विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष
पम्पावती नदी में भी अब वो बांकपन नहीं रहा, जिसके लिये यह नदी पहचानी जाती रही है। बुजुर्ग बताते हैं कि कभी इस नदी का पानी साल भर उपयोग में आता रहता था लेकिन अब तो थोड़े ही दिनों में पानी खत्म होने लगता है। बारिश गुजरते ही यह नदी सूखने लगती है और कहीं–कहीं छोटे पोखरों में बदल जाती है। यह नदी पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी है और जगह–जगह इसमें गन्दे नाले आकर मिलते रहते हैं। यही वजह है कि इसका पानी अब पीने लायक भी नहीं बचा है। लोग जगह–जगह इनमें कूड़ा डालते नजर आते हैं। कई जगह तो नदी क्षेत्र ट्रेचिंग ग्राउंड में तब्दील हो गया है। कल्पना कीजिए कि जिस पानीदार जिले में नर्मदा जैसी बड़ी नदी सहित कोई चौबीस नदियाँ बहती रही हो, वहाँ तो पानी की कभी कोई कमी हो ही नहीं सकती। लेकिन बीते 40 सालों में ही नए जमाने के चलन और नदियों के निरादर से यहाँ भी अब ऐसे हालात बन गए हैं कि लोग बूँद–बूँद पानी को तरसते नजर आते हैं।
बारिश खत्म होते–होते ही यहाँ पानी के लिये हाहाकार होना शुरू हो जाता है और गर्मी तो यहाँ के लोगों के लिये जैसे त्राहि–त्राहि ही गुजरती है। यहाँ हर साल सूखे के से हालात बनते हैं और हर साल बड़ी तादाद में यहाँ की आदिवासी आबादी को पानी के अभाव में रोजी–रोटी के लिये पलायन भी करना पड़ता है।
यह हकीक़त है गुजरात की सीमा से सटे मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले की। कभी यह जिला इतना पानीदार हुआ करता था कि आसपास के जिलों के लोगों को इसकी किस्मत से रश्क हुआ करता था लेकिन यह अब बीते दिनों का किस्सा बनकर कहीं किताबों में दर्ज हो चुका है और यहाँ के लोग भी बाक़ी जिलों की तरह ही बाल्टी–बाल्टी पानी को मोहताज हो चले हैं।
जिले में क्षेत्रफल के अनुपात में खेती का रकबा उतना नहीं है, जितना कि होना चाहिये। नदियाँ बुरी तरह प्रदूषित हैं और उनमें पानी लगातार घट रहा है। अब तो जैसे नाम भर की ही नदियाँ बची हैं। नदियों के रास्ते में अतिक्रमण और इसके पानी के व्यावसायिक उपयोग के चलन ने तो इनकी धाराएँ ही रोक दी हैं। हालात इतने बुरे हैं कि अब यहाँ गहरीकरण और शुद्धिकरण जैसे प्रयास भी इन्हें साफ़ करने में कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं।
झाबुआ जिले के बड़े हिस्से से गुजरने वाली इन नदियों के वैभव की कहानी आप भी सुनेंगे तो हैरत में पड़ जाएँगे लेकिन यही सच भी है। झाबुआ जिले के प्राकृतिक नक्शे पर नजर दौड़ाएँ तो यहाँ से नर्मदा जैसी बड़ी नदी तो गुजरती ही है, इसके अलावा माही, पद्मावती, पम्पावती, अनास, सापन, हथनी और सक्कड़ भी बहती हैं।
ये नदियाँ झाबुआ जिले के एक बड़े हिस्से से होकर गुजरती है। यहाँ 18 बड़ी नदियाँ और 6 उसकी सहायक नदियाँ इस तरह कुल 24 नदियाँ बहती हैं। कभी यहाँ की अधिकांश नदियाँ सदानीरा हुआ करती थीं और उनमें करीब–करीब पूरे साल ही पानी भरा रहा करता था। लोग इनके पानी का इस्तेमाल पीने और रोजमर्रा के काम के साथ ही खेती के लिये भी किया करते थे। इनकी वजह से ही यहाँ के कुओं–बावड़ियों में पूरे साल पानी लबालब भरा रहता था।
गर्मियों के दिनों में भी इन नदियों में नीले पानी की लहरें ऐसी उठती कि देखने वाले देखते ही रह जाते। इलाके के बुजुर्ग इनके किस्से सुनाते हुए आज भी उन दिनों की याद में खो जाते हैं और स्मृतियों की नदी में बचपन की तरह छपाक–छपाक करने लगते हैं। वे बताते हैं कि किस तरह इन नदियों के किनारे वे पले-बढ़े और इनमें नहाते रहते थे।
इनसे जुड़े कई किस्से उनके जेहन में अब भी हैं। कभी इनके किनारों पर मेले भरते थे, तीज–त्योहार मनाए जाते थे। सारा गाँव उमड़ पड़ता था इनके किनारों पर। गाँव–गाँव इनके किनारों पर राजाओं और तब के समाज के बनाए हुए मठ–मन्दिर हुआ करते थे।
नर्मदा नदी पर जगह–जगह बाँध बन गए और अब उसका प्रवाह यहाँ तक आते–आते वैसा नहीं रह पाता, जैसा पहले के दिनों में हुआ करता था। सरदार सरोवर और इन्दिरा सागर बनने के बाद यहाँ नदी नदी की तरह बची ही नहीं, लोग बताते हैं कि अब वह सागर की तरह नजर आती है विशालकाय। नदी की तरह अब उसका उपयोग सम्भव ही नहीं है।
माही जरूर कुछ–कुछ जगह ज़िन्दा है, प्रदेश की सरकार ने सिंचाई के लिये अब इसकी नहरें झाबुआ जिले के एक बड़े हिस्से से गुजारी हैं। इसका फायदा इधर खेती करने वालों किसानों को जरूर मिल सकेगा। कमोबेश यही स्थितियाँ बाकी नदियों की भी है।
जगह-जगह इनके किनारों पर ईंट भट्टे नजर आते हैं, जो नदियों के बचे–खुचे पानी को भी अपने व्यावसायिक फायदे के लिये उलीच रहे हैं। पहले जहाँ एक–दो ईंट भट्टे हुआ करते थे और वे भी अपनी हद में ही काम करते थे, लेकिन अब वहाँ ईंट भट्टा व्यवसायियों की होड़ ने इस तरह अतिक्रमण कर रखा है कि कहीं-कहीं तो नदी का पूरा पाट ही इनकी गिरफ्त में दिखाई देता है। तेजी से भवन निर्माण उद्योग के बढ़ते चलन ने इलाके में नदियों की दुर्दशा बढ़ा दी है।
पेटलावद के पास से गुजरने वाली पम्पावती नदी में भी अब वो बांकपन नहीं रहा, जिसके लिये यह नदी पहचानी जाती रही है। बुजुर्ग बताते हैं कि कभी इस नदी का पानी साल भर उपयोग में आता रहता था लेकिन अब तो थोड़े ही दिनों में पानी खत्म होने लगता है।
बारिश गुजरते ही यह नदी सूखने लगती है और कहीं–कहीं छोटे पोखरों में बदल जाती है। यह नदी पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी है और जगह–जगह इसमें गन्दे नाले आकर मिलते रहते हैं। यही वजह है कि इसका पानी अब पीने लायक भी नहीं बचा है। लोग जगह–जगह इनमें कूड़ा डालते नजर आते हैं। कई जगह तो नदी क्षेत्र ट्रेचिंग ग्राउंड में तब्दील हो गया है।
थांदला के पास से गुजरने वाली पद्मावती नदी की तो और भी बुरी स्थिति है। यहाँ नदी में पूरे शहर की गन्दगी मिलती है तो दूसरी तरफ बड़ी तादाद में कूड़ा–कचरा और मलबा भी बेखौफ फेंका जा रहा है। अकेले थांदला के आसपास ही करीब दो दर्जन से ज्यादा स्थानों पर ईंट भट्टे चल रहे हैं। इन्होंने पूरे नदी क्षेत्र को ही घेर रखा है।
कुछ सालों पहले तक यहाँ लोग घाटों पर सैर के लिये सुबह और शाम के समय घूमने आया करते थे पर अब यहाँ से मजबूरी में भी गुजरना पड़ जाये तो बदबू से बचने के लिये नाक पर रुमाल लगाना पड़ता है। अब यहाँ के घाट भी नाम के ही रह गए हैं। कहीं गाड़ियाँ धूल रही हैं तो कहीं कपड़े और कहीं मछलियों का शिकार। इसके गहरीकरण और शुद्धिकरण के लिये भी प्रयास हुए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। नगर परिषद् ने यहाँ नदी किनारे ईंट भट्टे वालों के खिलाफ एफआईआर कराने की भी चेतावनी दी लेकिन अब तक कुछ नहीं बदला।
ये स्थितियाँ हमें अब भी चेतावनी देती है कि अब भी समय है, पानी के परम्परागत संसाधनों का सम्मान करने की सुध लें, नहीं तो कुछ ही सालों में हमारे पास नदियों की समृद्ध परम्परागत विरासत ही नहीं बचे।
पूरे झाबुआ जिले में नदियों की कमोबेश यही हालत है और यह साबित भी करता है कि यदि हम अपने परम्परागत प्राकृतिक संसाधनों की समुचित देखरेख नहीं करेंगे और उन्हें उपेक्षित कर देंगे तो अन्ततः इसका ख़ामियाज़ा हमें ही उठाना पड़ेगा और आगे आने वाली पीढ़ियों को भी। एक बुजुर्ग महिला की बात कहीं अन्दर तक फाँस की तरह चुभती है – अब की नदियों में तो जैसे सत (ताकत) ही नहीं बचा, हमारे जमाने की नदियाँ तो देवी की तरह होती थीं।
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Post By: RuralWater