जिस शहर के पास छह तालाब हों और अपनी नदी हो, तो लगता यही है कि वह बड़ा पानीदार होगा। लेकिन अपनी जल विरासतों की उपेक्षा करते हुए इतनी दुर्गति कर ली है कि यही शहर आज बाल्टी–बाल्टी पानी को मोहताज है। दो तालाबों से मिलने वाले थोड़े से पानी पर ही यहाँ की आबादी को निर्भर रहना पड़ता है। बीते दस सालों में हालात बिगड़ते ही जा रहे हैं, कई बार सात दिनों में एक बार पानी मिलता है। लेकिन यहाँ लोगों ने अब भी जल संरचनाओं के प्रति कोई सुध नहीं ली है। वे अब भी पानी के लिये सरकार की तरफ ही देख रहे हैं।
जल संकट का यह दारुण दृश्य है मध्यप्रदेश के सीमावर्ती आदिवासी जिला मुख्यालय झाबुआ का। झाबुआ की पहचान इसकी उपजाऊ काली मिट्टी से है जो सफेद सोना यानी कपास की फसल के लिये बहुत मुफीद है। यहाँ की जमीन जितनी उपजाऊ है, गरीबी और भूखमरी उतनी ही ज़्यादा है। अकेले झाबुआ शहर में छोटे–बड़े आधा दर्जन तालाब हैं और इसके पास से ही अनास नदी गुजरती है लेकिन यहाँ के लोगों ने कभी अपने पानी की परवाह नहीं की। यही वजह है कि वे आज जबर्दस्त जल संकट का सामना कर रहे हैं। बीते दस सालों से लगातार हालत बिगड़ती जा रही है, लेकिन शहर के लोग अपने जलस्रोतों की साफ़–सफाई के प्रति अब भी गंभीर नहीं है। नदी में आधी से ज़्यादा गाद जम चुकी है, तालाब गंदगी से पटे पड़े हैं।
यहाँ की प्यास बुझाने के लिये फिलहाल शहर से करीब 25 किमी दूर दो बड़े तालाबों से पानी उलीचकर पाइपलाइन से अनास नदी में शहर तक लाया जाता है और वहाँ से फिल्टर होकर पानी घर–घर पहुँचता है। आप आश्चर्य करेंगे कि यह व्यवस्था भी 63 साल पुरानी है। 1954 में पहले राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने इसका शुभारंभ किया था। तब से अब तक इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ और इसी के जरिए आज भी शहर के लोगों को पानी पिलाया जा रहा है। रामा विकासखंड के पारा क्षेत्र के धनोई तालाब और राणापुर विकासखंड के गुलाबपुरा तालाब की शहर से दूरी करीब 25 किमी है। यहाँ से करीब 12-15 लाख रूपये खर्च कर हर साल के लिये पानी खरीदना पड़ता है।
बीते साल यहाँ नए सिरे से नल-जल योजना के लिये 44 करोड़ की लागत से नई पाइपलाइन और बैराज बनाने का काम शुरू हुआ है लेकिन अभी इसे पूरा होने में दो से तीन साल का वक्त लगेगा। तब तक झाबुआ को इसी तरह पानी की त्रासदी भुगतना पड़ेगी। 63 साल पहले अनास नदी का जो स्टाप डेम बनाया गया है, उसमें आधी से ज़्यादा गाद भर चुकी है। 70 हजार वर्ग मीटर जलग्रहण क्षेत्र वाले इस बाँध की क्षमता 12 एमसीएफटी है लेकिन गाद भर जाने से महज 7.5 एमसीएफटी पानी ही संग्रहित हो पाता है। पुरानी संरचना होने से सीपेज भी होता है। इस पानी को शहर में जल प्रदाय से पहले फिल्टर करना भी बड़ी मशक्कत है। लोग बताते हैं कि इसके बावजूद भी कई बार पानी ठीक तरीके से शुद्ध नहीं हो पाता है।
धनोई तालाब की कुल क्षमता 6.67 मिलियन घन मीटर है। इससे शहर को साल में तीन बार पानी दिया जाता है। एक बार में करीब तीन लाख रूपये का खर्चा कर 20 मिलियन क्यूबिक फीट पानी खरीदा जाता है। इसी तरह गुलाबपुरा की क्षमता 3.79 मिलियन घन मीटर से भी पानी खरीदा जाता है। इसके अलावा पंपावर्ती बाँध और बोराली तालाब से भी स्थानीय निकाय पानी जुटाती है। अब तक इन तालाबों से दो बार जनवरी और मार्च में पानी लिया जा चुका है। यानी अब बारिश आने तक तीन महीनों में शहर को महज दो बार पानी ही और मिल सकता है। उसके बाद पानी का क्या होगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।
उधर शहर के तालाबों की स्थिति बहुत बुरी है। इनका उपयोग पीने के पानी तो दूर, निस्तारी कामों के लिये भी नहीं हो पा रहा है। देखरेख नहीं होने और इनके प्रति उपेक्षित रवैये से ये साल दर साल गंदगी से पटते जा रहे हैं। उधर जलग्रहण क्षेत्र कम होने से बारिश का कम ही पानी ये सहेज पाते हैं। कुछ तालाबों का उपयोग तो ईंट भट्टों में हो रहा है। बहादुर सागर तालाब की क्षमता 10 एमसीएफटी है लेकिन गंदगी और ईंट भट्टों की वजह से यह लगातार कम होती जा रही है। इससे शहर के अधिकांश हिस्से में जलस्तर गिरने से कई हैंडपंप और बोरिंग भी सूख जाते हैं। इसी तरह इसके ओवरफ्लो से भरने वाला 5 एमसीएफटी क्षमता वाले मेहताजी तालाब का पानी बिना अनुमति निर्माण कार्यों के लिये टैंकरों से उलीचा जाता है। वहीं इसमें जलकुम्भी भी पानी चूस रही है।
बड़ा तालाब पहले ही खत्म होने की कगार पर है। 8 एमसीएफटी क्षमता वाला छोटा तालाब का पानी कुछ बस्तियों के सीवरेज में मिल जाने से प्रदूषित हो रहा है। करीब साढ़े चार साल पहले इसे रोकने और तालाब को साफ़ करने की कोशिश भी की गई लेकिन अब फिर वही स्थिति है। पानी इतना खराब है कि अब मवेशी तक नहीं पी पाते। बड़ी संख्या में अतिक्रमण ने भी इसका जलग्रहण क्षेत्र कम कर दिया है। पहले पहाड़ी का पानी भी आता था लेकिन अब वह भी नहीं बची। हालाँकि इसमें पानी भरा होने से आस-पास का जलस्तर बना रहता है। उदयपुरिया तालाब की भी कमोबेश यही हालत है। 12 एमसीएफटी क्षमता के इस तालाब के पानी का उपयोग धड़ल्ले से सिंचाई, ईंट भट्टों और वाहन धोने में किया जा रहा है। कृषि विज्ञान केंद्र तालाब में भी अब आधे से कम पानी ही बचा है। इसके पानी का उपयोग भी कपड़े धोने और खेतों में किया जा रहा है।
शहर में जल संकट की स्थिति पर यहाँ बीते सात सालों से हाथीपावा पहाड़ी पर हजारों आदिवासियों के सामूहिक श्रमदान (हलमा) से बारिश का पानी रोकने के लिये हजारों जल संरचनाएँ बनाने का बीड़ा उठाने वाले महेश शर्मा खासे व्यथित हैं। वे कहते हैं– 'शहर के लोग अपने पानी के लिये भी सरकारों का मुँह देखते हैं, यह ठीक नहीं है। हमें पानी की दरकार है तो कुछ परिश्रम हमें भी करना चाहिए। हमें अपने जल संसाधनों के प्रति जागरूक होकर उनकी साफ–सफाई करने और प्रदूषित होने से बचाने की सामूहिक मुहिम शुरू करनी होगी। हलमा के लिये हर साल हजारों आदिवासी अपने गाँवों से चलकर यहाँ पहुँचते हैं लेकिन पचास हजार की आबादी वाले शहर में से दस हजार लोग भी पानी रोकने के लिये किए जा रहे हलमा में श्रमदान के लिये आगे नहीं आते। गैंती–फावड़ा चलाना तो दूर, उनके समर्थन में खड़े होने भी वे नहीं आते। एक तरफ गाँव के अपढ़, कम पढ़े–लिखे आदिवासी शहर के पानी की चिंता में दर्जनों किमी दूर से यहाँ मेहनत करने आते हैं लेकिन शहर के लोग यहाँ खड़े रहना भी अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। अभी भी शहर के लिये पीने का पानी ग्रामीण क्षेत्र के दो तालाबों से ही आ रहा है। सरकार तीस आदिवासी गाँवों का हक मारकर शहर की प्यास बुझा रही है। लेकिन वह भी कब तक दम भरेगा। ज़रूरी है अपने पानी के लिये खुद समाज खड़ा होकर उसकी चिंता करे।'
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