वाटर इज क्लाइमेट एंड क्लाइमेट इज वॉटर की बात आज पूरी दुनिया मान रही है। बिना जल के जलवायु की बातचीत संभव ही नहीं है। दुनिया ने पहले तो इन दोनों के रिश्ते को मानने से इंकार किया, किंतु नवंबर-दिसंबर 2015 में पैरिस में दुनियाभर के देश इकट्ठा हुए तो उनकी चिंता इन्हीं दोनों के इर्द-गिर्द घूमती रही। पेरिस समझौते के बाद संयुक्त राष्ट्र ने पूरी दुनिया की सरकारों को पानी और कृषि की जोड़कर जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और उन्मूलन हेतु राष्ट्रीय जल कार्यक्रम बनाने का सुझाव दिया। आज वे भी जान चुके हैं कि जल और वायु से ही संभव है हमारा जीवन। यही वजह है कि इस वर्ष विश्व जल दिवस की थीम रखी गई। 'जल और जलवायु परिवर्तन '
सृष्टि का आधार है जल
दुनिया जल और जलवायु के रिश्ते की बात को थोड़ा देर से समझ पाई है लेकिन भारत की परंपरा में इस रिश्ते की बात मौजूद रही है। भारत के ज्ञानतंत्र में जिसे हम 'भगवान' कहते हैं, यह पंच महाभूतों से मिलकर बना है। 'भ' से भूमि, 'ग' से गगन, 'व' से वायु, 'अ' से अग्नि और 'न' से नीर। इनमें नीर बाकी चारों महाभूतों को जोड़ने का काम करता है। नीर यानी जल के बिना कोई जीवन संभव ही नहीं है। जीवन को चलाने के लिए जो गैसें चाहिए वे भी जल के बिना नहीं बनतीं। यह बताता है कि जल हमारी सृष्टि का आधार है।
जल से है जलवायु
धरती पर जीवन को संभव बनाने में भी जल की अहम भूमिका रही है। ब्रह्मांड की अग्नि को पानी ने ही ठंडा किया और मिट्टी बनने की शुरुआत हुई। इस तरह पृथ्वी पर हमारे जीवन की शुरुआत ही पानी से होती है। पहले कुछ वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन को सिर्फ गैसों के असंतुलन से ही जोड़कर देख रहे थे। वे सिर्फ ओजोन परत के हास की बात कर रहे थे लेकिन अब उन्होंने भी स्वीकार किया है कि जल से जलवायु का गहरा रिश्ता है।
संतुलन से बनती जलवायु
पानी के लिए काम करते हुए शुरू के 15-20 वर्ष में तो मुझे 'वॉटर इज क्लाइमेट एंड क्लाइमेट इज बॉटर' वाली बात समझ नहीं आई लेकिन 27-28 साल के बाद यह बात बखूबी समझ आ गई। मैंने जाना कि यह जो वर्षा का चक्र है वह इस ग्रह पर चार तरह की गर्मी से संपन्न होता है। सूरज से आने वाली लाल गर्मी समुद्र के खारे पानी को मीठे पानी में बदलती है। यह गर्मी समुद्री जल का वाष्पीकरण करके बादल बनाती है। बादल नीली गर्मी है। यह नीली गर्मी यानी बादल हमेशा हरी गर्मी यानी हरियाली की तरफ जाते हैं, क्योंकि वहां नमी और ऑक्सीजन होता है। नीली और हरी गर्मी मिलकर बारिश करती है। बारिश का यह पानी बहकर जैसे ही मिट्टी में मिलता है वह जमीन पर अंकुरण का कारण बनता है। वनस्पति का उगना पीली गर्मी है। यह पीली गर्मी हमारे ग्रह को जितना भी पोषण चाहिए, वह संभव करती है। इनमें जो हरी गर्मी है, वह मौसम के मिजाज को सुधारती है, इसे ही हम जलवायु कहते हैं। मगरयाद रहे कि इन चारों गर्मियों के संतुलन से ही कि जलवायु ठीक रहती है।
मर रहा आंखों का पानी
जल ठीक रहे, जलवायु ठीक रहे तो ग्रह ठीक रहता है। भारत के लोग नीर, नदी और नारी का सम्मान करके नारायण बने थे। वे दुनिया को सिखाने के लायक थे। कभी भारत की महिलाएं भी जलवायु परिवर्तन के गीत गाती थीं। वे भी जलवायु को जानती और समझती थीं। कभी भारत में जल के बारे में छह 'आर' थे, 'रिस्पेक्ट ऑफ वॉटर', 'रोडयूज न्यूज ऑफ वॉटर', 'रिट्रीट-रिसाइकल-रीयूज वॉटर और रीजनरेट प्लेनेट बाइ वॉटर'। जबकि काही दुनिया में जल के सिर्फ तीन अर्थ रहे है, रिट्रीट,रीसाइकल व रीयूज। ती पानी के बारे में हम दुनिया की बहुत कुछ सिखाने वालों में से एक थे, इसलिए हम पानीदार थे। पानी को हम 'लाभ' की तरह नहीं बल्कि 'शुभ' की तरह देखते थे। बीते कुछ वर्षों में पानी के साथ हमारा रिश्ता बुरी तरह बदला है। हमारी आंखों का पानी सूखा और फिर पीछे हमारे कुएं-तालाब भी सूखने लगे। पानी को व्यापार की वस्तु बना दिया गया। जब जीवन से जुड़ी चीजों का व्यापार होने लगे तो उनसे 'शुभ' गायब हो जाता है, वे केवल लाभ के लिए होकर रह जाती है। हमें इसी रिश्ते को फिर से जीवित करना होगा। सोचिए, प्रकृति की कितनी सुंदर व्यवस्था थी। बादल हमारे लिए पानी लेकर आता है। जीवन देता है लेकिन बादल जो जीवन लेकर आता है उसे हम सहेजते नहीं है, अमृत को गंदे नालों में बह जाने देते हैं। जिस बादल के पवित्र जल से जीवन बना है, वह गंदे नाले में बह जाता है।
आधुनिक शिक्षा भी दोषी
इसका सबसे बड़ा दोष आधुनिक शिक्षा को भी जाता है। आधुनिक शिक्षा में हम इंजीनियर और तकनीशियन तैयार कर रहे हैं, जिन्होंने सिर्फ शोषण की तकनीक पढ़ी है, वे पोषण नहीं जानते। मैनेजमेंट की शिक्षा ने हमें चीजों का प्रबंधन करना सिखाया है कि किस तरह साझी सामुदायिक संपत्ति पर अतिक्रमण करके उसका प्रबंधन करना है। सामाजिक विज्ञान की शिक्षा भी प्रकृति से सिर्फ लेने की बात करती है। हम प्रकृति से जुड़े 'पुण्य' और 'सुख' को भूल गए। भारत के मूल ज्ञानतंत्र में जल हमारी भाषा और नदियां वाणी थीं। इसलिए हम पर जलवायु परिवर्तन की आपदा नहीं आई। जब से हम जल की भाषा और नदी की बोली भूल गए, तब से जलवायु परिवर्तन की आपदा आने लगी। यदि हम जल दिवस मनाना चाहते हैं तो पढ़ाई को पोषण की पढ़ाई में बदलना होगा। बादल तो आते हैं, हमें ही उनकी कद्र करनी होगी।
मैं पिछले छह वर्ष से दुनिया के अफ्रीकन भूभाग और मध्य पश्चिमी एशिया में अध्ययन कर रहा हूं। वहां के लोग बेपानी होकर जब यूरोप में जाते हैं तो उन्हें जलवायु परिवर्तन शरणार्थी कहते हैं। हमारे देश में बाढ़ और सूखा दोनों बढ़ रहे है। इस संकट से यदि बचना है तो हमें जलवायु परिवर्तन अनुकूलन व उन्मूलन के काम करने होंगे। इसमें वर्षा के जल को संग्रहित करैना, मिट्टी और नमी को बचाकर रखना और हरियाली बढ़ाना शामिल हैं। जब हमें बुखार होता है तो हम सिर पर पानी की पट्टी रखते हैं, दवाएं खाते हैं। इस समय धरती को भी बुखार हो रहा है तो उसके सिर पर तालाबरूपी पानी की पट्टी रखनी होगी और हरियाली ही धरती की दवा है। यही जल और जलवायु के विषय पर जल दिवस 2020 का सच्चा संकल्प साबित होगा।
स्रोत -झंकार दैनिक जागरण, 02 मार्च 2020
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