अधिकार से अधिग्रहण तक सुधार माँगती ज़मीन

bhumi adhigrahan
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बीते एक दशक में कई इलाकों में खेती का रकबा घटा है। खाद्यान्न उत्पादन भी कई बार गिरा। दालें आयात करने को हम विवश हैं ही। सिर्फ मुआवजा बढ़ाकर इस परिस्थिति से नहीं उबरा जा सकता। ऋण आधारित खेती तो इसका समाधान कतई नहीं है। इसके लिए मनमोहन सरकार द्वारा लाए बिल में बहुफसली भूमि के अधिग्रहण पर पूरी तरह रोक का प्रावधान निश्चित ही महत्वपूर्ण है। गरीब-आदिवासियों के पास ज्यादातर भूमि एक फसली ही है। यह सच है कि मध्यवर्ती काश्तकारी उन्मूलन, जमींदारी उन्मूलन, हदबन्दी कानून और चकबन्दी से लेकर भूमि रिकार्ड का कम्प्युटरीकरण तक भूमि सुधार के सरकारी प्रयास भारत देश में कई हुए। हरियाणा की हुडा सरकार से लेकर उ. प्र. की मायावती सरकार तक ने मुआवजे और पुनर्वास को लेकर बनाई अपनी राज्य नीतियों हेतु अपनी पीठ खुद ठोकी। किन्तु किसानों ने सबसे ज्यादा नम्बर मनमोहन सरकार द्वारा लाए भूमि अधिग्रहण बिल को दिए।

शहरी भूमि का मुआवजा बाजार मूल्य का दोगुना और ग्रामीण भूमि का मुआवजा चौगुना चुकाने का प्रावधान के कारण वह बिल सभी पूर्ववर्तियों से आगे था। जिस एक बात को लेकर उस बिल की सबसे ज्यादा पीठ ठोकी गई, वह है - देश की आर्थिक तरक्की में खेती, खेतिहर और गरीब की हिस्सेदारी!

यदि किसी देश की कुल पूँजी या आय में हो रही वृद्धि में गरीब को हिस्सा नहीं मिलता, तो उस तरक्की का गरीब के लिए कोई मायने नहीं होता। इससे इंकार करना असम्भव है कि वह बिल इस मायने को वापस लौटाने की एक कोशिश जरूर थी।

भूमि अधिग्रहण कायदों में बदलाव को लेकर विरोध झेल रहे प्रधानमन्त्री को समझना होगा कि किसान खेती करके सिर्फ अपना पेट ही नहीं भरता; वह दूसरों के लिए भी अन्न, फल व सब्जियाँ उगाता है। उसके उगाए चारे पर ही मवेशी जिन्दा रहते हैं। जिनके पास जमीनें नहीं हैं, ऐसे मजदूर व कारीगर भी अपनी आजीविका के लिए अप्रत्यक्ष रूप से कृषि भूमि पर ही निर्भर होते हैं।

अतः सिर्फ औद्योगिक उत्पादन और उसकी कमाई से कृषि उत्पाद आयात कर लेने से काम चलने वाला नहीं। भारतीय अर्थव्यवस्था, गाँव और रोजगार को बचाना है, तो कृषि भूमि बचानी ही होगी। कृषि भूमि बचाए बगैर खाद्य सुरक्षा के बारे में भी नहीं सोचा जा सकता। बीते एक दशक में कई इलाकों में खेती का रकबा घटा है। खाद्यान्न उत्पादन भी कई बार गिरा। दालें आयात करने को हम विवश हैं ही। सिर्फ मुआवजा बढ़ाकर इस परिस्थिति से नहीं उबरा जा सकता। ऋण आधारित खेती तो इसका समाधान कतई नहीं है। इसके लिए मनमोहन सरकार द्वारा लाए बिल में बहुफसली भूमि के अधिग्रहण पर पूरी तरह रोक का प्रावधान निश्चित ही महत्वपूर्ण है।

गरीब-आदिवासियों के पास ज्यादातर भूमि एक फसली ही है। जाहिर है कि ऐसे भूमालिकों को इस रोक का कोई लाभ नहीं मिलेगा; बावजूद इसके खेती की जमीन बचाने का यह प्रावधान जरूरी है। इससे खेती और किसान.. दोनों की हैसियत में बदलाव का चित्र उभारने में मदद मिलेगी।

“विशुद्ध निजी परियोजना के लिए 80 प्रतिशत और सरकारी व ‘पीपीपी’ परियोजनाओं के लिए 70 भू-मालिकों की सहमति के बगैर भूमि अधिग्रहण सम्भव नहीं होगा। पाँच साल के भीतर अधिग्रहित भूमि का उपयोग न करने अथवा पूरा मुआवजा न चुकाने पर भूमि भू-मालिक, उसके उत्तराधिकारी अथवा राज्य द्वारा स्थापित भूमि-बैंक कोे वापस लौटानी होेगी। शर्त यह भी कि पूरा मुआवजा देने के बाद ही भूमालिक को जमीन खाली करने को कहा जा सकेगा।

अधिग्रहण पूर्व प्रत्येक परियोजना के सामाजिक पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन जरूरी होगा। यह प्रावधान सुनिश्चित करेगा कि नुकसान करने से पहले परियोजना उसका समाधान करे। राहत व पुनर्वास के 14 कानून इस नए कानून का हिस्सा हों। पुनर्वास की स्थिति में भूमालिक को मकान के लिए जमीन मिलेगी। भूमालिक को अधिकार होगा कि वह एक मुश्त भत्ता, महँगाई के अनुसार परिवर्तनशील मासिक भत्ता अथवा परियोजना में प्रति परिवार एक आवश्यक रोजगार में से किसी एक विकल्प को चुन सके।’’

याद करने की बात है कि उक्त प्रावधानों के साथ-साथ मनमोहन सरकार ने तय किया था कि सरकार अब चिकित्सा, शिक्षा व होटल श्रेणी की किसी निजी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण नहीं करेगी। परमाणु ऊर्जा, रेल तथा राष्ट्रीय-राज्यीय राजमार्गों भूमि अधिग्रहण प्रावधानों के दायरे में नहीं आएँगे। लेकिन सेना, पुलिस, सुरक्षा, सार्वजनिक, सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त अथवा प्रशासित शिक्षा-शोध संस्थान, स्वास्थ्य, पर्यटन, परिवहन, अन्तरिक्ष सम्बन्धी परियोजनाएँ, कानून द्वारा स्थापित कृषक सहकारी समितियों से लेकर औद्योगिक गलियारे, सेज, खनन, राष्ट्रीय निवेश एवं निर्माता क्षेत्र व जलसंचयन परियोजनाओं पर सभी प्रावधान लागू होंगे। जाहिर है कि ये प्रावधान जमीन के अधिग्रहण के लिए किसी को जालिम होने की इजाजत नहीं देते। इससे जोर जबरदस्ती तो रुकती ही, सामुदायिक जमीन के लगातार घटते रकबे की रफ्तार पर भी लगाम लगती। अभी पंचायत-प्रधान/पार्षद/प्रशासक की मर्जी से चलती है; तब ग्रामसभा/नगरसभा के प्रत्येक सदस्य की मर्जी महत्वपूर्ण हो जाती।

एक कविता है - “एक बीघा खेती ही जिन्दगी का दाँव थी। गाँव के बाहर इक झोपड़ी ही ठाँव थी। छीन ली सब जालिमों ने। अब बताओ, क्या करूँ?’’

सरकार इस छीन लिये गए को वापस न लौटा सके तो कम-से-कम यह तो सुनिश्चित करे कि अब बिना किसी की मर्जी के न किसी का ठहराव छिनेगा और न किसी की ठाँव। किन्तु मोदी सरकार को यह मंजूर नहीं। आखिर क्यों? आखिर क्यों वह भू-मालिक हितैषी कायदों को दरकिनार करने पर आमादा है? इसका एकमात्र कारण औद्योगिक संगठनों की आशंका है कि उक्त प्रावधानों से भूमि की कीमतें बढ़ेंगी और कीमतें बढ़ने से उद्योगों की ढाँचागत लागत 3 से 5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी।

भवन निर्माण परियोजनाओं में लागत वृद्धि 25 प्रतिशत तक होगी। देश के औद्योगिक और व्यापारिक संगठन आलोचना कर रहे हैं कि इस कारण उत्पादन व निर्माण उद्योग चरमरा जाएगा। सामाजिक आकलन के प्रावधान के कारण परियोजनाएँ समय पर शुरू नहीं हो पाएँगी। पीपीपी परियोजनाएँ प्रभावित होंगी। खनन उद्योग बाधित होगा। बकौल पूर्व ग्रामीण विकास मन्त्री जयराम रमेश, यह ठीक ही है कि जिन प्रावधानों के कारण थोड़े से लोगों को ज्यादा कीमत चुकानी पड़े, लेकिन ज्यादा लोगों कोे ज्यादा मुनाफा हो, वे राष्ट्र के हित में हैं।

भूमि अधिग्रहण कायदो को लेकर मतभेद के मसौदे कई हो सकते हैं: बाजार मूल्य तय करने के तरीका, अधिग्रहण की समय सीमा, राज्य सरकारों को मिली लचीलेपन की छूट, भू-उपयोग बदलने और मालिकाना हक बदलने के खेल पर रोक का अभाव, धर्म के नाम पर कब्जाई जा रही भूमि पर लगाम लगाने से परहेज और तात्कालिक अधिग्रहण के नाम पर सामाजिक प्रभाव आकलन की अनदेखी। भूमि के समझदार उपयोग और परियोजनाओं के दुष्प्रभाव रोकने की संजीदगी दिखाकर इन तमाम आशंकाओं का हल निकाला जा सकता है। संवाद से सब सम्भव है।

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Post By: RuralWater
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