आहारः मूल्यांकन

इस दुनिया में आहार को मुख्यतः चार प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है।

1 वह लापरवाह भोजन जो सिर्फ लोगों की रोजमर्रा की इच्छाओं और जीभ को तृप्त करता है। यह आहार करते हुए लोग अपनी मानसिक चंचलता के चलते, कभी यहां तो कभी वहां तो कभी वहां खाते रहते हैं। इस भोजन को हम अकारण और असंयमी आहार कह सकते हैं।
2 अधिकांश लोगों का खुराक जीवशास्त्रीय निष्कर्षों पर तय की गई है। शरीर को जिंदा रखने के लिए पौष्टिक भोजन खाए जाते हैं। इसे हम पदार्थवादी वैज्ञानिक भोजन कह सकते हैं।
3 आध्यात्मिक सिद्धांतों और आदर्शवादी दर्शन पर आधारित आहार इसमें वह संयमित भोजन, जिसका लक्ष्य संपीड़न (कम्प्रैशन) होता है, शामिल होता है। अधिकांश ‘प्राकृतिक’ खाद्य इसी श्रेणी में आते हैं और इसे हम अ-विभेदकारी आहार कह सकते हैं।
4 दैवी इच्छा का पालन करनेवाली प्राकृतिक खुराक समस्त मानवीय ज्ञान को त्याग कर इसे हम अ-विभेदकार आहार कह सकते हैं।
लोग सबसे पहले उस बेकार आहार को छोड़ते हैं जो कि अनेक बीमारियों का कारण बनता है। इसके बाद वैज्ञानिक आहार जो कि केवल जीव-वैज्ञानिक जीवन को ही बनाए रखने का प्रयास करता है, मोहभंग होने पर कई लोग सैद्धांतिक आहार की ओर उन्मुख होते हैं। अंत में इससे भी परे जाते हुए हम प्राकृतिक व्यक्ति की अ-विभेदकारी खुराक को प्राप्त होते हैं।

अ-विभेदकारी (नॉन-डिस्क्रिमनेटिंग) आहार


मानव जीवन केवल अपनी शक्ति के बल पर ही नहीं चलता। प्रकृति इंसानों को जन्म देकर उन्हें जिंदा रखती है। लोगों का प्रकृति के साथ यही संबंध बनता है। खाद्य पदार्थ दैवी वरदान होते हैं। इंसान प्रकृति से खाद्य पदार्थ बनाता नहीं हैं - परंतु वो उसे ईश्वर की कृपा से मिलते हैं। खाद्य, खाद्य भी है और खाद्य नहीं भी है। वह मनुष्य का हिस्सा भी है और उससे अलग भी है। प्राकृतिक खुराक तभी संभव होती है जब खाद्य शरीर, मन तथा मस्तिष्क प्रकृति के भीतर पूरी तरह एकाकार हो जाते हैं। हमारा शरीर तभी स्वतंत्र होता है, जब वह अपनी सहज प्रकृति के मुताबिक जो चीज उसे रोचक लगती है उसे खाता है तथा अच्छा न लगने पर उससे बचता है। प्राकृतिक भोजन के लिए नियम तथा मात्राएं निर्धारित करना मुश्किल है। यह आहार अपने आपको खुद स्थानीय परिवेश तथा व्यक्ति विशेष की जरूरतों तथा शरीर की बनावट के अनुसार परिभाषित करती है।

सिद्धांत आधारित आहार


हर व्यक्ति को यह पता होना चाहिए कि, प्रकृति हमेशा संपूर्ण तथा अपने आप में ही पूरी तरह संतुलित होती है। प्राकृतिक भोजन संपूर्ण होता है तथा इसी संपूर्ण में सारे पौष्टिक तत्व तथा स्वाद निहित होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि, यिन और यांग की प्रणाली का उपयोग करते हुए लोग विश्व की उत्पत्ति तथा प्रकृति के रूपांतरों की व्याख्या कर सकते हैं। यह भी लग सकता है कि, मानव शरीर की स-स्वरता (हारमोनी) को तय कर कायम रखा जा सकता है लेकिन यदि सिद्धांतों के भीतर बहुत गहरा पैठा जाए (जो कि पूरब के चिकित्साशास्त्र के अध्ययन के लिए जरूरी है) तो हम विज्ञान के राज में पहुंचकर विभेदकारी (डिस्क्रिमनेटिंग) धारणाओं से नहीं बच पाते। मानव ज्ञान की बारीकियों के बहाव में बहते तथा उसकी सीमाओं को न पहचानते हुए सिद्धांत आधारित आहार का अध्ययन करनेवाला व्यक्ति केवल अलग-अलग वस्तुओं से ही सरोकार रखने लगता है लेकिन जब वह एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ प्रकृति के अर्थ को पकड़ने की कोशिश कर रहा होता है, तो उसका ध्यान उन छोटी-छोटी घटनाओं को नहीं देख पाता जो उसके ऐन पैरों के पास पर रही होती हैं

बीमार व्यक्ति की खुराक


बीमारी तभी आती है जब व्यक्ति प्रकृति से दूर हटने लगता है। बीमारी उतनी ही ज्यादा गंभीर होती है, जितना व्यक्ति प्रकृति से ज्यादा दूर होता जाता है। यदि बीमार व्यक्ति वापस स्वस्थ वातावरण में आ जाता है तो अक्सर उसकी बीमारियां गायब हो जाती हैं। जब प्रकृति से बहुत अलगाव हो जाता है तो बीमार लोगों की संख्या बढ़ जाती है और तब प्रकृति की तरफ वापस लौटने की इच्छा तीव्र होती है। लेकिन प्रकृति की तरफ वापस लौटते हुए, चूंकि इस बारे में उसकी समझ स्पष्ट नहीं होती कि, वास्तव में प्रकृति है क्या? उसकी यह कोशिश बेकार साबित होती है। यदि कोई व्यक्ति वहां पहाड़ पर बिल्कुल आदिम-शैली का जीवन बिता रहा हो तो भी वह उसके वास्तविक लक्ष्य को पहचानने में चूक सकता है। जब आप कुछ करने की कोशिश करते हैं तो आपके प्रयासों के वांछित नतीजा प्राप्त नहीं होते।

शहरों में रहनेवाले लोगों को प्राकृतिक आहार प्राप्त करने के लिए भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। प्राकृतिक आहार उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि किसानों ने उन्हें उगाना ही बंद कर दिया है। यदि वे प्राकृतिक खाद्य खरीदने में सफल भी हो जाते हैं तो भी उनके शरीरों को उस अच्छे भोजन को पचाने के लिए पहले खुद को उसके काबिल बनाना होगा। इन हालातों में यदि आप पौष्टिक भोजन या संतुलित यिन-यांग आहार प्राप्त करने की कोशिश करते हैं तो आपमें अलौकिक निर्णय बुद्धि तथा साधन होने चाहिए। ऐसी दशा में प्रकृति की तरफ वापसी तो होती नहीं उल्टे एक ऐसी विचित्र किस्म की प्राकृतिक खुराक तैयार होती है जो व्यक्ति को प्रकृति से और ज्यादा दूर ले जाती है।

यदि आप आजकल के कथित ‘स्वास्थ्य आहार’ (हेल्थ-फूड) के स्टोरों में झांकें तो वहां तरह-तरह के ‘ताजे खाद्य’, ‘पैकेज्ड फूड’, ‘विटामिन’ तथा पूरक आहारों को देख आपका सिर चकराने लगेगा। वहां उपलब्ध साहित्य में कई प्रकार के आहारों को पौष्टिक तथा स्वास्थ्यवर्धक प्राकृतिक खाद्यों के रूप में पेश किया जाता है। कोई यदि कहता है कि सभी खाद्यों को एक साथ मिलाकर उबालना स्वास्थ्यपूर्वक है, तो कोई इससे ठीक उल्टी बात कहता है। कुछ लोग भोजन में नमक का महत्व प्रतिपादित करते हैं तो कुछलोग उसे बीमारी का कारण मानते हैं। यदि कुछ लोग ऐसे हैं जो फलों को यिन तथा वानरों का आहार मानते हैं। तो कुछ लोग सब्जी, फलों को ही लंबे और सुखी स्वस्थ जीवन के लिए मुफीद मानते हैं।

देश, काल और परिस्थिति के मुताबिक ये सभी मत सही हो सकते हैं और इसी वजह से लोग भ्रमित हो जाते हैं, या दूसरे शब्दों में किसी पहले से भ्रमित व्यक्ति के लिए ये सारे सिद्धांत और ज्यादा उलझाव पैदा करने की सामग्री बन जाते हैं। प्रकृति सतत परिवर्तनशील है और हर क्षण अपना रूप बदलती है। लोग प्रकृति के सच्चे रूप को बूझ नहीं सकते। प्रकृति के चेहरे को समझ पाना असंभव है। प्रकृति को सिद्धांतों तथा औपचारिक विचार धराओं में बांधने का प्रयास, हवा में तितलियां पकड़ने के जाल में पकड़ने जैसा है।यदि आपका निशाना गलत लक्ष्य पर सही भी बैठ जाता है तो आप चूके हुए ही साबित होंगे। मानवता उस दृष्टिहीन व्यक्ति की तरह है जिसे पता ही नहीं होता कि, वह कहां जा रहा है। वह विज्ञान की लाठी हाथ में लिए यहां-वहां टटोलता-टकराता चलता है तथा सोचता है कि, यिन और यांग उसके पथप्रदर्शक बन जाएंगे। मैं कहना यह चाहता हूं कि, खाना आप अपने दिमाग से मत खाइए। यानी अपने विभेदकारी सोच से छुटकारा पा लीजिए। मैंने सोचा था कि भोजन का मानव जीवन के संबंध का जो रेखाचित्र मैंने पहले बनाया था वो कुछ मार्गदर्शन करेगा। लेकिन इसे भी एक बार देख लेने के बाद आप फेंक सकते हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि, व्यक्ति एक ऐसी संवेदनशीलता खुद में पैदा करें जो शरीर को अपना भोजन खुद चुनने योग्य बना दें। अपनी आत्मा को अलग कर केवल खाद्यों के बारे में सोचना ऐसा है कि, आप मंदिर में सूत्रों का पाठ करते हुए प्रवेश तो करें लेकिन बुद्ध को अपने मन से मंदिर के बाहर निकाल दें। खाद्यों की समझ पैदा करने के लिए उनका फलसफा पढ़ने की बजाए हमें करना यह चाहिए कि, हम अपने ही दैनिक भोजन से अपने उपयुक्त सिद्धांत पैदा करें। बीमार लोगों की देखभाल डॉक्टरों को करनी पड़ती है, जब कि स्वस्थ व्यक्ति की देखभाल प्रकृति खुद करती है। पहले बीमार पड़ जाना और फिर अच्छा होने के लिए प्राकृतिक खाद्यों में डूब जाने के बजाए अच्छा यही है कि, हम प्राकृतिक वातावरण में ही रहें ताकि बीमारी हमारे पास फटके ही नहीं। जो युवा यहां पहाड़ी पर बनी हुई कुटियों में रहने आते हैं तथा आदिम शैली में जीवन बिताते हैं, प्राकृतिक खाना खाते हैं, प्राकृतिक कृषि करते हैं, उन्हें मानव के अंतिम उद्देश्य की जानकारी हो गई है और उन्होंने उसके अनुसार व उसके साथ बिल्कुल प्रत्यक्ष ढंग से रहने की तैयारी कर ली है।

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