मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के ग्रामीण इलाके में इस बार आदिवासी खुद सामूहिक श्रमदान की अपनी परम्परा हलमा के माध्यम से 11 तालाब बनाएँगे वहीं चार जंगलों को भी संरक्षित कर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे। इससे पहले 5 मार्च को झाबुआ शहर के पास हाथीपावा पहाड़ी पर करीब 15 हजार आदिवासियों ने महज चार घंटे में 20 हजार से ज़्यादा जल संरचनाएँ निर्मित की।
यह आदिवासी पीढ़ियों की पुरानी परम्परा है। इसमें पानी और प्रकृति के कामों के लिये हजारों लोग एक साथ जुटकर सामूहिक श्रमदान कर कुछ ही घंटों में काम पूरा करते हैं। इसमें कोई किसी से एक पैसा नहीं लेता है। बस इतनी-सी शर्त होती है कि जब उन्हें कोई काम होगा तो वे भी इसी तरह श्रमदान कर मदद करेंगे। इन्हें कम पढ़ा–लिखा मानने वालों को आदिवासियों में आपसी सहयोग की सदियों पुरानी यह परम्परा हलमा देखनी चाहिए। अब तक हलमा से सत्तर हजार से ज़्यादा जल संरचनाएँ बन चुकी हैं। इसके अलावा इलाके के कई गाँवों में इससे तालाब और अन्य जल संरचनाएँ भी बनाई हैं। इसमें किसी भी काम के लिये बुलाने पर परिवार एक-दूसरे की सहायता करते हैं। इसके बदले कुछ लेने-देने का रिवाज नहीं है। बस जब दूसरा बुलाए तो उसकी मदद के लिये मदद लेने वाले को भी तैयार रहना चाहिए। ये सहायता आर्थिक तौर पर नहीं होती, बल्कि श्रम या रक्षा के तौर पर होती है। शिवगंगा अभियान ने इस पुरानी परम्परा को धरती की रक्षा करने और ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिये बेहतर उपयोग किया है।
हलमा के आयोजक महेश शर्मा के मुताबिक हलमा का मुख्य उद्देश्य यही है कि लोग प्रकृति और पानी के काम को आगे बढ़ाएँ। पाँच मार्च को हलमा के दौरान करीब साढ़े चार सौ गाँवों के बीस हजार से ज़्यादा आदिवासी यहाँ जुटे थे। इन सबने यहाँ बैठकर चर्चा के दौरान यह निर्णय लिया है कि इस बार अभियान को और आगे बढ़ाते हुए अब इसे ग्रामीण इलाकों तक भी ले जाया जाएगा। इस बार काम करने के लिये हमने जिले के 11 आदिवासी गाँवों का चयन कर वहाँ जमीन भी देख ली है। अगले महीने अप्रैल में इन जगहों पर एक साथ हजारों आदिवासी युवा, बुजुर्ग, औरतें और बच्चे सब जुटेंगे और एक ही दिन में सामूहिक श्रम (हलमा) के जरिए तालाबों को आकार देंगे।
वे बताते हैं कि आदिवासियों ने यह भी निर्णय लिया है कि उनके गाँवों के नजदीक के चार बड़े जंगलों को संरक्षित कर इनमें लकड़ी की कटाई को पूरी तरह से प्रतिबंधित करेंगे। साथ ही नए पौधे भी विकसित करेंगे। आदिवासियों में मान्यता है कि यदि किसी जंगल को माता का जंगल मान लिया जाए तो कोई भी आदिवासी परिवार यहाँ से कभी लकड़ी नहीं काटता बल्कि यदि कोई भी किसी तरह से इस जंगल को नुकसान पहुँचाने की कोशिश करता है तो आदिवासी समाज इसका विरोध करता है। उन्होंने बताया कि जंगल बचने का सीधा फायदा इलाके के पर्यावरण पर पड़ेगा। इससे पर्यावरण और बारिश अच्छी हो सकेगी तथा पेड़ों की जड़ों के जरिए भूजल भंडार में भी बढ़ोतरी हो सकेगी।
हलमा करने यहाँ पहुँचे गाँव घाटिया के आदिवासी केगू बिलवाल का कहना है कि हमें यहाँ से प्रेरणा मिलती है और हम यहाँ से जाकर अपने गाँवों में जल संरचनाओं को पुनर्जीवित करने के लिये साथ मिलकर काम करते हैं। यहाँ हमें एक प्रेरणा मिलती है। गाँवों में स्थिति बदली भी है।
बीते सात सालों से लगातार झाबुआ की इस पहाड़ी पर हर साल हलमा करते हुए हजारों कंटूर ट्रेंच बनाए गए हैं। 2010 से वे लगातार यहाँ हर साल शिवगंगा अभियान में काम करते रहे हैं। अब तक यहाँ करीब सत्तर हजार से ज़्यादा कंटूर ट्रेंच बन चुकी हैं। हर साल हलमा के दौरान बीते सालों में बनाई गई पुरानी ट्रेंच की साफ़–सफाई तथा उसकी गाद निकाली जाती है। इस सबका फायदा भी इस पहाड़ी पर देखने में आ रहा है। बीते सालों में यहाँ हुए काम का असर अब साफ़ दिखने लगा है। कई सालों से बंजर हो चुकी हाथीपावा पहाड़ी पर हरियाली होने लगी है। इससे बारिश में इस पहाड़ी पर भी हरी घास और छोटे पौधे लहलहाने लगे हैं। अब इलाके में भूजल स्तर भी बढ़ेगा और ग्लोबल वार्मिंग से भी राहत हो सकेगी।
इंदौर से करीब डेढ़ सौ किमी दूर झाबुआ के कॉलेज मैदान में 4 मार्च की दोपहर से ही हजारों आदिवासियों के पहुँचने का सिलसिला शुरू हो गया था। झाबुआ की सडकों पर हलमा करने आए आदिवासियों ने नाचते-गाते हुए गैंती–फावड़े कंधों पर रखे करीब दो किमी लंबी गैंती यात्रा निकाली। सभी पारम्परिक परिधान में आए थे। शाम साढ़े 4 बजे झाबुआ के कॉलेज ग्राउंड से गैंती यात्रा शुरू हुई। पुरुष कंधों पर गैंती और फावड़े लेकर चले तो महिलाओं ने सिर पर तगारियाँ उठा रखी थीं। कई साथ में ढोल-मांदल लेकर आए और नाचते-गाते निकले। कुछ युवतियों ने कमर पर घुंघरू भी बाँधे हुए थे और नृत्य करती चल रहीं थीं। गैंती यात्रा कॉलेज रोड से राजवाड़ा चौक, बस स्टैंड होती हुई मैन-रोड, आजाद चौक होते हुए फिर से कॉलेज ग्राउंड पहुँची।
गैंती यात्रा के समापन पर आदिवासियों ने गैंती-तगारी और फावड़े पकड़े हाथ ऊपर उठाए और आपसी सहयोग की परम्परा को निभाने का प्रण लिया। गौरतलब है कि आदिवासी अपनी परम्परा के मुताबिक हर साल अपने-अपने गाँव में लगातार इस तरह मिलकर काम करने की परम्परा हलमा निभाते आ रहे हैं। लेकिन साल में एक बार वह शहर के लोगों की मदद के लिये निःस्वार्थ भाव से खुद के खर्च और खुद की व्यवस्थाओं से आते हैं। दो दिन तक वह यहाँ रहते हैं और इसमें से एक दिन कड़ा श्रमदान कर शहर के लिये पानी की व्यवस्था करते हैं। लक्ष्य ये है कि आने वाले समय में बंजर हो चुकी हाथीपावा की पहाड़ियों पर जंगल लहलहाए। आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें इसके लिये याद रखें।
यहाँ 11 अलग–अलग रंगों के झंडे बनाए गए थे और हर झंडे में डेढ़ हजार तक आदिवासी भाई और बहिनें शामिल थीं। इन्हें अलग–अलग जगह तैनात किया गया था। इन्होंने लक्ष्य से ज़्यादा संरचनाएँ बनाई हैं। इसके लिये व्यापक तौर पर तैयारियाँ की गई थी। अलग-अलग क्षेत्रों के आदिवासियों को अलग-अलग रंग के कार्ड और बैच दिए गए। इनके वाहनों पर भी उसी रंग का झंडा था। हाथीपावा पहाड़ी पर जिस जगह उन्हें श्रमदान किया, वहाँ भी उनके ग्रुप के रंग के झंडे लगे थे। इनमें हजारों औरतें और बच्चे भी शामिल थे। 5 मार्च की सुबह 6 से 10 बजे तक केवल चार घंटों में उन्होंने इस बंजर पहाड़ी की तस्वीर ही बदल डाली। झाबुआ में एक बार फिर आज आदिवासियों ने अपने श्रम की ताकत और कमाल से सबको अचंभित कर दिया। हाथीपावा पहाड़ी पर एक साथ हजारों आदिवासियों को अपने घर से लाए तगारी, गैंती–फावड़ों के साथ पानी सहेजने के लिये पसीना बहाते देखना सुखद आश्चर्य से भर देता है।
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