मैग्लीन मानती हैं कि माघ मेले को कुंभ मेले में बदलने के लिए प्रयाग के पंडों ने अखाड़ों का भी सहयोग लिया होगा। इस आधार पर इलाहाबाद में कुंभ आयोजित करने का प्रयास किया गया होगा कि साधु प्रत्येक कुंभ में हरिद्वार जाते हुए इलाहाबाद में रहते थे। वैसे व्यापारिक फायदे के हिसाब से हरिद्वार मेले के लिए कहीं ज्यादा उपयुक्त था। लेकिन कामा मैग्लीन और अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा सरीखे कुछ लोगों के शोध प्रबंध के आधार पर यह मान लेना भी उचित नहीं होगा क्योंकि खुद कामा मैग्लीन ने यह नहीं लिखा है कि यह उन्हें कहां से पता चला? अंग्रेजों ने जिस तरह फैज़ाबाद और लखनऊ के गजट में अलग-अलग तथ्य पेश करके अयोध्या स्थित राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद को जन्म दिया। उसी तर्ज पर कुछ आगे बढ़ते हुए धार्मिक आस्था के पर्व कुंभ के बारे में भी पश्चिमी देशों के इतिहासकार कई ऐसे तथ्य पेश करते हैं। जिससे पौराणिक कुंभ को लेकर जन आस्था के सवाल में तर्क के इतने तीर चुभो दिए जाएं कि बिना किसी आमंत्रण के करोड़ों लोगों के इकट्ठे होने के चलन में कुछ तो पलीता लगे। इसके इसके लिए उन्होंने न केवल इतिहास से छेड़छाड़ की बल्कि कई पौराणिक तथ्यों को काल्पनिक बता कर उनके प्रति आस्था को डिगाने की भी कम कोशिश नहीं की। आस्ट्रेलियाई इतिहासकार कामा मैग्लीन ने कुंभ को लेकर कुछ इसी तरह के दावे किए हैं। उन्होंने अपने शोध में लिखा है कि हरिद्वार के परंपरागत कुंभ के विपरीत 1860 से पहले इलाहाबाद में कुंभ और अर्द्ध कुंभ मेले का कोई इतिहास नहीं रहा है। मैग्लीन के अनुसार इलाहाबाद कुंभ मेला 1857 के विद्रोह से खार खाई ब्रिटिश सरकार की खोज थी। अपनी दूसरी पुस्तक-पावर एंड प्रिविलेज दी इलाहाबाद कुंभ मेला के सिलसिले में लंदन और इलाहाबाद में छह साल तक अभिलेखों, अखबारों की रिपोर्टों और प्रशासनिक दस्तावेज़ों की खाक छान चुकीं मैंग्लीन कहती हैं कि इलाहाबाद कुंभ का इतिहास 150 साल से भी कम पुराना है। उन्होंने कुंभ से जुड़े दस्तावेज़ खंगाले। उनका शोध प्रबंध वर्ष 2003 में प्रतिष्ठित पत्रिका जर्नल ऑफ स्टडीज एशियन में प्रकाशित भी हुआ। उन्हीं के नक्शे कदम पर चलते हुए अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा ने भी अपनी किताब द लास्ट बंग्लो-राइटिंग्स ऑन इलाहाबाद में कामा मैग्लीन की निष्पति को ही आगे बढ़ाया है। अपनी इस संपादित किताब में वह भी इसे साबित करने में जुटे दिखते हैं कि कुंभ मेले को समुद्र मंथन से जोड़कर देखने को लेकर इतिहासकारों को लंबे समय से शक रहा है। यह पंडों द्वारा गढ़ी गई कहानी है।
मैग्लीन के मुताबिक हरिद्वार कुंभ में पंडे-पुरोहितों द्वारा तीर्थकर वसूली और हथियार लेकर चलने का अधिकार छीन लिए जाने और 1857 के गदर के चलते इलाहाबाद में प्रचलित स्थानीय माघ मेले पर रोक लगाने के बाद इलाहाबाद में कुंभ मेले को मान्यता दिलाए जाने के प्रयास शुरू ब्रिटिश सरकार के बढ़ते दमन से बचने और अधिकारियों को स्थानीय त्यौहार के पीछे एक धार्मिक मान्यता होने का विश्वास दिलाने के लिए पहले से प्रचलित स्नान पर्व माघ मेला पौराणिक कथाओं को थोप दिया गया। मैग्लीन कहती हैं कि एक बार तो पेंसिलवेनिया के एक मिशनरी ने यह दिखाने के लिए एक नागा साधु पर पथराव तक किया कि उन्हें भी दूसरे आदमियों की तरह पीड़ा महसूस होती है। जून 1857 में यह अंतर्विरोध अपने चरम पर पहुंच गया जब लगभग 1500 परिवारों ने गदर में भाग लिया और गिरजाघरों पर आक्रमण किया। गदर से पहले भी विद्रोह फैलाने में इन पक्षों की अहम भूमिका थी। विद्रोह के बाद कुख्यात कलेक्टर कर्नल नील ने पंडों का जबर्दस्त दमन किया।
कई को फाँसी पर लटका दिया गया। कई लोगों ने जान बचाने के लिए जंगलों में शरण ली। उनकी जमीनें ज़ब्त कर ली गईं। मैग्लीन को लगता है कि इन भूखंडों में से ज्यादातर आज मेले के दौरान के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। गदर के अगले वर्ष माघ मेला नहीं हुआ। प्रयाग के पंडों ने सन 1860 में एक सभा का गठन कर उसे ब्रिटिश सरकार से पंजीकृत करवा लिया तथा कर्मकांड करवाने और दान स्वीकार करने के अधिकार को मान्यता दिला दी। मैग्लीन कहती हैं कि यह स्पष्ट नहीं है कि कब उन्होंने हर 12वीं वर्ष लगने वाले मेलों का नाम बदलकर कुंभ मेला कर दिया। मैग्लीन को कुंभ मेले का पहला उल्लेख 1868 की एक सफाई व्यवस्था रिपोर्ट में मिला। इलाहाबाद के मजिस्ट्रेट रिकेटस ने इसमें 1871 के कुंभ मेला का उल्लेख किया था। मैग्लीन मानती हैं कि माघ मेले को कुंभ मेले में बदलने के लिए प्रयाग के पंडों ने अखाड़ों का भी सहयोग लिया होगा। इस आधार पर इलाहाबाद में कुंभ आयोजित करने का प्रयास किया गया होगा कि साधु प्रत्येक कुंभ में हरिद्वार जाते हुए इलाहाबाद में रहते थे। वैसे व्यापारिक फायदे के हिसाब से हरिद्वार मेले के लिए कहीं ज्यादा उपयुक्त था। लेकिन कामा मैग्लीन और अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा सरीखे कुछ लोगों के शोध प्रबंध के आधार पर यह मान लेना भी उचित नहीं होगा क्योंकि खुद कामा मैग्लीन ने यह नहीं लिखा है कि यह उन्हें कहां से पता चला?
स्नान की तिथियां
कुंभ मेले के दौरान श्रद्धालुओं की काफी बड़ी तादाद रेत पर बसाई गई नगरी में निवास करते हुए कल्पवास का पुण्य कमाने वालों की भी होती है। रोजाना तीन बार गंगा स्नान और भगवत भजन करने को कल्पवास कहा गया है। यह पौष पूर्णिमा से प्रारंभ होकर माघ पूर्णिमा को खत्म होता है। अथवा मकर संक्रांति से शुरू होकर कुंभ की संक्रांति तक होता है। अथवा पौष एकादशी से माघ शुक्ल एकादशी तक होता है।
शास्त्रों में कुंभ पर्व में स्नान का फल मुक्ति-भक्ति प्रदायक माना गया है। इतना ही नहीं बल्कि समस्त प्रकार के पापों और तापों को शमन करने वाला बताया गया है। कहा गया है-
तान्येति यः पुमान् योगे सोsमृतत्वाय कल्पते।
देवा नमन्ति तत्र स्थान यथारंकः धनाधियात।।
इतना ही नहीं, शास्त्रों में उल्लेख है कि
अश्वमेध, सहस्त्राणि, वाजपेय-शतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमे, कुंभ-स्नानेन् तत्फलम्।। (विष्णुपुराण)
सहस्त्रं कार्तिके स्नानं, माघ स्नानं शतानि च।
वैशाखे नर्मदा कोदयां, कुंभ स्नाने हि तत्फलम्।। (स्कंदपुराण)
अर्थात हजार अश्वमेध तथा सौ वाजपेय यज्ञ करने, लाख बार भूमि की प्रदक्षिणा करने, कार्तिक में हजार बार गंगा स्नान करने, माघ में सौ बार और बैसाख में करोड़ बार नर्मदा स्नान का जो फल प्राप्त होता है, वह महाकुंभ पर्व पर एक बार स्नान करने पर ही सुलभ हो जाता है। इसी तरह कुंभ पर्व की स्थिरता और शाश्वतता के संबंध में विष्णुपुराण का मत है-
यावद भूमण्डलं धत्ते नगा नागाश्च सागराः।
तावातिष्ठीति जारूत्याममृतं कस्तेन कलगोद्भगम।।
अर्थात जब तक पृथ्वी को पूर्वत नाग अथवा दिग्गज (वीर) तथा समुद्र धारण करते रहेंगे। तब तक गंगा जी में कुंभ से उत्पन्न अमृत विद्यमान होगा।
मैग्लीन के मुताबिक हरिद्वार कुंभ में पंडे-पुरोहितों द्वारा तीर्थकर वसूली और हथियार लेकर चलने का अधिकार छीन लिए जाने और 1857 के गदर के चलते इलाहाबाद में प्रचलित स्थानीय माघ मेले पर रोक लगाने के बाद इलाहाबाद में कुंभ मेले को मान्यता दिलाए जाने के प्रयास शुरू ब्रिटिश सरकार के बढ़ते दमन से बचने और अधिकारियों को स्थानीय त्यौहार के पीछे एक धार्मिक मान्यता होने का विश्वास दिलाने के लिए पहले से प्रचलित स्नान पर्व माघ मेला पौराणिक कथाओं को थोप दिया गया। मैग्लीन कहती हैं कि एक बार तो पेंसिलवेनिया के एक मिशनरी ने यह दिखाने के लिए एक नागा साधु पर पथराव तक किया कि उन्हें भी दूसरे आदमियों की तरह पीड़ा महसूस होती है। जून 1857 में यह अंतर्विरोध अपने चरम पर पहुंच गया जब लगभग 1500 परिवारों ने गदर में भाग लिया और गिरजाघरों पर आक्रमण किया। गदर से पहले भी विद्रोह फैलाने में इन पक्षों की अहम भूमिका थी। विद्रोह के बाद कुख्यात कलेक्टर कर्नल नील ने पंडों का जबर्दस्त दमन किया।
कई को फाँसी पर लटका दिया गया। कई लोगों ने जान बचाने के लिए जंगलों में शरण ली। उनकी जमीनें ज़ब्त कर ली गईं। मैग्लीन को लगता है कि इन भूखंडों में से ज्यादातर आज मेले के दौरान के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। गदर के अगले वर्ष माघ मेला नहीं हुआ। प्रयाग के पंडों ने सन 1860 में एक सभा का गठन कर उसे ब्रिटिश सरकार से पंजीकृत करवा लिया तथा कर्मकांड करवाने और दान स्वीकार करने के अधिकार को मान्यता दिला दी। मैग्लीन कहती हैं कि यह स्पष्ट नहीं है कि कब उन्होंने हर 12वीं वर्ष लगने वाले मेलों का नाम बदलकर कुंभ मेला कर दिया। मैग्लीन को कुंभ मेले का पहला उल्लेख 1868 की एक सफाई व्यवस्था रिपोर्ट में मिला। इलाहाबाद के मजिस्ट्रेट रिकेटस ने इसमें 1871 के कुंभ मेला का उल्लेख किया था। मैग्लीन मानती हैं कि माघ मेले को कुंभ मेले में बदलने के लिए प्रयाग के पंडों ने अखाड़ों का भी सहयोग लिया होगा। इस आधार पर इलाहाबाद में कुंभ आयोजित करने का प्रयास किया गया होगा कि साधु प्रत्येक कुंभ में हरिद्वार जाते हुए इलाहाबाद में रहते थे। वैसे व्यापारिक फायदे के हिसाब से हरिद्वार मेले के लिए कहीं ज्यादा उपयुक्त था। लेकिन कामा मैग्लीन और अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा सरीखे कुछ लोगों के शोध प्रबंध के आधार पर यह मान लेना भी उचित नहीं होगा क्योंकि खुद कामा मैग्लीन ने यह नहीं लिखा है कि यह उन्हें कहां से पता चला?
सुदीर्घ परंपरा ही प्रमाण है
स्नान की तिथियां
मकर संक्रांति | 14 जनवरी, 2013 |
पौष पूर्णिमा | 27 जनवरी, 2013 |
मौनी अमावस्या | 10 फरवरी, 2013 |
बसंत पंचमी | 15 फरवरी,2013 |
माघी पूर्णिमा | 25 फरवरी, 2013 |
महाशिवरात्रि | 10 मार्च, 2013 |
कुंभ मेले में शाही स्नान की तिथियां
प्रथम शाही स्नान | मकर संक्राति | 14जनवरी, 2013 |
द्वीतीय शाही स्नान | मौनी अमवस्या | 10फरवरी, 2013 |
तृतीय शाही स्नान | बसंत पंचमी | 15फरवरी, 2013 |
कल्पवास
कुंभ मेले के दौरान श्रद्धालुओं की काफी बड़ी तादाद रेत पर बसाई गई नगरी में निवास करते हुए कल्पवास का पुण्य कमाने वालों की भी होती है। रोजाना तीन बार गंगा स्नान और भगवत भजन करने को कल्पवास कहा गया है। यह पौष पूर्णिमा से प्रारंभ होकर माघ पूर्णिमा को खत्म होता है। अथवा मकर संक्रांति से शुरू होकर कुंभ की संक्रांति तक होता है। अथवा पौष एकादशी से माघ शुक्ल एकादशी तक होता है।
स्नान की महत्ता
शास्त्रों में कुंभ पर्व में स्नान का फल मुक्ति-भक्ति प्रदायक माना गया है। इतना ही नहीं बल्कि समस्त प्रकार के पापों और तापों को शमन करने वाला बताया गया है। कहा गया है-
तान्येति यः पुमान् योगे सोsमृतत्वाय कल्पते।
देवा नमन्ति तत्र स्थान यथारंकः धनाधियात।।
इतना ही नहीं, शास्त्रों में उल्लेख है कि
अश्वमेध, सहस्त्राणि, वाजपेय-शतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमे, कुंभ-स्नानेन् तत्फलम्।। (विष्णुपुराण)
सहस्त्रं कार्तिके स्नानं, माघ स्नानं शतानि च।
वैशाखे नर्मदा कोदयां, कुंभ स्नाने हि तत्फलम्।। (स्कंदपुराण)
अर्थात हजार अश्वमेध तथा सौ वाजपेय यज्ञ करने, लाख बार भूमि की प्रदक्षिणा करने, कार्तिक में हजार बार गंगा स्नान करने, माघ में सौ बार और बैसाख में करोड़ बार नर्मदा स्नान का जो फल प्राप्त होता है, वह महाकुंभ पर्व पर एक बार स्नान करने पर ही सुलभ हो जाता है। इसी तरह कुंभ पर्व की स्थिरता और शाश्वतता के संबंध में विष्णुपुराण का मत है-
यावद भूमण्डलं धत्ते नगा नागाश्च सागराः।
तावातिष्ठीति जारूत्याममृतं कस्तेन कलगोद्भगम।।
अर्थात जब तक पृथ्वी को पूर्वत नाग अथवा दिग्गज (वीर) तथा समुद्र धारण करते रहेंगे। तब तक गंगा जी में कुंभ से उत्पन्न अमृत विद्यमान होगा।
Path Alias
/articles/adhaarahaina-haai-kaunbha-kai-taithaiyaon-para-vaivaada
Post By: Hindi