मेरी हड्डियां
मेरी देह में छिपी बिजलियां हैं,
मेरी देह
मेरे रक्त में खिला हुआ कमल।
- केदारनाथ सिंह
दुःखद यह है कि खंडवा के कलेक्टर ने भी घोषणा कर दी है कि ओंकारेश्वर एवं इंदिरा सागर बांध से विस्थापित होने वाले लोगों को मुआवजा दे दिया गया है। यह कथन कमोवेश सर्वोच्च न्यायलय की अवमानना के समकक्ष है। इस जल सत्याग्रह ने एक बार पुनः शासन, प्रशासन और उद्योगों की आपसी सांठगांठ का पर्दाफाश कर दिया है। साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि कंपनी भले ही सरकारी क्यों न हो उसका चरित्र मुनाफाखोरी और अधिकतम लाभ से बंधा रहता है। लेकिन इससे भी ज्यादा अफसोसजनक बात यह है कि शासन और प्रशासन जिनका गठन राज्य ने वंचितों के अधिकारों की रक्षा के लिए किया है वे ही जनता के अधिकारों का हनन करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
नर्मदा नदी पर ओंकारेश्वर एवं इंदिरा सागर बांध एक सरकारी कंपनी ने बनाए वहीं तीसरा महेश्वर बांध एक निजी कंपनी ने बनाया। लेकिन इन दोनों पर गौर करें तो अजीब सी समानता सामने आती है। दोनों ने ही पुनर्वास का कार्य पूरा किए बिना प्रशासन की मदद से जलाशयों में पानी का स्तर बढ़ा दिया है। जबकि पुनर्वास नीति के हिसाब से जलाशयों को भरने के 6 माह पूर्व पुनर्वास का कार्य पूरा हो जाना चाहिए। इंदिरा सागर एवं ओंकारेश्वर बांधों से विद्युत निर्माण का कार्य प्रारंभ हुए भी वर्षों हो चुके हैं और एनएचडीसी इससे हजारों करोड़ का लाभ भी कमा चुकी है, इसके बावजूद जमीन के बदले जमीन की शर्त का पालन नहीं कर रही है। विद्युत उत्पादन की हड़बड़ी में इंदिरा सागर की डूब में आ रहे 38 गांवों में बैक वाटर का सर्वेक्षण तक नहीं हुआ है।
जिन प्रभावितों की जमीनें डूब में आ रहीं हैं उनके साथ बजाए सद्भावना के कार्य करने के मध्य प्रदेश सरकार जोर जबरदस्ती पर उतारु है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने लगातार प्रयास किया है कि विस्थापितों से पुनर्वास नीति के अंतर्गत किए गए वायदों को सरकार द्वारा पूरा कराए जाने के लिए दबाव डाला जाए। सरकार की हठधर्मिता और नीति की मनमानी व्याख्या से परेशान होकर उसे न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। वहां से भी पुनर्वास नीति के पालन का निर्णय आया लेकिन उसका पालन न करके सरकार व कंपनी शायद यह जतलाना चाह रही हैं कि वे भारतीय संविधान एवं कानून से भी ऊपर हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि मध्य प्रदेश सरकार पिछले कुछ वर्षों के दौरान 130 कंपनियों को 2.5 लाख हेक्टेयर जमीन दिए जाने संबंधी निर्णय करने की अंतिम प्रक्रिया पर है एवं कुछ को तो भूमि आबंटन किया भी जा चुका है।
सत्ता पक्ष का शायद मानना है कि इस तरह की दमनकारी कार्यवाहियों से डरकर विस्थापित अपने हक की लड़ाई लड़ना छोड़ देंगे। लेकिन वे भूल जाते हैं कि नर्मदा बचाओ आंदोलन और विस्थापितों ने प्रण किया है जिसे फैज के शब्दों में कहें तो-
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाजू भी बहुत हैं, सर भी बहुत,
चलते भी चलो केः अब डेरे मंजिल पे डाले जायेंगे।
नर्मदा घाटी के निवासियों के धैर्य की दाद देना पड़ेगी। इतने अत्याचार व बेइंसाफी सहने के बावजूद वे आज भी अहिंसात्मक संघर्ष के अपने वादे पर कायम हैं।
नर्मदा घाटी विकास मंत्रालय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के आधीन आता है। यदि इस मंत्रालय से भी प्रदेश की जनता को उनका अधिकार नहीं मिलेगा तो वे किसके पास जाएंगे? भारतीय जनता पार्टी द्वारा कोयला आबंटन के मामले में प्रधानमंत्री से इस्तीफा दो आधारों पर ही तो मांगा जा रहा है, पहला यह कि जिस दौरान कोयला ब्लाक आबंटन हुआ उस दौरान यह विभाग प्रधानमंत्री के आधीन था और दूसरा यह कि ‘कैग रिपोर्ट’में इस आबंटन प्रक्रिया को दोषपूर्ण करार दे दिया गया है। अब तुलनात्मक अध्ययन कीजिए, जिस समय नर्मदा घाटी के विस्थापितों पर अन्याय हो रहा है उस दौरान संबंधित विभाग मुख्यमंत्री के पास है और दूसरा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय की अवहेलना हो रही है। यानि मनुष्य की जान की कीमत कोयले की कीमत जितनी भी नहीं है। वरना मुख्यमंत्री को या तो पुनर्वास नीति और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का पालन करवाना चाहिए अन्यथा उन्हें भी इस्तीफा दे देना चाहिए।
सरकार और कंपनियों को इस मुगालते में भी नहीं रहना चाहिए कि इस प्रकार के अमानवीय व्यवहार से आंदोलनकारियों का मनोबल टूटेगा। वास्तविकता तो यह है कि इस जल सत्याग्रह या जल समाधि की गूंज पूरे विश्व में सुनाई देने लगी है और यह देश व प्रदेश की सरकारों को आज नहीं तो कल कटघरे में अवश्य ही खड़ी करेंगी। गांधी के देश में सत्याग्रह के अपमान की स्थिति कभी अकल्पनीय जान पड़ती थी। लेकिन आज सरकार जबरदस्ती लोगों को डुबोने पर उतारु है। इस हठधर्मिता के परिणामस्वरूप अंततः भारतीय लोकतंत्र ही कमजोर होगा। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में यदि नागरिकों को अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए जल समाधि लेने पर तत्पर होना पड़े तो इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है। वहीं भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21, प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण का वायदा करता है। लेकिन नर्मदा घाटी के निवासी आज अपने प्राणों को दांव पर लगाने को मजबूर हो गए हैं और सरकार व प्रशासन अभी भी अपने संवैधानिक दायित्व का पालन नहीं कर रहे हैं।
इस बात की पूरी संभावना है कि प्रशासन पुलिस बल के माध्यम से जोर जबरदस्ती कर इन आंदोलनकारियों को वहां से खदेड़ सकता है और गिरफ्तार भी कर सकता है। लेकिन बजाए निरंकुशता के न्यायप्रियता दिखाना आवश्यक है। अवैध रूप से बढ़ाए गए जलस्तर को तुरंत कम किया जाना चाहिए। ओंकारेश्वर के बाद इंदिरा सागर बांध का जलस्तर बढ़ाए जाना साफ दर्शा रहा है कि ‘वास्तविक मंशा’ क्या है। इंदिरा सागर बांध क्षेत्र में भी दो स्थानों पर । स्थितियां दिनों-दिन गंभीर से गंभीरतम होती जा रही हैं। ऐसे में शासन को चाहिए कि वह तुरंत बिना शर्त जलस्तर घटाए और पुनर्वास नीति एवं सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार जमीन के बदले जमीन का आबंटन सुनिश्चित करे और जनता का सम्मान करे। फैज अहमद फैज ने लिखा है,
हमने माना जंग कड़ी है सर फूटेंगे, खून बहेगा
खून में गम भी बह जायेंगे हम न रहें, गम भी न रहेगा।
नर्मदा घाटी के निवासियों का दशकों पुराना संघर्ष भारतीय लोकतंत्र का आह्वान कर रहा है कि उसने जो स्वयं से वायदा किया था वह उसे पूरा करे।
मेरी देह में छिपी बिजलियां हैं,
मेरी देह
मेरे रक्त में खिला हुआ कमल।
- केदारनाथ सिंह
नर्मदा घाटी के निवासियों के धैर्य की दाद देना पड़ेगी। इतने अत्याचार व बेइंसाफी सहने के बावजूद वे आज भी अहिंसात्मक संघर्ष के अपने वादे पर कायम हैं। सरकार और कंपनियों को इस मुगालते में भी नहीं रहना चाहिए कि अमानवीय व्यवहार से आंदोलनकारियों का मनोबल टूटेगा। वास्तविकता तो यह है कि इस जल सत्याग्रह या जल समाधि की गूंज पूरे विश्व में सुनाई देने लगी है और यह देश व प्रदेश की सरकारों को आज नहीं तो कल कटघरे में अवश्य ही खड़ी करेंगी।
नर्मदा घाटी में स्थित ओंकारेश्वर बांध में पानी के स्तर को अवैध रूप से 189 मीटर से 193 मीटर बढ़ाए जाने के विरोध में पिछले करीब एक हफ्ते से 34 बांध प्रभावित घोघलगांव में जल सत्याग्रह कर रहे हैं। उनकी कमर से ऊपर तक पानी चढ़ चुका है और लगातार पानी में डूबे रहने से शरीर गलना प्रारंभ हो गया हैं। फिर भी वे कमल की मानिंद पानी की सतह पर टिके हुए हैं। लेकिन सरकार व एनएचडीसी जो कि बिजली उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनी है और पुनर्वास उसकी ही मूलभूत जिम्मेदारी है, टस से मस नहीं हो रहे हैं। गौरतलब है सर्वोच्च न्यायालय ने मई 2011 में दिए अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा था कि जमीन के बदले जमीन ही दी जानी चाहिए और इसके पीछे न्यायालय की सोच भी स्पष्ट है कि पुनर्वास, पुनर्वास नीति के अनुरूप ही हो।दुःखद यह है कि खंडवा के कलेक्टर ने भी घोषणा कर दी है कि ओंकारेश्वर एवं इंदिरा सागर बांध से विस्थापित होने वाले लोगों को मुआवजा दे दिया गया है। यह कथन कमोवेश सर्वोच्च न्यायलय की अवमानना के समकक्ष है। इस जल सत्याग्रह ने एक बार पुनः शासन, प्रशासन और उद्योगों की आपसी सांठगांठ का पर्दाफाश कर दिया है। साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि कंपनी भले ही सरकारी क्यों न हो उसका चरित्र मुनाफाखोरी और अधिकतम लाभ से बंधा रहता है। लेकिन इससे भी ज्यादा अफसोसजनक बात यह है कि शासन और प्रशासन जिनका गठन राज्य ने वंचितों के अधिकारों की रक्षा के लिए किया है वे ही जनता के अधिकारों का हनन करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
नर्मदा नदी पर ओंकारेश्वर एवं इंदिरा सागर बांध एक सरकारी कंपनी ने बनाए वहीं तीसरा महेश्वर बांध एक निजी कंपनी ने बनाया। लेकिन इन दोनों पर गौर करें तो अजीब सी समानता सामने आती है। दोनों ने ही पुनर्वास का कार्य पूरा किए बिना प्रशासन की मदद से जलाशयों में पानी का स्तर बढ़ा दिया है। जबकि पुनर्वास नीति के हिसाब से जलाशयों को भरने के 6 माह पूर्व पुनर्वास का कार्य पूरा हो जाना चाहिए। इंदिरा सागर एवं ओंकारेश्वर बांधों से विद्युत निर्माण का कार्य प्रारंभ हुए भी वर्षों हो चुके हैं और एनएचडीसी इससे हजारों करोड़ का लाभ भी कमा चुकी है, इसके बावजूद जमीन के बदले जमीन की शर्त का पालन नहीं कर रही है। विद्युत उत्पादन की हड़बड़ी में इंदिरा सागर की डूब में आ रहे 38 गांवों में बैक वाटर का सर्वेक्षण तक नहीं हुआ है।
जिन प्रभावितों की जमीनें डूब में आ रहीं हैं उनके साथ बजाए सद्भावना के कार्य करने के मध्य प्रदेश सरकार जोर जबरदस्ती पर उतारु है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने लगातार प्रयास किया है कि विस्थापितों से पुनर्वास नीति के अंतर्गत किए गए वायदों को सरकार द्वारा पूरा कराए जाने के लिए दबाव डाला जाए। सरकार की हठधर्मिता और नीति की मनमानी व्याख्या से परेशान होकर उसे न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। वहां से भी पुनर्वास नीति के पालन का निर्णय आया लेकिन उसका पालन न करके सरकार व कंपनी शायद यह जतलाना चाह रही हैं कि वे भारतीय संविधान एवं कानून से भी ऊपर हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि मध्य प्रदेश सरकार पिछले कुछ वर्षों के दौरान 130 कंपनियों को 2.5 लाख हेक्टेयर जमीन दिए जाने संबंधी निर्णय करने की अंतिम प्रक्रिया पर है एवं कुछ को तो भूमि आबंटन किया भी जा चुका है।
सत्ता पक्ष का शायद मानना है कि इस तरह की दमनकारी कार्यवाहियों से डरकर विस्थापित अपने हक की लड़ाई लड़ना छोड़ देंगे। लेकिन वे भूल जाते हैं कि नर्मदा बचाओ आंदोलन और विस्थापितों ने प्रण किया है जिसे फैज के शब्दों में कहें तो-
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो, बाजू भी बहुत हैं, सर भी बहुत,
चलते भी चलो केः अब डेरे मंजिल पे डाले जायेंगे।
नर्मदा घाटी के निवासियों के धैर्य की दाद देना पड़ेगी। इतने अत्याचार व बेइंसाफी सहने के बावजूद वे आज भी अहिंसात्मक संघर्ष के अपने वादे पर कायम हैं।
नर्मदा घाटी विकास मंत्रालय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के आधीन आता है। यदि इस मंत्रालय से भी प्रदेश की जनता को उनका अधिकार नहीं मिलेगा तो वे किसके पास जाएंगे? भारतीय जनता पार्टी द्वारा कोयला आबंटन के मामले में प्रधानमंत्री से इस्तीफा दो आधारों पर ही तो मांगा जा रहा है, पहला यह कि जिस दौरान कोयला ब्लाक आबंटन हुआ उस दौरान यह विभाग प्रधानमंत्री के आधीन था और दूसरा यह कि ‘कैग रिपोर्ट’में इस आबंटन प्रक्रिया को दोषपूर्ण करार दे दिया गया है। अब तुलनात्मक अध्ययन कीजिए, जिस समय नर्मदा घाटी के विस्थापितों पर अन्याय हो रहा है उस दौरान संबंधित विभाग मुख्यमंत्री के पास है और दूसरा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय की अवहेलना हो रही है। यानि मनुष्य की जान की कीमत कोयले की कीमत जितनी भी नहीं है। वरना मुख्यमंत्री को या तो पुनर्वास नीति और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का पालन करवाना चाहिए अन्यथा उन्हें भी इस्तीफा दे देना चाहिए।
सरकार और कंपनियों को इस मुगालते में भी नहीं रहना चाहिए कि इस प्रकार के अमानवीय व्यवहार से आंदोलनकारियों का मनोबल टूटेगा। वास्तविकता तो यह है कि इस जल सत्याग्रह या जल समाधि की गूंज पूरे विश्व में सुनाई देने लगी है और यह देश व प्रदेश की सरकारों को आज नहीं तो कल कटघरे में अवश्य ही खड़ी करेंगी। गांधी के देश में सत्याग्रह के अपमान की स्थिति कभी अकल्पनीय जान पड़ती थी। लेकिन आज सरकार जबरदस्ती लोगों को डुबोने पर उतारु है। इस हठधर्मिता के परिणामस्वरूप अंततः भारतीय लोकतंत्र ही कमजोर होगा। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में यदि नागरिकों को अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए जल समाधि लेने पर तत्पर होना पड़े तो इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है। वहीं भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21, प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण का वायदा करता है। लेकिन नर्मदा घाटी के निवासी आज अपने प्राणों को दांव पर लगाने को मजबूर हो गए हैं और सरकार व प्रशासन अभी भी अपने संवैधानिक दायित्व का पालन नहीं कर रहे हैं।
इस बात की पूरी संभावना है कि प्रशासन पुलिस बल के माध्यम से जोर जबरदस्ती कर इन आंदोलनकारियों को वहां से खदेड़ सकता है और गिरफ्तार भी कर सकता है। लेकिन बजाए निरंकुशता के न्यायप्रियता दिखाना आवश्यक है। अवैध रूप से बढ़ाए गए जलस्तर को तुरंत कम किया जाना चाहिए। ओंकारेश्वर के बाद इंदिरा सागर बांध का जलस्तर बढ़ाए जाना साफ दर्शा रहा है कि ‘वास्तविक मंशा’ क्या है। इंदिरा सागर बांध क्षेत्र में भी दो स्थानों पर । स्थितियां दिनों-दिन गंभीर से गंभीरतम होती जा रही हैं। ऐसे में शासन को चाहिए कि वह तुरंत बिना शर्त जलस्तर घटाए और पुनर्वास नीति एवं सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार जमीन के बदले जमीन का आबंटन सुनिश्चित करे और जनता का सम्मान करे। फैज अहमद फैज ने लिखा है,
हमने माना जंग कड़ी है सर फूटेंगे, खून बहेगा
खून में गम भी बह जायेंगे हम न रहें, गम भी न रहेगा।
नर्मदा घाटी के निवासियों का दशकों पुराना संघर्ष भारतीय लोकतंत्र का आह्वान कर रहा है कि उसने जो स्वयं से वायदा किया था वह उसे पूरा करे।
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