जहां कूड़ा नहीं होता बर्बाद

सूरत में हर रोज 1400 मीट्रिक टन कूड़ा-कचरा उत्पन्न होता है। शहर के बाहर छोर के अंतिम निपटान स्थल पर एक ‘वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट’ बनाया गया है जहां प्रतिदिन 400 मीट्रिक टन कूड़े के खाद और ईंधन तैयार किया जाता है। पठान बताते हैं, ‘हमने एक खुली बोली के बाद अपशिष्ट संशोधित तकनीक से लैस एक कंपनी को आमंत्रित किया था। ‘हैंजर बायोटेक’ का चयन किया गया।’ नटवरलाल पटेल को 1994 के वे दिन आज भी याद हैं जब सूरत में प्लेग महामारी फैली थी। वे बाहर निकलने से भी इस कदर डर गए थे कि एक हफ्ता घर में ही बिताया। उन्होंने और उनके परिवार ने जो कुछ रसोई में था, वही खा-पीकर काम चलाया। हालांकि, शहर हफ्ते भर में ही पहले की तरह सामान्य हो गया था, लेकिन इन कुछ दिनों में सूरतवासियों ने जो कुछ देखा, वह कूड़े के प्रति उनके नजरिए को हमेशा के लिए बदलने वाला था।

प्लेग सूरतवासियों के लिए एक चेतावनी था। ‘सूरत नगर निगम’ (एसएमसी) में जल निकासी एवं ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के प्रभारी कार्यपालक अभियंता इ.एच. पठान बताते हैं कि प्लेग से पहले लोग व सफाईकर्मी नियत खाली जगहों पर कूड़ा-कचरा फेंका करते थे, जहां इसका ढेर लग जाता था। ये स्थान कूड़ा बीनने वालों और जानवरों को आकर्षित करते थे। रात को यह कूड़ा ट्रकों में भरकर निपटान स्थलों पर भेजा जाता था। 1990 के दशक के दौरान यह कूड़ा शहर के पास संकरी खाड़ी के किनारे निचले इलाकों में निपटाया जाता था। यह तरीका 2002 में बंद कर दिया गया। प्लेग के बाद लोगों को एहसास हुआ कि शहर में खुले में कचरा निपटाना खतरनाक है। नगर निगम ने भी इस दौरान बेहतर अपशिष्ट प्रबंधन के लिए विकल्पों की तलाश शुरू कर दी। पठान कहते हैं, ‘हम कंटेनर स्थापित करने के लिए ऐसी जगह ढूंढने लगे जहां नागरिक व सफाईकर्मी कचरे का निपटान कर सकें। कंक्रीट का एक प्लेटफॉर्म बनाया गया और कंटेनर स्थापित किए गए, जहां आवासीय क्षेत्रों के लोगों के साथ-साथ व्यावसायिक केंद्र भी अपने कूड़े-कचरे का निपटान कर सकते हैं।’ शुरुआत के वक्त शहर में 1,800 कंटेनर थे, जबकि आवासीय और वाणिज्यिक क्षेत्रों से कूड़ा इकट्ठा व निपटान करने के लिए 2001 में निजी ठेकेदारों को काम पर रखकर घर-घर से कूड़ा उठवाने के बाद आज उनमें से सिर्फ 1,000 कंटेनर ही हैं। इस बीच, सूरत असाधारण दर से बढ़ रहा था- संभवतः देश में सबसे तेजी से बढ़ते शहर के रूप में उभरते हुए। पठान कहते हैं, ‘1991 में शहर की आबादी 13 लाख थी जो 2001 तक बढ़कर 24 लाख हो गई और 2011 तक 46 लाख। तेजी से बढ़ते शहरीकरण के साथ तालमेल रखना एसएमसी के लिए आसान नहीं था, लेकिन हमने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की।’ 2002 के आसपास कूड़े के अंतिम निपटान के लिए एसएमसी को 200 हेक्येर भूमि मिली। पठान कहते हैं, ‘हमने कूड़े को अंतिम निपटान स्थल पर ले जाने से पहले शहर में एक अस्थायी स्थान पर जमा करने के बारे में सोचा। शुरू में सबसे बड़ी चुनौती थी स्थानांतरण स्टेशन और निपटान स्थल के लिए जमीन हासिल करना। जब लोग यह सुनते हैं कि उनके पड़ोस में एक कूड़ा निपटान स्थल होगा, तो वे खफा हो जाते हैं।’ वर्ष 2001 में एसएमसी ने अस्थायी कूड़ा निपटान स्थलों के रूप में जिन स्थानांतरण स्टेशनों का निर्माण किया वे भी एक मुसीबत बन गए। पठान कहते हैं, ‘निपटान स्थलों पर भेजने से पहले कूड़े को वराछा और कतारगाम स्थानांतरण स्टेशनों पर कंक्रीट प्लेटफॉर्म पर उतारकर तिरपाल से ढंक दिया जाता था। कोई छत तो थी नहीं, दुर्गंध एक समस्या बन गई थी। इसलिए हमने इसे आधुनिक बनाने का फैसला किया।’

एसएमसी के पश्चिम क्षेत्र में वराछा स्थानांतरण स्टेशन पर सफाई निरीक्षक बीडी बंगलावाला कूड़ा लाने वाले ट्रकों का वजन रिकॉर्ड करते हैं। वे बताते हैं कि घर-घर जाकर कूड़ा इकट्ठा करने का काम निजी ठेकेदारों को दिया गया है और अनुबंध के आधार पर उन्हें प्रति मीट्रिक टन कूड़े के लिए 650 से 1,250 रुपए का भुगतान दिया जाता है। बंगलावाला स्टेशन के प्रवेश द्वार पर एक केबिन में बैठते हैं। ट्रक उनके केबिन के सामने एक कांटे पर आकर रुकता है। वे ट्रक का वजन रिकॉर्ड करते हैं। फिर ट्रक एक ऊंचे प्लेटफॉर्म पर ‘कीप’ नूमा जगह में कूड़ा डालता है, जहां एक पिस्टन द्वार कूड़े को बार-बार दबाकर उसके संपीड़ित खंड बना लिए जाते हैं। खाली ट्रक एक बार फिर बंगलावाला के केबिन के सामने आकर वजन करवाता है। दोनों बार के भार के अंतर से कूड़े का वजन पता चल जाता है। ट्रक अपने निर्धारित मार्ग का अनुसरण करते रहें यह सुनिश्चित करने के लिए ‘वाहन ट्रैकिंग सिस्टम’ से उनकी निगरानी की जाती है। बंगलावाला के पास एक कैमरा भी है जिससे वे यह देखते हैं कि कहीं कूड़े में कोई गड़बड़ तो नहीं की जा रही। इस संपीडन के बाद कूड़े को कंटेनरों में भरकर अंतिम निपटान स्थल भेज दिया जाता है। बंगलावाला कहते हैं, ‘शहर का वर्तमान क्षेत्र 326 वर्ग किलोमीटर है और छह स्थानांतरण स्टेशन कार्य कर रहे हैं। जनसंख्या वृद्धि की बात को ध्यान में रखते हुए हम शहर के बाहरी इलाके में चार और स्थानांतरण स्टेशनों की योजना बना रहे हैं।’

ठोस अपशिष्ट प्रबंधन


सूरत में हर रोज 1400 मीट्रिक टन कूड़ा-कचरा उत्पन्न होता है। शहर के बाहर छोर के अंतिम निपटान स्थल पर एक ‘वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट’ (अपशिष्ट संशोधित संयंत्र) बनाया गया है जहां प्रतिदिन 400 मीट्रिक टन कूड़े के खाद और ईंधन तैयार किया जाता है। पठान बताते हैं, ‘हमने एक खुली बोली के बाद अपशिष्ट संशोधित तकनीक से लैस एक कंपनी को आमंत्रित किया था। ‘हैंजर बायोटेक’ का चयन किया गया।’

निपटान स्थल परिसर में ही स्थित 2008 में शुरू होने वाले इस संयंत्र में कूड़े को दो रूपों में अलग किया जाता है- सूखा और तरल। सूखे कूड़े को ‘रिफ्यूज-ड्राइव्ड फ्यूल’ (आरडीएफ) बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और तरल कचरे को जैविक खाद बनाने में, जिसे फिर ‘कृषक भारती को ऑपरटिव लिमिटेड’ (कृभको) व स्थानीय किसानों को बेच दिया जाता है। कूड़े से हर रोज 15-20 प्रतिशत तक खाद और आरडीएफ प्राप्त किया जाता है। दूसरी ओर, प्लास्टिक कचरे से सिल्लियां तैयार की जाती हैं जो प्लास्टिक निर्माताओं के लिए कच्चा माल होती हैं। इन्हें बाजार में बेच दिया जाता है।

हैंजर अधिकारी बताते हैं कि कूड़े के ट्रीटमेंट से पहले बड़े पैमाने पर बहुत सारी चीजों को अलग किया जाता है। वे मानते हैं कि यह प्रक्रिया उनके लिए बहुत ‘थकाऊ’ होती है, क्योंकि इन सब चीजों को पहले अलग नहीं किया जाता है। अपशिष्ट संशोधन संयंत्र में मुसीबतें भी कम नहीं हैं। वस्त्र केंद्र सूरत में बहुत-सा ‘वस्त्र कचरा’ उत्पन्न होता है। कपड़ों के लंबे-लंबे टुकड़े अक्सर मशीनों को जाम कर देते थे और इन्हें नुकसान पहुँचाते थे। इसलिए अपशिष्ट संशोधन संयंत्र को इस कचरे की प्रकृति के अनुसार संशोधित करवाना था। इसके अलावा बचे हुए शेष 1,000 मीट्रिक टन कूड़े से बिजली उत्पन्न करने की योजना पर काम चल रहा है। पठान बताते हैं कि कचरे से ऊर्जा संयंत्र विकसित करने के लिए ‘रोशेम सेपरेशन सिस्टम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड’ को टेंडर दिया गया है। वे अपने पैसे से संयंत्र स्थापित करेंगे और कचरे से उत्पन्न बिजली को बेचेंगे। रोशेम प्रति टन 30 रुपए की दर से हमें रॉयल्टी देगी और इसमें हर साल 5.4% की बढ़ोतरी होगी। पठान कहते हैं कि एक बार यह बिजली संयंत्र तैयार हो जाए तो बेकार कूड़ा सिर्फ 200 टन तक ही रह जाएगा। दिसंबर, 2014 तक संयंत्र के पूरी तरह से चालू होने की उम्मीद है। आधुनिक स्थानांतरण स्टेशन और लैंडफिल साइट का विकास ‘जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रीन्यूवल मिशन’ के तहत किया गया था।

सीवेज संशोधन


अंजना सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में प्रतिदिन सीवेज का 85-90 मीलियन लीटन पानी संशोधित किया जाता है। सीवेज के पानी से बायोगैस (मिथेन) और गाद को अलग किया जाता है। गाद को संशोधित करके खाद के रूप में बाजार में बेच दिया जाता है और बायोगैस को बिजली पैदा करने के उपयोग में लाया जाता है। इस बायोगैस के इस्तेमाल से बिजली की लागत में 70 प्रतिशत की बचत हो जाती है। संशोधित जल को कोयली खाड़ी में छोड़ दिया जाता है जो बहते हुए अरब सागर में चला जाता है। सूरत में ऐसे 10 सीवेज संशोधित संयंत्र हैं।

लोगों की भागीदारी


अपशिष्ट प्रबंधन में लोगों को शामिल करने के लिए एसएमसी ने ‘अनुदान’ नामक एक योजना तैयार की है। इसके तहत हाउसिंग सोसायटीज को अपने क्षेत्र व आस-पास की सड़कों को साफ-सुथरा रखने के लिए निगम द्वारा प्रोत्साहन स्वरूप प्रति वर्गमीटर 60 पैसे का भुगतान किया जाता है। एसएमसी के पश्चिमी क्षेत्र में आने वाले अदाजन पाटिया में सूर्यपुर सोसायटी ने भी अनुदान को अपनाया है। 149 परिवारों की इस सोसायटी के पास अपने सफाईकर्मी हैं जो परिसर को साफ रखते हैं।

इमेल : puja@governancenow.com

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