सफलता की कहानियां और केस स्टडी

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कॉमनसेंस भी करोड़पति बना सकता है
Posted on 25 Jun, 2014 12:23 PM आज यहां 295 कुएं हैं। और पानी 15 से 45 फीट तक मिल जाता है। जबकि अहमदनगर जिले के दूसरे इलाकों में 200 फीट तक पानी मिल पाता है। बहरहाल, हिवड़े बाजार आज वह गांव है, जहां हर परिवार खुशहाल है। यह कैसे हुआ? खासकर तब जबकि गांव में सालाना बारिश सिर्फ 15 फीसदी होती थी। जब पवार सरपंच बने तो उन्होंने सबसे पहले ये दुकानें बंद कराई। शुरुआत मुश्किल थी। गांव में ही रेन वाटर हार्वेस्टिंग के काम में लगाया। गांव वालों ने मिट्टी के 52 बांध बनाए। बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए दो बड़े टैंक और 32 पथरीले बांध बनाए। पोपटराव पवार अब 54 साल के हो चुके हैं। वे अपने गांव में एक समय इकलौते पोस्ट ग्रेजुएट हुआ करते थे। लिहाजा, गांव के युवाओं ने उनसे आग्रह किया कि वे सरपंच का चुनाव लड़ें। लेकिन पवार की इसमें दिलचस्पी नहीं थी। परिवार ने भी उनके चुनाव लड़ने पर समहति नहीं दी। परिवार वाले चाहते थे कि वे शहर जाएं और कोई बढ़िया सी नौकरी करें। जबकि पवार खुद क्रिकेटर बनने की इच्छा रखते थे। खेलते भी अच्छा थे। घर के लोगों को भी लगता था कि वे एक एक दिन कम से कम रणजी टूर्नामेंट में तो खेल ही लेंगे।
अरवरी जल संसद
Posted on 09 Jun, 2014 01:51 PM
अरवरी जल संसद की कहानी, राजस्थान के एक पिछड़े इलाके में कम पढ
arvari sansad
जल संकट दूर कर प्रेरणा बने कर्नाटक के गांव
Posted on 24 May, 2014 09:11 AM कभी सोना उगलने वाली धरती कहलाने वाले कर्नाटक के कोलार जिले में एक छोटा-सा गांव चुलुवनाहल्ली। वहां न तो कोई प्रयोगशाला है, न ही कोई प्रशिक्षण संस्थान, फिर भी यहां देश के कई राज्यों के अफसर जल विशेषज्ञ, स्वयंसेवी संस्थाओं के लोग सीखने आ रहे हैं।
water crisis
कैसे सूखी नदी
Posted on 04 May, 2014 10:18 AM भारत के गंवई ज्ञान ने तरुण भारत संघ को इतना तो सिखा ही दिया था कि जंगलों को बचाए बगैर जहाजवाली नदी जी नहीं सकती। लेकिन तरुण भारत संघ यह कभी नहीं जानता था कि पीने और खेतों के लिए छोटे-छोटे कटोरों में रोक व बचाकर रखा पानी, रोपे गए पौधे व बिखेरे गए बीज एक दिन पूरी नदी को ही जिंदा कर देंगे। जहाजवाली नदी के इलाके में भी तरुण भारत संघ पानी का काम करने ही आया था, लेकिन यहां आते ही पहले न तो जंगल संवर्द्धन का काम हुआ और न पानी संजोने का। अपने प्रवाह क्षेत्र के उजड़ने-बसने के अतीत की भांति जहाजवाली नदी की जिंदगी में भी कभी उजाड़ व सूखा आया था। आपके मन में सवाल उठ सकता है कि आखिर एक शानदार झरने के बावजूद कैसे सूखी जहाजवाली नदी? तरुण भारत संघ जब अलवर में काम करने आया था...तो सूखे कुओं, नदियों व जोहड़ों को देखकर उसके मन में भी यही सवाल उठा था।

इस सवाल का जवाब कभी बाबा मांगू पटेल, कभी धन्ना गुर्जर...तो कभी परता गुर्जर जैसे अनुभवी लोगों ने दिया। प्रस्तुत कथन जहाजवाली नदी जलागम क्षेत्र के ही एक गांव घेवर के रामजीलाल चौबे का है।

चौबे जी कहते हैं कि पहले जंगल में पेड़ों के बीच में मिट्टी और पत्थरों के प्राकृतिक टक बने हुए थे। अच्छा जंगल था। बरसात का पानी पेड़ों में रिसता था। ये पेड़ और छोटी-छोटी वनस्पतियां नदी में धीरे-धीरे पानी छोड़ते थे। इससे मिट्टी कटती नहीं थी।
River
जहाज का जलागम
Posted on 04 May, 2014 10:06 AM

उजड़ते-बसते तट


पता नहीं, ऊमरी-देवरी में बेटी ब्याह की कहावत पहले की है या बाद की। पर सच है कि ऊमरी को हजारों साल पहले उम्मरगढ़ के नाम से जाना जाता था। कालांतर में उम्मरगढ़ किसी कारण नष्ट हो गया। ऐसा ही देवरी नगर के साथ भी हुआ। समय बीता। नगर की जगह विशाल जंगल आबाद हो गया। कालांतर में ये स्थान पुनः धीरे-धीरे बसे। देवरी गांव में भाभला गोत्र के मीणा आकर बस गए। पर जाने क्यों बाद में उनकी संख्या धीरे-धीरे कम होती चली गई। सन् 1933 में इस गोत्र का एकमात्र सदस्य दल्ला पटेल ही बचा था। जहाजवाली नदी के जलागम में जहाज नामक स्थान की खास महत्ता है। इस स्थान पर एक अखंड झरना है। यह झरना अमृतधारा की भांति है। स्वच्छ और निर्मल प्रवाह का स्रोत! यहां पर हनुमान जी का एक मंदिर है।

नामकरण - कहते हैं कि पौराणिक काल में यहां जाजलि ऋषि ने तपस्या की थी। जाजलि ऋषि बड़े विद्वान और वेद-वेदांगों के ज्ञाता तो थे ही, वह आयुर्वेद के सोलह प्रमुख विशेषज्ञों में से भी एक थे।

धन्वतरिर्दिवोदासः काशिराजोSश्विनी सुतौ। नकुलः सहदेवार्की च्यवनों जनको बुधः।।
जाबलो जाजलिः पैलः करभोSगस्त्य एवं चSएते वेदा वेदज्ञाः षोडश व्याधिनाशका:।।


अर्थात् धन्वन्तरि, दिवोदास, काशिराज, दोनों अश्वनि कुमार, नकुल, सहदेव, सूर्यपुत्र यम, च्यवन, जनक, बुध जाबाल, जाजलि, पैल, करभ और अगस्त्य-ये सोलह विद्वान वेद-वेदांगों के ज्ञाता तथा रोगों के नाशक वैद्य हैं।
पानी से धानी तक का सफर
Posted on 13 Mar, 2014 12:32 PM

परंपरा से मिला रास्ता


जब कोई व्यक्ति अथवा समुदाय समाज के भले के लिए काम करता है तो भगवान भी उसकी मदद करता है। इसीलिए तो अगले ही वर्ष ‘मोरे वाले ताल’ ने अपने जलागम क्षेत्र से बहकर आई हुई बरसात की हर एक बूंद को अपने आगार में रोक लिया। एक साथ इतना सारा पानी देखकर लोग हर्षातिरेक से आनंद-विभोर हो उठे। लेकिन दूसरे ही क्षण यह सोच कर चिंतित भी हो गए कि इतना बड़ा ताल है, कहीं टूट गया तो…? सब ने मिल कर चिंतन किया, और अंततः समाधान भी खोज लिया। बस! फिर क्या था? सभी स्त्री-पुरुष व बच्चे अपना-अपना फावड़ा-परात लेकर पाल की सुरक्षा के लिए तैनात रहने लगे। डांग में पानी कैसे आया? ‘महेश्वरा नदी’ का पुनर्जन्म कैसे हुआ? डांग के लोगों के चेहरे पर रौनक कैसे आई? यह सब जानने के लिए हमें थोड़ा इस काम की पृष्ठभूमि में जाना होगा। पानी के काम का प्रारम्भ तरुण भारत संघ ने सर्वप्रथम वर्ष 1985-86 ई. में अलवर जिले की तहसील थानागाजी के गांव गोपालपुरा से शुरू किया था और सुखद आश्चर्य की बात है कि पानी को संरक्षित करने की प्रेरणा भी हमें गोपालपुरा गांव के ही एक अनुभवी बुजुर्ग मांगू पटेल से ही मिली थी। मांगू पटेल की प्रेरणा से, सबसे पहले इस गांव में चबूतरे वाली जोहड़ी का काम शुरू हुआ था।
द बेस्ट प्रैक्टिस: हुबली-धारवाड़
Posted on 12 Jan, 2014 04:11 PM वर्ष 2008 से 2011 के दौरान धारवाड़ जिला प्रशासन ने हुबली-धारवाड़ में खुली भूमि, झीलों-तालाबों, पहाड़ियों और सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित व संरक्षित करने का काम कुछ इस तरह से अंजाम दिया गया कि इसके प्रभाव अद्भुत हैं। इस कार्य को वर्ष 2011-12 में व्यक्तिगत श्रेणी के प्रधानमंत्री पुरस्कार से नवाजा गया। इस कार्य में प्रशासन द्वारा सभी सूचनाओं को साझा करने की पहल निर्णायक भूमिका रही। प्रस्तुत है इस
jalashaya
लोगों की गाड़गंगा
Posted on 01 Dec, 2013 09:20 AM 30 सालों के दौरान गाँवों के समाज ने करीब 30 हजार चाल-खाल बनाई हैं। उनके लगे जंगल 100 फिट कैनोपी तक के हैं। जमीन पर ह्यूमस की परत काफी मोटी है। पशु पक्षी भी वहां मौजूद हैं। जंगल खेती और चारा सभी कुछ उगाने के लिए पर्याप्त पानी मौजूद है। इन जंगलों में अब हर तरह का जीवन संगीत गूँज रहा है। बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही उस इलाके से जा चुके हैं। ग्लेशियर सूखने की घोषणा और बातें वहां के जंगल अपनी हवा में उड़ा देते हैं। अपने धर्म-कर्म के लिए एक गंगा बहा देते हैं।उफरैखाल, पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा तीन जिलों के बीच स्थित गांव है। जो जिम कार्बेट नेशनल पार्क के उत्तर में और समुद्र तल से 6000 फीट ऊपर पहाड़ों में है। दरअसल उफरैखाल ‘दूधातोली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा है।’

उत्तराखंड में बहुत से कस्बों और गाँवों के नाम खाल के नाम पर हैं जैसे... उफरैखाल, चौबाटाखाल, नौगांवखाल, गुमखाल, बूबाखाल, चौखाल, परसुंडाखाल, पौंखाल, बीरोंखाल, भदेलीखाल, अदालीखाल, सतेराखाल, पड़जीखाल, किनगोड़ीखाल आदि। पूरे उत्तराखंड में लगभग ढाई हजार खाल पूर्वजों के बनाए हुए हैं।
कचरे का पूर्ण प्रबंधन ही पर्यावरण को बेहतर ढंग से सुरक्षित रखता है
Posted on 09 Nov, 2013 12:59 PM एमयूटीबीटी ने कुछ समय पहले एक राष्ट्रीय स्तर का बिजनेस प्लान कंपीटिशन आयोजित किया था। इसमें पेपरट्री को तीसरा स्थान मिला। इनाम के तौर पर दो लाख रुपए नकद दिए गए। एक अन्य राष्ट्रीय स्तर के ही ग्रीन बिजनेस प्लान कंपीटिशन में कंपनी को पहला स्थान मिला। यह कंपनी दुनिया की उन 50 कंपनियों में भी शुमार हो चुकी है, जिन्हें शुरुआत में ही बड़े-बड़े इनाम मिल गए। पेपरट्री के बारे में सबसे खास बात ये है कि वे कचरे से क्रिएशन कर रहे हैं। जिस चीज को ज्यादातर लोग बेकार समझकर फेंक देते हैं, कंपनी उसे फिर काम का बना रही है। हम भारतीय अब भी कागज़ की रद्दी के बारे में पूरी तरह सचेत नहीं हैं। हालांकि हम सब जानते हैं कि कागज़ पेड़ों को काटने के बाद बनाया जाता है। इसके बावजूद हम कागज़ की बर्बादी रोकने के लिए ज्यादा जागरूक नहीं हैं और अगर बात किसी शैक्षणिक संस्थान की हो तो वहां कुछ ज्यादा ही कागज़ बर्बाद होता है। न सिर्फ स्टूडेंट बल्कि टीचर भी इसमें शामिल होते हैं। चूंकि कागज़ पढ़ने-पढ़ाने के काम की मूलभूत आवश्यकता है इसलिए कोई इसकी बर्बादी को लेकर चिंता नहीं करता।
टिकाऊ खेती ने दिखाई राह
Posted on 07 Nov, 2013 10:38 AM

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में कई वर्षों से प्रयासरत गोरखपुर एंवायरमेंटल एक्शन ग्रुप ने इस दिशा में अच्छा काम किया है। इस संस्था ने जिले के सरदार नगर और कैंपियरगंज ब्लाकों के गाँवों में खेती किसानी को नई राह दिखाई है। अन्य संस्थाओं के सहयोग से इसे पूर्वांचल के जिलों में फैलाने में भी मदद की है। इस संस्था ने तीन बिंदुओं पर ध्यान दिया है। पहली बात तो यह है कि कृषि के लिए बाजार के महंगे उत्पादों पर निर्भर होने के स्थान पर स्थानीय स्तर पर उपलब्ध निशुल्क, संसाधनों का बेहतर प्रयोग किया जाए और इसकी वैज्ञानिक सोच को किसानों तक ले जाया जाए।

हाल के वर्षों में खेती-किसानी का जो गंभीर संकट उत्पन्न हुआ उसका एक मुख्य कारण यह था कि छोटे किसानों की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर कृषि विकास का प्रयास किया गया। ऐसी तकनीकों का प्रसार हुआ जो न केवल महंगी है बल्कि मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन को क्षतिग्रस्त कर भविष्य में और ज्यादा खर्च की भूमिका भी तैयार करती हैं। पर्यावरण से खिलवाड़ कर कई नई बीमारियों और समस्याओं को निमंत्रण देती हैं। महंगी तकनीकों के कारण छोटे किसानों में कर्ज की समस्या बढ़ गई। उधर भूमि सुधार की विफलता के कारण भूमिहीन कृषि मज़दूरों को छोटे किसान बनाने का कार्य भी पीछे छूट गया। चिंताजनक स्थिति में भी उत्साहवर्धक बात यह है कि कई संस्थाओं और संगठनों के प्रयोग ने देश के करोड़ों किसानों को संकट से बाहर निकालने की राह भी दिखाई है। तमाम सीमाओं के बावजूद आर्गेनिक खेती ने अपना असर दिखाया है।
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