पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

Term Path Alias

/sub-categories/books-and-book-reviews

पगला मल्लाह
Posted on 24 Aug, 2013 03:33 PM (उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित)

डोंगा डोले,
नित गंग-जमुन के तीर,
डोंगा डोले।

आया डोला,
उड़न खटोला,
एक परी परदे से निकली पहने पंचरंग चीर।
डोंगा डोले,
नित गंग-जमुन के तीर,
डोंगा डोले।

आँखें टक-टक,
छाती धक-धक,
कभी अचानक ही मिल जाता दिल का दामनगीर।
डोंगा डोले,
नित गंग-जमुन के तीर,
मैं एक नदी सूखी
Posted on 24 Aug, 2013 11:30 AM मैं एक नदी सूखी सी
कल मैं कलकल बहती थी
उन्मुक्त न कोई बंधन
क्वांरी कन्या सी ही थी
पूजित भी परबस भी थी
जब सुबह सवेरे सूरज
मेरे द्वारे आता था
सच कहूँ तो मेरा आँगन
उल्लसित हो जाता था
आलस्य त्याग कर मुझ में
सब पुण्य स्थल को जाते
जब घंटे शंख,अज़ान
गूंजते थे शांति के हेतु
मैं भी कृतार्थ होती थी
उसमें अपनी छवि देकर
वसुंधरा
Posted on 23 Aug, 2013 11:20 AM प्रकाशमय किया है सूर्य ने जिसको
चंद्रमा ने वर्षा की है रजत किरणों की
प्रसन्न हैं झिलमिल तारे जिसे देख कर
फूलों ने भी बिखेरी है सुगंध हंसकर
ऐसी न्यारी सुन्दर वसुंधरा ये है
प्रकृति ने संवारा है इसको बड़े श्रम से
वन,पर्वत,घाटी,नदियाँ,झरने सभी
रंग भरते हैं इसमें सतरंगी
समय के साथ इसकी सुन्दरता
बढ़ती ही जा रही थी असीम
निर्मल जल की धारा
Posted on 20 Aug, 2013 10:38 AM नन्हीं निर्मल जल की धारा
जब धरा से फूट निकलती है
बच बाधाओं से कुछ सकुचाती
निज श्रम से मार्ग बनाती है
कोई साथ नहीं कुछ ज्ञात नहीं
सब कुछ ही तो अन्जाना है
उत्साहित हो अपने बल पर
आगे ही आगे बढ़ते जाना है
संकल्प लिए दृढ़ निष्ठा से
उठती गिरती कल कल करती
कहीं उछल कूद कर गाती सी
चट्टानों से भी टकरा जाती
उसके कृत से आकर्षित हो
इस व्यापारी को प्यास बहुत है।
Posted on 19 Aug, 2013 12:40 PM बांधएक तरफ बर्बाद बस्तियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ डूबती कश्तियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है सूखी नदियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनिया- एक तरफ हो तुम।
जल समाधि
Posted on 18 Aug, 2013 03:58 PM अति कृतज्ञ हूंगी मैं तेरी
ऐसा चित्र बना देना।
दुखित हृदय के भाव हमारे।
उस पर सब दिखला देना।

प्रभु की निर्दयता, जीवों की
कातरता दरसा देना।
मृत्यु समय के गौरव को भी
भली-भांति झलका देना।।

भाव न बतलाए जाते हैं।
शब्द न ऐसे पाती हूं।
इसीलिए हे चतुर चितेरे!
तुझको विनय सुनाती हूं।।

देख सम्हलकर, खूब सम्हलकर
सदानीरा
Posted on 18 Aug, 2013 01:09 PM तुम्हें नहीं दीखीं?
बिना तीरों की नदी,
बिना स्रोत की
सदानीरा!

वेगहीन गतिहीन,
चारों ओर बहती,
नहीं दीखी तुम्हें
जलहीन, तलहीन
सदानीरा?

आकाश नदी है, समुद्र नदी,
धरती पर्वत भी
नदी हैं!

आकाश नील तल,
समुद्र भंवर,
धरती बुदबुद, पर्वत तरंग हैं,
और वायु
अदृश्य फेन!
तुम नहीं देख पाए!
धेनुएँ
Posted on 18 Aug, 2013 11:04 AM ओ रँभाती नदियो,
बेसुध
कहाँ भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है।
ओ, फेन-गुच्छ
लहरों की पूँछ उठाए
दौड़ती नदियो,

इस पार उस पार भी देखो,
जहाँ फूलों के कूल

सुनहले धान से खेत हैं।
कल-कल छल-छल
अपनी ही विरह व्यथा
प्रीति कथा कहती
मत चली जाओ!

सागर ही तुम्हारा सत्य नहीं!
नौका-विहार
Posted on 18 Aug, 2013 11:01 AM शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक अनंत, नीरव भू-तल!
सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,
लहरे उर पर कोमल कुंतल!
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलांबर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,
गंगा का प्रभात
Posted on 17 Aug, 2013 11:26 AM गलित ताम्र भव : भृकुटि मात्र रवि
रहा क्षितिज से देख,
गंगा के नभ नील निकष पर
पड़ी स्वर्ण की रेख!
आर-पार फैले जल में
घुलकर कोमल आलोक,
कोमलतम बन निखर रहा,
लगता जग अखिल अशोक!

नव किरणों ने विश्वप्राण में
किया पुलक संचार,
ज्योति जड़ित बालुका पुलिन
हो उठा सजीव अपार!

सिहर अमर जीवन कंपन से
खिल-खिल अपने आप,
×