मटका पद्धति द्वारा रोपित पौधों को वर्षा के पश्चात् सूखे के समय भी प्रत्येक 15 दिन पर मटके को भरा जाता रहा, जिससे पौधों को जीवन रक्षक नमी मिलती रही और पौधे सूखने से बच गए और साथ ही सघन वानस्पतिक आवरण विकसित करने कि दृष्टि से ‘कंटूर ट्रेंच’ की नई मिट्टी पर ‘स्टाइलो हमाटा’ चारे के बीज को छिटक दिया गया और जैसे ही वर्षा हुई बीजों से अंकुर फूटे और देखते-ही-देखते बंजर पड़ी जमीन और सूखी पहाड़ियों पर हरी चादर-सी बिछ गई। इससे मिट्टी का कटाव रुका, पानी संरक्षित हुआ साथ ही पशुओं के लिए पौष्टिक हरा चारा सहजता से उपलब्ध हुआ। लगभग दो दशक पूर्व भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली की मदद से मा. नानाजी देशमुख संस्थापक दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा कृषि विज्ञान केंद्र की स्थापना मध्य प्रदेश के सतना जिले के कृषिगत विकास के योजनानुसार मझगवां में की गई। वनवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थापित इस कृषि विज्ञान केन्द्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती जीवन की मूलभूत आवश्यक्ताओं से जुड़ी हुई थी। पूरे वर्ष पीने का पानी नहीं, दो वक्त की रोटी नहीं, जीविकोपार्जन के लिए वनों पर निर्भरता बढ़ती रही, पेड़ कटते रहे, जंगल घटते रहे परिणामस्वरूप प्राकृतिक रूप से बिछी हरी चादर अस्त-व्यस्त होती चली गई। पहाड़ियां नग्न दिखने लगीं। वर्षाकाल में मिट्टी का कटाव शुरू हुआ। पहाड़ियों पर ऊपरी क्षेत्र से छोटी-छोटी नालियां बनीं जो निचले हिस्से मे आकर नाले का रूप लेती चली गईं। ऐसा दुर्गम, कठिन एवं चुनौतियों से भरा क्षेत्र जहां रूखे-सूखे पहाड़ एवं बंजर भूमि अपनी दुर्दशा की कहानी स्वयं बयां कर रही थीं।
वृक्ष एवं वानस्पतिक आवरण वर्षा की बूंदों की गति को कम कर देते हैं जिससे भूमि का कटाव कम होता है, पानी ठहरता है और रिसता हुआ धीरे-धीरे जमीन में चला जाता है। वर्षाजल का मिलन भूमिगत जल से होता है। परिणामस्वरूप सूखी नदियां एवं नाले जीवंत हो जाते हैं। भूमिगत जलस्तर बढ़ने लगता है। सिंचाई क्षेत्र में विस्तार होता है। वृक्षों की पत्तियां गल-सड़ कर खाद का काम करती हैं। जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है, भौतिक गुणों में सुधार होता है तथा मिट्टी में जलधारण की क्षमता भी बढ़ जाती है।
इस क्षेत्र के लोग खुशहाली का जीवन अर्जित कर सकें इस आशय से प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु ग्रामीण जनों की सहभागिता के आधार पर बीस ग्रामों की एक ऐसी योजना तैयार की गई, जिसमें वर्षा की एक-एक बूंद पानी से संरक्षण हेतु रिज लाईन से वैली तक (पहाड़ी की चोटी से तलहटी तक) प्राकृतिक बनावट के अनुसार अलग-अलग संरचनाएं बनाई गईं। बंजर एवं नग्न पहाड़ियों पर वनस्पति व पेड़-पौधे पैदा करने हेतु ग्राम स्तर पर स्वयं सहायता समूह एवं उपयोगकर्ता दलों का गठन किया गया। समूह के सभी सदस्यों को नर्सरी (पौधशाला) स्थापना एवं प्रबंधन विषय पर कृषि विज्ञान केन्द्र, मझगवां द्वारा प्रशिक्षित किया गया। तदुपरांत कृषि विज्ञान केन्द्र, मझगवां के सतत् मार्गदर्शन में समूह द्वारा नर्सरी तैयार की गई जहां से पौधे खरीदकर उपयोगकर्ता दलों द्वारा रोपित किए गए।
नग्न पहाड़ियों पर मिट्टी व पानी के संरक्षण दृष्टि से बनाई गई कंटूर ट्रेंच के निचले भाग में 3×3 फीट का गड्ढा खोदा गया। वर्षा से पूर्व गड्ढे के मध्य में घड़ा/मटका जमीन की ऊपरी सतह के स्तर पर लगाकर गड्ढे को गोबर की खाद एवं मिट्टी की बराबर मात्रा से भर दिया गया। जैसे ही वर्षा प्रारम्भ हुई उपयोगकर्ता दलों के सदस्यो ने 8 से 10 इंच की दूरी पर फलदार/बहुउद्देशीय पौधों का रोपण किया गया अधिकतर पौधे फरवरी से वर्षा के पूर्व तक पानी की कमी से सूख जाते हैं। मटका पद्धति द्वारा रोपित पौधों को वर्षा के पश्चात् सूखे के समय भी प्रत्येक 15 दिन पर मटके को भरा जाता रहा, जिससे पौधों को जीवन रक्षक नमी मिलती रही और पौधे सूखने से बच गए और साथ ही सघन वानस्पतिक आवरण विकसित करने कि दृष्टि से ‘कंटूर ट्रेंच’ की नई मिट्टी पर ‘स्टाइलो हमाटा’ चारे के बीज को छिटक दिया गया और जैसे ही वर्षा हुई बीजों से अंकुर फूटे और देखते-ही-देखते बंजर पड़ी जमीन और सूखी पहाड़ियों पर हरी चादर-सी बिछ गई। इससे मिट्टी का कटाव रुका, पानी संरक्षित हुआ साथ ही पशुओं के लिए पौष्टिक हरा चारा सहजता से उपलब्ध हुआ। वर्षा जल सहजता से संरक्षित किया जाने लगा। भोजन पकाने के लिए ईंधन और फलदार पौधों से फल प्राप्त होने लगे। सिंचाई क्षेत्र में विस्तार हुआ है जिससे फसलों के उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में बदलाव भी हुआ।
निर्मित सभी संरचनाएं टिकाऊ एवं उपयोगी बनी रहें इस आशय से प्रत्येक संरचना के लिए उपयोगकर्ता दल का गठन किया गया है, जो इसकी देख-रेख के दायित्वों का निर्वाहन करते हुए समुचित उपयोग कर लाभान्वित हो रहे हैं। जीवनयापन के लिए जंगलों पर निर्भर रहने वाले परिवार आज खेती के काम पर लगकर अच्छा उत्पादन प्राप्त कर रहे हैं। कुओं एवं हैंडपम्पों के जलस्तर में वृद्धि हुई है। आज इस क्षेत्र में पूरे वर्ष पीने के पानी के साथ ही सिंचाई का पानी भी उपलब्ध है।
प्राकृतिक संसाधनों के समन्वित प्रबंधन के कारण सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हुआ है। कृषि विज्ञान केन्द्र द्वारा आयोजित प्रशिक्षण एवं फसल प्रदर्शन से किसानों के अंदर जागरूकता आई, आत्मविश्वास बढ़ा और अत्यधिक उत्पादन लेने की चेष्टा ने उर्वरकों के प्रयोग के तरफ ध्यान आकृष्ट किया। जहां पहले किसान नाम मात्र का उर्वरक प्रयोग करता था आज कृषि विज्ञान केन्द्र में मिट्टी परीक्षण के बाद उसने विशेषज्ञों की सलाह पर इसका प्रयोग जैविक खादों के साथ-साथ करना शुरू कर दिया है।
मिली वाटरशेड कृषि विज्ञान केन्द्र मझगवां के अधीनस्थ 18 ग्रामों में जहां कभी पीने के पानी का संकट हुआ करता था, जानवरों को चारे व पानी की तालाश में मीलों भटकना पड़ता था, किसान वर्षा पर आधारित खेती के चलते मुश्किल से केवल एक हीं फसल ले पाता था, दो जून की रोटी के व्यवस्था हेतु पलायन की नौबत तक आ जाती थी। आज वहां मिट्टी व पानी के संरक्षण तथा संवर्धन हेतु निर्मित संरचनाओं के प्रभाव के कारण सिंचित क्षेत्र में विस्तार हुआ है। किसान 3550 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई कर वर्ष में दो-तीन सिंचित फसले सफलतापूर्वक ले रहे हैं। सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में भी विस्तार हुआ है। पशुओं के लिए चारा व पानी गांव-गांव में उपलब्ध हुआ है जिसके कारण पशुओं के स्वास्थ्य में सुधार होने के साथ ही दुग्ध उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। वर्षा जल प्रबंधन कार्यों के परिणामस्वरूप लोगों को अपने हीं गांव में कार्य का अवसर प्राप्त हुआ है, वे अपने गांव तथा खेतों पर कार्य करते हुए स्वावलम्बन की और अग्रसर हो रहे हैं। जल प्रबंधन कार्यों से पूर्व परिवारों की औसत आय 11760 रुपए प्रतिवर्ष हुआ करती थी। आज वे 30540 रुपए प्रतिवर्ष अर्जित कर रहे हैं। प्राकृतिक संसाधन ही ग्रामीणों की समृद्धि व स्वावलंबन का टिकाऊ आधार है। यह सदैव जीवंत बना रहे इस आशय से किसान कृषि विज्ञान केन्द्र से सतत् तकनीकी मार्गदर्शन एवं समस्याओं के समाधान हेतु स्वयमेव संपर्क बनाए रखने में समर्थ हुए हैं।
बारिश के दौरान पहाड़ों पर से तेजी से नीचे आते बारिश के पानी को रोकने की व्यवस्था करना। इस विधि में पानी को छोटी-छोटी मेंड़ें बनाकर उसकी गति को धीमा किया जाता है। ताकि पान बेकार न हो और उसका ज्यादा-से-ज्यादा हिस्सा भूमि में जा सके।
सूखे पहाड़ों पर मिट्टी निकालकर छोटे-छोटे गड्ढे बनाना ताकि वर्षा के पानी को संरक्षित किया जा सके। गड्ढे बनाए जाने के बाद उनके पास पौधे भी लगाए जाते हैं। ताकि गड्ढों में एकत्रित सिंचित जल से पौधे पानी सोख सकें।
बारिश के पानी को एकत्रित करने के लिए पहाड़ की तलहटी में तालाब बनाए जाते हैं। ताकि ऊपर से बहकर आने वाले पानी को संरक्षित किया जा सके। जैसे-जैसे समय बढ़ता है, हर बर्ष जमने वाली काई की वजह से इन तालाबों की पानी संरक्षित करने की क्षमता बढ़ती जाती है।
बारिश के जल को संचित करने के लिए सूखे पहाड़ पर समतल जगह देखकर छोटी-छोटी कुंडियां बनाई जाती हैं जिनमें से पानी धीरे-धीरे जमीन में रिसता है।
दीनदयाल शोध संस्थान, कृषि विज्ञान केन्द्र, सतना (मप्र)
वृक्ष एवं वानस्पतिक आवरण वर्षा की बूंदों की गति को कम कर देते हैं जिससे भूमि का कटाव कम होता है, पानी ठहरता है और रिसता हुआ धीरे-धीरे जमीन में चला जाता है। वर्षाजल का मिलन भूमिगत जल से होता है। परिणामस्वरूप सूखी नदियां एवं नाले जीवंत हो जाते हैं। भूमिगत जलस्तर बढ़ने लगता है। सिंचाई क्षेत्र में विस्तार होता है। वृक्षों की पत्तियां गल-सड़ कर खाद का काम करती हैं। जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है, भौतिक गुणों में सुधार होता है तथा मिट्टी में जलधारण की क्षमता भी बढ़ जाती है।
इस क्षेत्र के लोग खुशहाली का जीवन अर्जित कर सकें इस आशय से प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु ग्रामीण जनों की सहभागिता के आधार पर बीस ग्रामों की एक ऐसी योजना तैयार की गई, जिसमें वर्षा की एक-एक बूंद पानी से संरक्षण हेतु रिज लाईन से वैली तक (पहाड़ी की चोटी से तलहटी तक) प्राकृतिक बनावट के अनुसार अलग-अलग संरचनाएं बनाई गईं। बंजर एवं नग्न पहाड़ियों पर वनस्पति व पेड़-पौधे पैदा करने हेतु ग्राम स्तर पर स्वयं सहायता समूह एवं उपयोगकर्ता दलों का गठन किया गया। समूह के सभी सदस्यों को नर्सरी (पौधशाला) स्थापना एवं प्रबंधन विषय पर कृषि विज्ञान केन्द्र, मझगवां द्वारा प्रशिक्षित किया गया। तदुपरांत कृषि विज्ञान केन्द्र, मझगवां के सतत् मार्गदर्शन में समूह द्वारा नर्सरी तैयार की गई जहां से पौधे खरीदकर उपयोगकर्ता दलों द्वारा रोपित किए गए।
नग्न पहाड़ियों पर मिट्टी व पानी के संरक्षण दृष्टि से बनाई गई कंटूर ट्रेंच के निचले भाग में 3×3 फीट का गड्ढा खोदा गया। वर्षा से पूर्व गड्ढे के मध्य में घड़ा/मटका जमीन की ऊपरी सतह के स्तर पर लगाकर गड्ढे को गोबर की खाद एवं मिट्टी की बराबर मात्रा से भर दिया गया। जैसे ही वर्षा प्रारम्भ हुई उपयोगकर्ता दलों के सदस्यो ने 8 से 10 इंच की दूरी पर फलदार/बहुउद्देशीय पौधों का रोपण किया गया अधिकतर पौधे फरवरी से वर्षा के पूर्व तक पानी की कमी से सूख जाते हैं। मटका पद्धति द्वारा रोपित पौधों को वर्षा के पश्चात् सूखे के समय भी प्रत्येक 15 दिन पर मटके को भरा जाता रहा, जिससे पौधों को जीवन रक्षक नमी मिलती रही और पौधे सूखने से बच गए और साथ ही सघन वानस्पतिक आवरण विकसित करने कि दृष्टि से ‘कंटूर ट्रेंच’ की नई मिट्टी पर ‘स्टाइलो हमाटा’ चारे के बीज को छिटक दिया गया और जैसे ही वर्षा हुई बीजों से अंकुर फूटे और देखते-ही-देखते बंजर पड़ी जमीन और सूखी पहाड़ियों पर हरी चादर-सी बिछ गई। इससे मिट्टी का कटाव रुका, पानी संरक्षित हुआ साथ ही पशुओं के लिए पौष्टिक हरा चारा सहजता से उपलब्ध हुआ। वर्षा जल सहजता से संरक्षित किया जाने लगा। भोजन पकाने के लिए ईंधन और फलदार पौधों से फल प्राप्त होने लगे। सिंचाई क्षेत्र में विस्तार हुआ है जिससे फसलों के उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई। इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में बदलाव भी हुआ।
निर्मित सभी संरचनाएं टिकाऊ एवं उपयोगी बनी रहें इस आशय से प्रत्येक संरचना के लिए उपयोगकर्ता दल का गठन किया गया है, जो इसकी देख-रेख के दायित्वों का निर्वाहन करते हुए समुचित उपयोग कर लाभान्वित हो रहे हैं। जीवनयापन के लिए जंगलों पर निर्भर रहने वाले परिवार आज खेती के काम पर लगकर अच्छा उत्पादन प्राप्त कर रहे हैं। कुओं एवं हैंडपम्पों के जलस्तर में वृद्धि हुई है। आज इस क्षेत्र में पूरे वर्ष पीने के पानी के साथ ही सिंचाई का पानी भी उपलब्ध है।
प्राकृतिक संसाधनों के समन्वित प्रबंधन के कारण सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हुआ है। कृषि विज्ञान केन्द्र द्वारा आयोजित प्रशिक्षण एवं फसल प्रदर्शन से किसानों के अंदर जागरूकता आई, आत्मविश्वास बढ़ा और अत्यधिक उत्पादन लेने की चेष्टा ने उर्वरकों के प्रयोग के तरफ ध्यान आकृष्ट किया। जहां पहले किसान नाम मात्र का उर्वरक प्रयोग करता था आज कृषि विज्ञान केन्द्र में मिट्टी परीक्षण के बाद उसने विशेषज्ञों की सलाह पर इसका प्रयोग जैविक खादों के साथ-साथ करना शुरू कर दिया है।
आजीविका का आधार हुआ सशक्त
मिली वाटरशेड कृषि विज्ञान केन्द्र मझगवां के अधीनस्थ 18 ग्रामों में जहां कभी पीने के पानी का संकट हुआ करता था, जानवरों को चारे व पानी की तालाश में मीलों भटकना पड़ता था, किसान वर्षा पर आधारित खेती के चलते मुश्किल से केवल एक हीं फसल ले पाता था, दो जून की रोटी के व्यवस्था हेतु पलायन की नौबत तक आ जाती थी। आज वहां मिट्टी व पानी के संरक्षण तथा संवर्धन हेतु निर्मित संरचनाओं के प्रभाव के कारण सिंचित क्षेत्र में विस्तार हुआ है। किसान 3550 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई कर वर्ष में दो-तीन सिंचित फसले सफलतापूर्वक ले रहे हैं। सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में भी विस्तार हुआ है। पशुओं के लिए चारा व पानी गांव-गांव में उपलब्ध हुआ है जिसके कारण पशुओं के स्वास्थ्य में सुधार होने के साथ ही दुग्ध उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। वर्षा जल प्रबंधन कार्यों के परिणामस्वरूप लोगों को अपने हीं गांव में कार्य का अवसर प्राप्त हुआ है, वे अपने गांव तथा खेतों पर कार्य करते हुए स्वावलम्बन की और अग्रसर हो रहे हैं। जल प्रबंधन कार्यों से पूर्व परिवारों की औसत आय 11760 रुपए प्रतिवर्ष हुआ करती थी। आज वे 30540 रुपए प्रतिवर्ष अर्जित कर रहे हैं। प्राकृतिक संसाधन ही ग्रामीणों की समृद्धि व स्वावलंबन का टिकाऊ आधार है। यह सदैव जीवंत बना रहे इस आशय से किसान कृषि विज्ञान केन्द्र से सतत् तकनीकी मार्गदर्शन एवं समस्याओं के समाधान हेतु स्वयमेव संपर्क बनाए रखने में समर्थ हुए हैं।
जुगत लगाकर बदली बंजर की तस्वीर
पहाड़ पर मेंड़ : गली प्लग
बारिश के दौरान पहाड़ों पर से तेजी से नीचे आते बारिश के पानी को रोकने की व्यवस्था करना। इस विधि में पानी को छोटी-छोटी मेंड़ें बनाकर उसकी गति को धीमा किया जाता है। ताकि पान बेकार न हो और उसका ज्यादा-से-ज्यादा हिस्सा भूमि में जा सके।
छोटी तलैया : कंटूर ट्रेंच
सूखे पहाड़ों पर मिट्टी निकालकर छोटे-छोटे गड्ढे बनाना ताकि वर्षा के पानी को संरक्षित किया जा सके। गड्ढे बनाए जाने के बाद उनके पास पौधे भी लगाए जाते हैं। ताकि गड्ढों में एकत्रित सिंचित जल से पौधे पानी सोख सकें।
तलहटी का ताल : डबरा-डबरी
बारिश के पानी को एकत्रित करने के लिए पहाड़ की तलहटी में तालाब बनाए जाते हैं। ताकि ऊपर से बहकर आने वाले पानी को संरक्षित किया जा सके। जैसे-जैसे समय बढ़ता है, हर बर्ष जमने वाली काई की वजह से इन तालाबों की पानी संरक्षित करने की क्षमता बढ़ती जाती है।
छोटी रिसाव कुंडियां
बारिश के जल को संचित करने के लिए सूखे पहाड़ पर समतल जगह देखकर छोटी-छोटी कुंडियां बनाई जाती हैं जिनमें से पानी धीरे-धीरे जमीन में रिसता है।
भूमिगत जलस्तर में वृद्धि | ||||||
वर्षा | वर्षा (मिमी) | वर्षा दिन | जल उपलब्धता (मी.) | |||
मई | जल स्तर में वृद्धि | दिसम्बर | जल स्तर में वृद्धि | |||
1997 | 905 | 61 | 0.93 | - | 1.80 | - |
2003 | 1298 | 49 | 2.03 | 1.10 | 3.67 | 1.87 |
2006 | 748 | 34 | 3.90 | 2.97 | 4.92 | 3.12 |
2009 | 784 | 27 | 3.12 | 2.78 | 4.7 | 2.97 |
जल प्रबंधन का उर्वरकों की खपत पर प्रभाव | ||||
फसल | मात्रा (किग्रा. प्रति हेक्टेयर) | |||
गेहूं | जल प्रबंधन के पूर्व जल | प्रबंधन के पश्चात | ||
यूरिया | डीएपी | यूरिया | डीएपी | |
22 | - | 47 | 32 | |
गेहूं | 10 | 18 | 50 | 54 |
चना | - | - | - | 37 |
उत्पादन (कृषि प्रति हेक्टेयर) | |||
फसल | जल प्रबंधन के पूर्व 1987 | जल प्रबंधन के पश्चात | वृद्धि प्रतिशत |
धान | 10.30 | 22.17 | 115.24 |
अरहर | 7.40 | 11.70 | 58.11 |
चना | 8.10 | 14.85 | 83.33 |
गेहूं | 15.80 | 26.46 | 67.47 |
अलसी | 2.88 | 6.63 | 130.21 |
सरसों | 6.10 | 11.50 | 88.52 |
दीनदयाल शोध संस्थान, कृषि विज्ञान केन्द्र, सतना (मप्र)
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Post By: pankajbagwan
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