सफलता की कहानियां और केस स्टडी

Term Path Alias

/sub-categories/success-stories-and-case-studies

खिजूरा का जल-कुम्भ
Posted on 13 Mar, 2014 04:35 PM

‘नीमी’ से सीख मिली


जीवन के लिए जल जरूरी है और इसकी प्राप्ति तभी संभव है जब मानव और प्रकृति के बीच सह अस्तित्व अक्षुण्ण रहे। इस हेतु जरूरी है कि नदियों को शुद्ध-सदानीरा बनाएं; जहां बैठकर सर्वत्र हरियाली की आशा-आकांक्षा के साथ अपना वर्तमान व साझे भविष्य को संवारने वाली सर्वहितकारी नीति-निर्माण की जा सके। नीति-निर्माण से पूर्व समूचे देश में नदियों के किनारे छोटे-छोटे कुम्भ आयोजित किए जाएं, जहां प्रकृति संरक्षण से जुड़े सभी सवालों पर सार्थक बहस हो। डाँग क्षेत्र के लोगों को जल-कुम्भ करने की प्रेरणा भी जयपुर जिले के नीमी गांव में हुए जल-सम्मेलन को देख कर ही मिली थी। नीमी गांव के लोगों ने अपने गांव में तरुण भारत संघ के आंशिक सहयोग से पानी के कई अच्छे काम किए थे। पानी के कारण उनकी खेती की पैदावार में आशातीत वृद्धि हुई थी। अचानक आई इस समृद्धि की खुशी में तथा देशभर के अन्य लोगों को प्रेरणा देने के उद्देश्य से उन्होंने तरुण भारत संघ के सहयोग से एक विशाल जल-सम्मेलन का आयोजन रखा था।

उल्लेखनीय है कि इसी सम्मेलन से जल-बिरादरी जैसे राष्ट्रीय स्तर के एक बड़े संगठन का भी जन्म हुआ था।
डांग के पानी की कहानी
Posted on 13 Mar, 2014 12:27 PM ‘महेश्वरा नदी’ को सदानीरा बनाने का काम यहां के समाज के सदाचार और श्रम से ही संभव हो सका है। यह एक अद्भुत काम है; जिसे यहां के लोगों ने सहजता, सरलता व श्रमनिष्ठा के भाव से निर्विघ्न सम्पन्न किया है। उम्मीद है कि ‘महेश्वरा नदी’ के इस सामाजिक साझे श्रम के अभिक्रम को देख कर अब दूसरे क्षेत्र के लोग भी इससे अच्छी सीख ले सकेंगे। ‘महेश्वरा नदी’ राजस्थान की उन सात नदियों में से एक है; जिन्हें समाज के साझे श्रम ने पुनर्जीवित कर सदानीरा बनाया। लेकिन अगर आप यहां के सिंचाई विभाग के किसी सरकारी अधिकारी, इंजीनियर अथवा जिला कलेक्टर तक से भी पूछेंगे तो वह आपको ‘महेश्वरा नदी’ के बारे में कुछ भी नहीं बता सकेगा; कारण कि इस इलाके के किसी भी सरकारी नक्शे में महेश्वरा नाम की कोई नदी दर्ज ही नहीं है।

लेकिन सपोटरा की डांग में बसने वाला हर बाशिंदा आपको ‘महेश्वरा नदी’ के बारे में तथा इसके पुनः लौटे जीवन के बारे में सहर्ष विस्तृत जानकारी दे देगा।
जहां कूड़ा नहीं होता बर्बाद
Posted on 24 Jan, 2014 01:47 PM सूरत में हर रोज 1400 मीट्रिक टन कूड़ा-कचरा उत्पन्न होता है। शहर के बाहर छोर के अंतिम निपटान स्थल पर एक ‘वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट’ बनाया गया है जहां प्रतिदिन 400 मीट्रिक टन कूड़े के खाद और ईंधन तैयार किया जाता है। पठान बताते हैं, ‘हमने एक खुली बोली के बाद अपशिष्ट संशोधित तकनीक से लैस एक कंपनी को आमंत्रित किया था। ‘हैंजर बायोटेक’ का चयन किया गया।’ नटवरलाल पटेल को 1994 के वे दिन आज भी याद हैं जब सूरत में प्लेग महामारी फैली थी। वे बाहर निकलने से भी इस कदर डर गए थे कि एक हफ्ता घर में ही बिताया। उन्होंने और उनके परिवार ने जो कुछ रसोई में था, वही खा-पीकर काम चलाया। हालांकि, शहर हफ्ते भर में ही पहले की तरह सामान्य हो गया था, लेकिन इन कुछ दिनों में सूरतवासियों ने जो कुछ देखा, वह कूड़े के प्रति उनके नजरिए को हमेशा के लिए बदलने वाला था।
बेड़ो पंचायत में दूर हुई पानी की दिक्कत
Posted on 09 Jun, 2013 10:19 AM

प्रेरणादायी है बेड़ो ग्राम जल एवं स्वच्छता समिति

बिना ईंधन के चलता है यह लिफ्ट एरीगेशन
Posted on 31 May, 2013 10:39 AM भारतीय सेना से रिटायर्ड हजारीबाग के रहने वाले एक कर्नल ने जल प्रबंधन के लिए देसी पंप ईजाद किया है। यह एक ऐसा एरीगेशन सिस्टम है जिसमें बिना बिजली, डीजल, केरोसिन, पेट्रोल आदि ईंधन के पानी को पाइप के जरिये ऊपर पहुंचाया जाता है। जल प्रबंधन में कर्नल की इस नवीन खोज पर केंद्रित उमेश यादव की रिपोर्ट।
पानी का संकट, महंगे पेट्रोल-डीजल और राज्य में बिजली की बदतर स्थिति झारखंड के लिए बड़ी समस्या है। ऐसे में इसका हल तो ढूढ़ना ही पड़ेगा। इन्हीं चुनौतियों से निबटने के लिए प्रकृति जल ऊर्जा पंप का विकास किया गया है। बिना सरकारी मदद के शुरूआत में यह महंगी लगती है। लेकिन, तीन साल के ईंधन खर्च की बचत से ही इसकी लागत वसूल हो जाती है। ऐसे में यह बहुत सस्ती है। हजारीबाग जिले के मासिपिरी गांव निवासी कर्नल विनय कुमार सेना की नौकरी से रिटायर्ड होकर वर्ष 2005 में अपने गांव लौटे। यहां पर उन्होंने ग्रामीणों को जल संकट से जूझते देखा। पानी के अभाव में फसलों को होने वाली क्षति एवं लोगों के जीवन में आने वाली दिक्कतों ने उन्हें बेचैन कर दिया। सेना की नौकरी ने उन्हें वह मानसिक दृढ़ता प्रदान की थी जिसके चलते वह यथास्थितिवादी बन कर नहीं रह सकते थे। इसलिए उन्होंने इस संकट का हल निकालने की ठानी। तीन-चार साल के अथक प्रयास से जो परिणाम सामने आया वह चौकाने वाला था। एक ऐसी खोज सामने थी जो बिना किसी ईंधन के पानी का प्रबंध कर सकता था। यह खोज था प्रकृति जल ऊर्जा पंप। फिर क्या था कर्नल विनय की बांछें खिल उठी। उन्होंने इसे अपने कृषि फार्म में प्रयोग किया।
श्रमदान से बांध बनाया, 500 एकड़ खेत को पानी
Posted on 12 Apr, 2013 12:17 PM 200 किसानों की मेहनत लाई रंग, खेतों में अब उग रही फसल, किसानों की आर्थिक स्थिति हुई मजबूत
ग्रामीणों द्वारा बांध बनाकर रोका गया पानीग्रामीणों द्वारा बांध बनाकर रोका गया पानीप्रखंड रायडीह, पंचायत परसा। पूरा क्षेत्र उग्रवाद प्रभावित। जिसके चारों ओर जंगल व पहाड़ हैं। कल तक यहां सिंचाई के लिए पानी की चिंता थी। परंतु 200 किसानों ने सामूहिक पहल से श्रमदान कर छह घंटे में सेमरटोली नदी में बांध बनाकर मिसाल कायम की। किसानों ने नदी के बीच में बांध बनाकर पानी का संग्रह किया। आज श्रमदान से बनाया गया बांध किसानों के लिए वरदान साबित हो रहा है। आसपास के 500 एकड़ खेत में सिंचाई के लिए पानी पहुंच रहा है। सिंचाई के लिए खेत को पानी मिलने के बाद अब सभी 200 किसान अब तरबूज, खीरा, कद्दू, टमाटर, भिंडी, बोदी, करेला, झींगी, गरमा धान के अलावा अन्य सब्जी व फसल की खेती कर रहे हैं। किसान इससे खुश हैं। यहां दिलचस्प बात यह है कि किसानों के श्रमदान में परसा के मुखिया इस्माइल कुजूर, पंचायत समिति सदस्य उपमा तिर्की, उपमुखिया एलेश्वर उरांव का भी सहयोग रहा है।
सामूहिक प्रयास से बंधी निर्माण
Posted on 05 Apr, 2013 11:47 AM समाज की मुख्य धारा से कटे आदिवासी भुईया जाति के 55 परिवारों ने स्वयं के प्रयास से बसनीया नाला पर बंधी निर्माण किया और अपनी सिंचाई की समस्या हल की।

संदर्भ


ऊँचे पहाड़ व उबड़-खाबड़ ज़मीन पर खेती करने वालों के लिए सबसे बड़ी समस्या सिंचाई की होती है। यहां पर रहने वालों के लिए जितना मुश्किल पानी संग्रह करना होता है, उससे अधिक मुश्किल पानी का उपयोग करना होता है। कुछ ऐसी ही स्थिति सोनभद्र जिले के दुद्धी विकासखंड अंतर्गत कलिंजर ग्राम सभा की है। बसनीया नाला के दोनों तरफ उबड़-खाबड़ जमीनों पर स्थित ग्राम सभा कलिंजर में 55 आदिवासी परिवार भुईया जाति के रहते हैं। ये भूमिहीन आदिवासी परिवार पूर्वजों से ही धारा-20 के अंतर्गत पट्टा की भूमि पर रहते हैं, खेती करते हैं। विडम्बना ही है कि बरसों बीत जाने के बाद भी जमीनों का हक इनको नहीं मिल पाया है। कुछ तो इनकी अज्ञानता और कुछ सरकारी उपेक्षा ने इन्हें भूमिहीनों की कतार में खड़ा किया है।
जल स्तर को ऊंचा करने का स्वयं का प्रयास
Posted on 05 Apr, 2013 10:41 AM बगल में नदी होते हुए भी गर्मियों में सूखा की स्थिति झेलने वाले जनपद सोनभद्र के गांव बीडर के लोगों ने स्वयं के प्रयास से कुएँ, तालाबों की खुदाई की और जल स्तर बढ़ाने का स्व प्रयास किया।

संदर्भ


पहाड़ों से घिरी गहरी बावनझरिया नदी के समीप अवस्थित ग्राम सभा बीडर जनपद सोनभद्र के विकास खंड दुद्दी का एक गांव है। इस गांव की विडम्बना यह है कि 200-300 मीटर की ढलान के बाद 15 मीटर गहरी नदी (जिसमें वर्ष भर पानी रहता है। बगल में होने के बावजूद गांव सूखा की परिस्थितियों को झेलता है।

जनपद सोनभद्र की आजीविका का मुख्य साधन खेती, खेती आधारित मजदूरी है। यहां पर वर्षा आधारित खेती होने के कारण वर्षा न होने की स्थिति में लोगों के खेत सूखे रहते हैं। नतीजतन लोगों की आजीविका एवं उसके साथ-साथ उनका जीवन-यापन बहुत मुश्किल हो जाता है।
भूमि समतलीकरण
Posted on 04 Apr, 2013 03:43 PM ऊंची नीची भूमि के कारण खेतों से बहुत सा पानी बेकार बह जाता है, जिसने सूखे विंध्य को और सूखा बनाया। तब लोगों ने भूमि समतलीकरण की तकनीक अपनाकर सूखे से मुकाबला प्रारम्भ किया।

संदर्भ


भूमि समतलीकरण से आशय है ऊंची-नीची ज़मीन को बराबर करके उसकी मेंड़ को बांधना ताकि ज़मीन की उर्वरा शक्ति एवं जल धारण क्षमता बढ़े। भूमि एवं जल प्रबंधन की यह एक पुरानी व कारगर परंपरा है, जो खेती के आधुनिक दौर में बहुत प्रचलन में नहीं है। परंतु आज जब पानी की एक-एक बूंद महत्वपूर्ण है, इस परंपरा को पुनः प्रचलन में लाना अति आवश्यक हो गया है और इसी दिशा में प्रयास करते हुए इसे प्रतिस्थापित किया जा रहा है।
सामुदायिक तालाब पुनः निर्माण एवं नाला सफाई हेतु जन प्रयास
Posted on 04 Apr, 2013 03:19 PM सूखा की परिस्थितियां उत्पन्न करने में प्रकृति ने तो भूमिका निभाई ही, मनुष्यों ने जल संसाधनों पर अवैध कब्ज़ा करके रही सही कसर पूरी की। इससे प्रभावित लघु सीमांत किसानों ने स्वयं के स्तर पर पहल व प्रयास करते हुए नालों तालाबों की सफाई व गहरीकरण किया।

संदर्भ


बुंदेलखंड क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सभी जनपदों की संस्कृति में नदी-नाले, पहाड़, जंगल, उबड़-खाबड़, पथरीली एवं ऊंची-नीची ज़मीन देखने को मिलती है। यहां पर बसे सभी गाँवों में 3-4 तालाबों का होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। इन्हीं से लोगों की रोजी-रोटी चलती थी। विगत 15-20 वर्षों से यहां पर लगातार पेड़ों की कटाई, बालू खनन, पत्थर खनन एवं भूगर्भ जल संतुलन के अंधाधुंध उपयोग एवं तालाबों व छोटे-छोटे नालों के भर जाने की वजह से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ना शुरू हुआ, जिससे सूखा एवं बाढ़ जैसी आपदाएं इस क्षेत्र में बढ़ने लगी।
×