूचित करने के बारे में गंभीरता से विचार करेगा। मंत्रालय ने यह भी कहा था कि बाढ़ क्षेत्रों की वस्तुस्थिति और ‘नदी नियमन क्षेत्र’ कैसे हों; इस पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए उसने विशेषज्ञ समूह गठित कर लिया है। किंतु पिछले साढे़ नौ महीनों में आठ सुनवाई के बावजूद मंत्रालय ने कोई रिपोर्ट पेश नहीं की।

आदेश 3: मूर्ति विसर्जन


बीते 19 सितम्बर को अदालती आदेश की पालना में ढिलाई का एक दिलचस्प मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा वर्ष 2012 में नदियों में मूर्ति विसर्जन को लगाई रोक को लेकर है। उप्र. शासन ने अदालत के सामने एक बार फिर हाथ खड़ेे कर दिए कि मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं कर पा रहा है। यह लगातार तीसरा साल है कि जब शासन ने अलग-अलग बहाने बनाकर छूट हासिल की है।

तीन साल बीत जाने के बावजूद शासन द्वारा मूर्ति विसर्जन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था न कर पाने को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट भी यही रुख अपना सकता है। बेहतर तो यह होता कि नदी, भूगोल, प्रदूषण और पानी पर काम करने वाली विशेषज्ञ भारतीय एजेंसियां स्वयं पहल कर अपनी सक्षमता का सबूत देते हुए अदालत से कहती की कि वे यह काम कर सकती हैं। अदालत यह काम उन्हें सौंप दे। खर्च और विलंब के कारण हुए पर्यावरणीय नुकसान के हर्जाने की वसूली संबंधित सरकारों के संबंधित विभाग व अधिकारियों की तनख्वाह से की जाती। हकीकत यह है कि शासन ने मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए अभी तक राशि ही जारी नहीं की है, तो वैकल्पिक व्यवस्था कहां से हो? जाहिर है कि इस अदालती आदेश की पालना में शासन की कोई रुचि नहीं। फिर भी इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा छूट-पर-छूट दिया जाना, किसी को अचरज में डाल सकता है।

बहानेबाजी पर नरमी


इतनी बार बहाने बनाकर तो कोई एक छोटे से बच्चे को नहीं फुसला सकता, जितनी बार इस मामले में मंत्रालय ने हरित न्यायाधिकरण के आदेश की अनसुनी की है। नदियों के प्रवाह और भूमि की सुरक्षा पर हमारी सरकारों का यह रवैया तब है जब उत्तराखंड-हिमाचल में गत् वर्ष घटी त्रासदी की याद अभी मिटी नहीं है और जम्मू-कश्मीर के जलजले से हुई मौतों पर आसुंओं के बहने का सिलसिला अभी जारी ही है।

मुझे ताज्जुब है कि साढ़े नौ महीने बाद भी मंत्रालय वही कह रहा है कि ‘नदी नियमन क्षेत्र’ की व्यावहारिकता जांचने के लिए उसने विशेषज्ञ समूह बनाया है। जल संसाधन मंत्रालय कह रहा है कि उसे और समय चाहिए और न्यायाधिकरण है कि अभी भी देरी की वजह पूछ रहा है।

सरकारें अक्षम, तो वसूलो हर्जाना ; दूसरे को सौंपो काम


यदि ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ को परिभाषित और अधिसूचित करने को लेकर मंत्रालय कोई रिपोर्ट पेश नहीं कर पा रहा, तो अदालत उसे अक्षम करार देकर यह काम नदी पर काम करने वाली किसी अन्य भारतीय एजेंसी को यह काम क्यों नहीं सौंप देती? राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण चाहता तो यह काम जियोग्राफीकल सर्वे ऑफ इंडिया अथवा किसी अन्य विशेषज्ञ संस्था को सीधे सौंप सकता है।

तीन साल बीत जाने के बावजूद शासन द्वारा मूर्ति विसर्जन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था न कर पाने को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट भी यही रुख अपना सकता है। बेहतर तो यह होता कि नदी, भूगोल, प्रदूषण और पानी पर काम करने वाली विशेषज्ञ भारतीय एजेंसियां स्वयं पहल कर अपनी सक्षमता का सबूत देते हुए अदालत से कहती की कि वे यह काम कर सकती हैं। अदालत यह काम उन्हें सौंप दे। खर्च और विलंब के कारण हुए पर्यावरणीय नुकसान के हर्जाने की वसूली संबंधित सरकारों के संबंधित विभाग व अधिकारियों की तनख्वाह से की जाती।

दो पहलू और भी



इलाहाबाद हाईकोर्टइलाहाबाद हाईकोर्टउक्त तीनों मामले तो ताजा नजीर भर हैं। दिल्ली में जंगल क्षेत्र के चिन्हीकरण के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने गत् वर्ष दिल्ली के वन विभाग को छह माह का समय दिया था। वन विभाग ने चिन्हीकरण कर डिजीटल नक्शा बनाने में एक साल लगा दिया। ऐसे मामलों कोे देखकर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश के लिए अहम् माने जाने वाले कितने आदेशों की पालना को लेकर सरकारी रवैया यही होगा।

इन नजीरों से यह भी स्पष्ट है कि सरकारें जिन मामलों की पालना करना नहीं चाहती, उनमें ऐसा ही टालू रवैया अपनाती हैं। छिपा एजेंडा किसी अवैध कार्य को जारी रखने में शासन-प्रशासन की सहमति होती है। प्रशासक सहमत नहीं होते हैं तो वैसी स्थिति में उनके साथ क्या घट सकता है, हम रेत खनन के दो मामलों में उनका हश्र हम क्रमशः नोएडा और चम्बल में देख चुके हैं। शायद यहां एक मौजूं प्रश्न, पालना करने वालों की सुरक्षा की भी है।

किंतु हकीकत का यह पहलू सिर्फ कारपोरेट लालच के खिलाफ आए आदेशों की पालना का है। दूसरा पहलू इससे जुदा है। कारपोरेट हित के मामलों में जारी आदेशों की पालना सरकार बिना समय गंवाए करती हैं। दिल्ली में ई-रिक्शा संबंधी मूल आदेश सामने है, जिसके जारी होने के अगले ही दिन एक नामी ऑटो कंपनी के तिपहिया का विज्ञापन कमोबेश सभी अखबारों में दिखाई दिया।

राजस्थान से लेकर बिहार तक जुगाड़ गाड़ियों को लेकर भी कुछ ऐसा ही चित्र था। बहस इस विरोधाभास को लेकर भी इतनी ही जरूरी है, जितनी कि पर्यावरणीय मामलों में ढिलाई को लेकर।

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Post By: Shivendra
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