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संघर्ष और विवाद
जमीन की राजनीति और संघर्ष की मशाल
Posted on 10 Nov, 2012 11:50 AM आज देश में 3000 खदान परियोजनाएं हैं, 5000 से ज्यादा बांध हैं, शेरों को बचाने के नाम पर एक तरफ आदिवासिअसम की ‘शान’ बचाने की जद्दोजहद
Posted on 22 Oct, 2012 11:17 AM एक सींग वाले गैंडे को असम का ‘शान’ कहा जाता है। वह राज्य का प्रतीकजिंदगी चूर-चूर करते क्रशर
Posted on 19 Oct, 2012 10:41 AM बंगाल के चार जिलों में चल रहे छह सौ से अधिक क्रशर्स से 50 हजार कीसंकट में काजीरंगा और कार्बेट अभ्यारण्य
Posted on 15 Oct, 2012 05:39 PMदेश में अभ्यारण्यों की दुर्दशा देखने के बाद सर्वोच्च न्यायालय को दखल देना पड़ा है। कभी-कभार बाढ़ और आग से होने वाले नुकसान के अलावा भी कई मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। शिकारियों की घुसपैठ और पर्यटन एजेंसियों की दखलंदाजी ने संकट को और गहरा किया है। काजीरंगा और जिम कार्बेट अभ्यारण्यों के कुप्रबंधन का जायजा ले रहे हैं शेखर पाठक।विस्थापन का खतरा
Posted on 13 Oct, 2012 04:58 PMबढ़ते औद्योगीकरण, बांध परियोजनाओं तथा खनन की वजह से विस्थापन का संकट गहराता जा रहा है। जिस रफ्तार से देश विकास और आर्थिक लाभ की दौड़ में भागे जा रहा है उसी रफ्तार से लोग विस्थापित होने का दंश भी झेल रहे हैं। उद्योगों तथा परियोजनाओं का शान्ति से प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस प्रशासन ऐसे हिंसक अत्याचार कर रहा है गोया कि प्रशासन ने लोगों के प्रति सब जिम्मेदारियों से पल्ला ही झाड़ लिया है। जंगल मेआखिरी लड़ाई की जद्दोजहद
Posted on 28 Sep, 2012 04:49 PMबांध और विकास योजनाओं की नींव में पत्थर नहीं डले, बल्कि आदिवासियों और ग्रामीणों की हड्डियां डाली गई। आज तक भारत
मगर सत्ताधीशों को शर्म नहीं आती
Posted on 27 Sep, 2012 04:35 PMमध्य प्रदेश सरकार कहती है हमने शिकायत निवारण केंद्र बना रखा है। उसमें आइए और अपनी शिकायत करिए। आंदोलन करने की को
जल सत्याग्रह: न्याय का आग्रह
Posted on 25 Sep, 2012 03:09 PM देश में चल रही बड़ी परियोजनाओं का दो कारणों से जनविरोध है। पहला ज्यादातर परियोजनाएं गांव, जंगल और नदियों, समुद्र के आसपास हैं और उन पर लोगों की आजीविका ही नहीं बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान भी निर्भर करती है इसलिए उन परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लोग प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा चाहते हैं। वे एक एकड़ जमीन के बदले 10 लाख रुपए नहीं, बस उतनी ही जमीन चाहते हैं। वे एक सम्मानजनक पुनर्वास चाहते हैं। दूसरा, लोग यानी समाज जानता है कि यदि जंगल खत्म हो गए, नदियां सूख गईं और हवा जहरीली हो गई तो मानव सभ्यता खत्म हो जाएगी। मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में स्थित घोघलगांव और खरदना गांव में 200 लोग 17 दिनों तक नर्मदा नदी में ठुड्डी तक भरे पानी में खड़े रहे। वे न तो कोई विश्व रिकार्ड बनाना चाहते थे और ना ही उन्हें अखबार में अपना चित्र छपवाना था। बल्कि विकास के नाम पर उनकी जलसमाधि दी जा रही थी, जिसके विरोध में उन्होंने जल सत्याग्रह शुरू किया। उनका कहना था कि यदि यह बांध देश के विकास के लिए बना है तो इससे उनके जीवन के अधिकार को क्यों खत्म किया जा रहा है। वैसे भी जमीन, पानी और प्राकृतिक संसाधन ही उनके जीवन के अधिकार के आधार हैं। मध्यप्रदेश में दो बड़े बांधों - इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर से बिजली बनती है और इनसे थोड़ी बहुत सिंचाई भी होती है। इन बांधों के दायरे के बाहर की दुनिया को इन बांधों से बिजली मिलती है और उनके घर इससे रोशन होते हैं। रेलगाड़ियां भी चलती हैं। नए भारत के शहरों को, उन उद्योगों को, जो रोजगार खाते हैं, मॉल्स और हवाई अड्डों को भी यही की बिजली रोशन करती है।पानी में गलते विस्थापितों की जीत
Posted on 14 Sep, 2012 04:26 PMसुनो/वर्षों बादअनहद नाद/दिशाओं में हो रहा है
शिराओं से बज रही है/एक भूली याद वर्षों बाद ......।
ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर बांध के संबंध में वर्ष 1989 में नर्मदा पंचाट के फैसले में यह स्पष्ट कर गया था कि हर भू-धारक विस्थापित परिवार को जमीन के बदले जमीन एवं न्यूनतम 5 एकड़ कृषि योग्य सिंचित भूमि का अधिकार दिया जायेगा। इसके बावजूद पिछले 25 सालों में मध्यप्रदेश सरकार ने एक भी विस्थापित को आज तक जमीन नहीं दी है। लेकिन 17 दिन के जल सत्याग्रह से सत्याग्रहियों ने सरकार को नाकों चने तो चबवा दिए हैं।
दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां 10 सितम्बर 2012 को तब चरितार्थ हो गई जबकि मध्य प्रदेश सरकार ने खंडवा जिले के घोघलगांव में पिछले 17 दिनों से जारी जल सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सत्याग्रहियों की मांगे मान लीं तथा विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन देने का भी एलान किया। सरकार ने ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर घंटों में कम भी कर दिया। यह एक ऐतिहासिक जीत थी। सवाल यह है कि आखिर ऐसी कौन सी मजबूरियां गांव वालों के सामने रहीं कि वे उसी मोटली माई (नर्मदा), जिसे वे पूजते हैं, में स्वयं को गला देने के लिए मजबूर हो गए।बाजू भी बहुत हैं सिर भी बहुत
Posted on 01 Sep, 2012 12:29 PMमेरी हड्डियांमेरी देह में छिपी बिजलियां हैं,
मेरी देह
मेरे रक्त में खिला हुआ कमल।
- केदारनाथ सिंह
नर्मदा घाटी के निवासियों के धैर्य की दाद देना पड़ेगी। इतने अत्याचार व बेइंसाफी सहने के बावजूद वे आज भी अहिंसात्मक संघर्ष के अपने वादे पर कायम हैं। सरकार और कंपनियों को इस मुगालते में भी नहीं रहना चाहिए कि अमानवीय व्यवहार से आंदोलनकारियों का मनोबल टूटेगा। वास्तविकता तो यह है कि इस जल सत्याग्रह या जल समाधि की गूंज पूरे विश्व में सुनाई देने लगी है और यह देश व प्रदेश की सरकारों को आज नहीं तो कल कटघरे में अवश्य ही खड़ी करेंगी।
नर्मदा घाटी में स्थित ओंकारेश्वर बांध में पानी के स्तर को अवैध रूप से 189 मीटर से 193 मीटर बढ़ाए जाने के विरोध में पिछले करीब एक हफ्ते से 34 बांध प्रभावित घोघलगांव में जल सत्याग्रह कर रहे हैं। उनकी कमर से ऊपर तक पानी चढ़ चुका है और लगातार पानी में डूबे रहने से शरीर गलना प्रारंभ हो गया हैं। फिर भी वे कमल की मानिंद पानी की सतह पर टिके हुए हैं। लेकिन सरकार व एनएचडीसी जो कि बिजली उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनी है और पुनर्वास उसकी ही मूलभूत जिम्मेदारी है, टस से मस नहीं हो रहे हैं। गौरतलब है सर्वोच्च न्यायालय ने मई 2011 में दिए अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा था कि जमीन के बदले जमीन ही दी जानी चाहिए और इसके पीछे न्यायालय की सोच भी स्पष्ट है कि पुनर्वास, पुनर्वास नीति के अनुरूप ही हो।