बंगाल के चार जिलों में चल रहे छह सौ से अधिक क्रशर्स से 50 हजार की आबादी प्रभावित हो रही है। खेती चौपट हो रही है। बचाव के छह सूत्री उपायों को लेकर स्वयंसेवी संगठन अरसे से हल्ला मचा रहे हैं। मसलन, मशीनों को ढंक कर रखा जाए, उन्हें शेड में रखा जाए, क्रशर्स चलने के दौरान छिड़काव किया जाए, मजदूरों को मास्क दिए जाएं, उन्हें क्रशर मालिकों की ओर से फल दिए जाएं जिससे धूल का कम असर पड़े और नियमित मेडिकल जांच हो लेकिन पुलिस-क्रशर मालिकों और प्रशासन की मिलीभगत से ऐसी लॉबी तैयार हुई है जिस पर कोई असर नहीं हो रहा। पश्चिम बंगाल के बीहड़ की तरह ही यहां के लोगों का जीवन भी कठिन है। अस्तित्व बचाने के लिए लोगों को कड़ी मेहनत और कम दिहाड़ी की आदत पड़ चुकी है लेकिन इस दिहाड़ी के साथ मुफ्त में मिलती है फेफड़े में सिलिकेट की परत। जी हां, बात पश्चिम बंगाल के रामपुर हाट इलाके में मीलोमील फैले पत्थर के खदानों की हो रही है। यह इलाका बंगाल के चार जिलों को दुमका रोड के रास्ते झारखंड के सरसडांगा के जंगलों से जोड़ता है। यहां रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया है पत्थर की खदानें लेकिन जब खदानों में क्रशर बोलते हैं तब रोजी के साथ मुफ्त में मिलती है धूल जो दिनोंदिन लोगों की जिंदगी छोटी कर रही है। 100 से ज्यादा गांवों में रहने वाले 30 हजार से अधिक गरीब आदिवासियों की जिंदगी इन्हीं खदानों पर आश्रित है। अधिकांशतः औरतें जब इन खदानों से अल्प-सी दिहाड़ी लेकर लौटती हैं तो रात काटनी भारी पड़ती है। फेफड़े में जमी सिलिका की परत सांस लेना मुश्किल कर देती है। इन लोगों के स्वास्थ्य को लेकर कई रिसर्च कराए गए हैं लेकिन रपटें स्वास्थ्य विभाग के किसी कोने में धूल फांक रही हैं।
इलाके के बलरामपुर गांव की तालकुरी टुडु महज 38 साल की हैं लेकिन दिखती हैं 65 की। चलती हैं लड़खड़ाते हुए। टुडु कभी यहां की खदानों में अपने पति और 18 साल के बेटे के साथ काम किया करती थीं। कुछ महीने पहले पति चल बसे। सके पहले सीने में दर्द शिकायत के कारण बेटे की मौत हो गई थी। अब वह जीना नहीं चाहती। जानती हैं कि किसी दिन वह भी अपने पति और बेटे के पास चली जाएगी। तालकुरी टुडु की तरह ही इस इलाके में कई आदिवासी युवक युवतियां हैं जिनकी जिंदगी के अब कम ही दिन बचे हैं। यहां की खदानों से समूचे पूर्वी भारत में गिट्टी और पत्थर की आपूर्ति होती है मगर अधिकांश क्रशर मालिकों के पास लाइसेंस नहीं हैं इसलिए रात के समय क्रशर ज्यादा चलते हैं। जाहिर है, मजदूरों की सुरक्षा की गारंटी का सवाल ही नहीं है। नयनपुर गांव के निवासी शंकर चौधरी के अनुसार कई लोग तो रातोंरात अमीर हो गए। उन्हें कोई नहीं पूछता। इन क्रशर्स में शोषण शब्द तो पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। वजह है, काम की लंबी अवधि, कम पगार और स्वास्थ्य सुविधाओं का न होना।
बलरामपुर गांव के शिवचरण मुर्मू कहते हैं, ‘क्रशर्स में हम सुबह सात बजे काम पर पहुंचते हैं और दोपहर डेढ़ बजे आधे घंटे का आराम मिलता है।’ मुर्मू की एक महीने की बेटी के शरीर में जगह-जगह फफोले हो गए हैं जिनमें से खून रिसता रहता है। वह अपनी पत्नी के साथ 15 किलोमीटर दूर स्थित सरकारी स्वास्थ्य केंद्र गया था जहां के डॉक्टर ने उसे एक मरहम लगाने को दिया था लेकिन फायदा नहीं हुआ। इस इलाके में फेफड़े के रोगों का अध्ययन करने वाले चिकित्सक रूपक घोष के अनुसार, ‘मुर्मू के मामले में हमने पाया कि उसके बच्चे को लगाने के लिए क्लोरोसिन आई-ऑइंटमेंट दे दिया गया था। उसकी एक्सपायरी डेट 2007 की थी।’ डॉक्टर घोष के अनुसार, इस इलाके के स्वास्थ्य केंद्रों में ऐसी लापरवाही आम है।
वीरभूम, बांकुड़ा, मेदिनीपुर और पुरुलिया जिलों के विभिन्न इलाकों में स्थित क्रशर्स में काम करने वालों के स्वास्थ्य को लेकर हाल में छह चिकित्सकों और 10 पर्यावरण विशेषज्ञों की एक टीम ने तीन महीने तक अध्ययन किया। चिकित्सकों के लिए हैरत की बात यह रही कि इन इलाकों से इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराए गए 402 रोगियों में सिर्फ 1.28 फीसदी पर दवाओं का असर दिखा यानी बाकी में सिलिका जमने का प्रभाव इतना अधिक था कि इलाज नामुमकिन था। ऊपर से यहां कुपोषण का स्तर सौ फीसदी पाया गया। अधिकांश मजदूरों में लीवर सिरोसिस के लक्षण पाए गए। यहां काम करने वाले मजदूरों में से 80 फीसदी की हालत कमोबेश ऐसी ही है।
इन क्रशर्स में मजदूरों को दो श्रेणियों में बांटा गया है। पहला हाजिरी और दूसरा टिकली हाजिरी एक प्रकार से बंधुआ मजदूर हैं जो रोजाना 50 से 60 रुपए कमाते हैं। उनकी आमदनी इससे ज्यादा नहीं हो पाती। टिकली ठेका मजदूर हैं जो आस-पास के गांवों से लाए जाते हैं। ये लोग 70-80 रुपए तक कमा लेते हैं। पत्थर से भरी एक टोकरी ट्रक में लादने की मजदूरी 10 रुपए है। यहां काम करने वाली सरस्वती माग्दी के अनुसार, हाजिरी के लिए काम पर पहुंचना जरूरी है। इन क्रशर्स में तोड़ने के लिए बड़े-बड़े बोल्डर्स पास की चितुरगेडिया खदान से लाए जाते हैं। बंधुआ मजदूरी के बारे में प्रशासन को पता है लेकिन एक-दूसरे पर जिम्मेदारी टालने का खेल चलता है। रामपुरहाट के एसडीओ अमिताभ सेनगुप्ता के अनुसार, शिकायत मिलने पर कार्रवाई होती है।
हाल में स्कूल के पास चल रहे एक क्रशर को बंद कराया गया था लेकिन ऐसे मामलों में फैसला करने का अधिकार अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के पास होता है जो जिले का भू-राजस्व अधिकारी भी होता है। अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट तरुण सिंह महापात्र के अनुसार, क्रशर्स पर निगरानी रखना प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का काम है। दूसरे, कोई कार्रवाई करने के पहले हमें यह भी देखना पड़ता है कि इन इलाकों की आबादी रोजगार के लिए इन क्रशर्स पर ही निर्भर है। क्रशर्स से भू-राजस्व विभाग को रॉयल्टी मिलती है लेकिन प्रदूषण से संबंधित कोई कार्रवाई प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ही कर सकता है। उसी के जरिए कोई शिकायत मिलने पर हम कार्रवाई कर सकते हैं। कुछ अरसा पहले राज्य सरकार के श्रम मंत्रालय ने यहां के मजदूरों के स्वास्थ्य परीक्षण और दिहाड़ी के बारे में जांच करने के लिए एक कमेटी बनाई थी। डॉक्टर रूपक घोष की कमेटी इसी का एक हिस्सा थी लेकिन इस रिपोर्ट का क्या हुआ, यह किसी को पता नहीं।
राज्य के श्रम विभाग के अनुसार, उनका विभाग इस बारे में छानबीन करेगा। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के 1996 में आए एक आदेश के अनुसार, क्रशर्स चलाने के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से अनुमति लेना जरूरी है। क्रशर्स में काम करने वाले मजदूरों को मास्क दिए जाने चाहिए और उनका नियमति स्वास्थ्य परिक्षण होना चाहिए। झारखंड के चितुरगेडिया में 18 क्रशर मजदूरों की खदान में मौत बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार के हर्जाना भरना पड़ा था। उसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिशा-निर्देश भी दिए थे लेकिन बाद के दिनों में बंगाल में तो इसे गंभीरता से लिया ही नहीं गया। आज की तारीख में हालत यह है कि बंगाल के चार जिलों में चल रहे छह सौ से अधिक क्रशर्स से 50 हजार की आबादी प्रभावित हो रही है। खेती चौपट हो रही है। बचाव के छह सूत्री उपायों को लेकर स्वयंसेवी संगठन अरसे से हल्ला मचा रहे हैं। मसलन, मशीनों को ढंक कर रखा जाए, उन्हें शेड में रखा जाए, क्रशर्स चलने के दौरान छिड़काव किया जाए, मजदूरों को मास्क दिए जाएं, उन्हें क्रशर मालिकों की ओर से फल दिए जाएं जिससे धूल का कम असर पड़े और नियमित मेडिकल जांच हो लेकिन पुलिस-क्रशर मालिकों और प्रशासन की मिलीभगत से ऐसी लॉबी तैयार हुई है जिस पर कोई असर नहीं हो रहा।
इलाके के बलरामपुर गांव की तालकुरी टुडु महज 38 साल की हैं लेकिन दिखती हैं 65 की। चलती हैं लड़खड़ाते हुए। टुडु कभी यहां की खदानों में अपने पति और 18 साल के बेटे के साथ काम किया करती थीं। कुछ महीने पहले पति चल बसे। सके पहले सीने में दर्द शिकायत के कारण बेटे की मौत हो गई थी। अब वह जीना नहीं चाहती। जानती हैं कि किसी दिन वह भी अपने पति और बेटे के पास चली जाएगी। तालकुरी टुडु की तरह ही इस इलाके में कई आदिवासी युवक युवतियां हैं जिनकी जिंदगी के अब कम ही दिन बचे हैं। यहां की खदानों से समूचे पूर्वी भारत में गिट्टी और पत्थर की आपूर्ति होती है मगर अधिकांश क्रशर मालिकों के पास लाइसेंस नहीं हैं इसलिए रात के समय क्रशर ज्यादा चलते हैं। जाहिर है, मजदूरों की सुरक्षा की गारंटी का सवाल ही नहीं है। नयनपुर गांव के निवासी शंकर चौधरी के अनुसार कई लोग तो रातोंरात अमीर हो गए। उन्हें कोई नहीं पूछता। इन क्रशर्स में शोषण शब्द तो पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। वजह है, काम की लंबी अवधि, कम पगार और स्वास्थ्य सुविधाओं का न होना।
बलरामपुर गांव के शिवचरण मुर्मू कहते हैं, ‘क्रशर्स में हम सुबह सात बजे काम पर पहुंचते हैं और दोपहर डेढ़ बजे आधे घंटे का आराम मिलता है।’ मुर्मू की एक महीने की बेटी के शरीर में जगह-जगह फफोले हो गए हैं जिनमें से खून रिसता रहता है। वह अपनी पत्नी के साथ 15 किलोमीटर दूर स्थित सरकारी स्वास्थ्य केंद्र गया था जहां के डॉक्टर ने उसे एक मरहम लगाने को दिया था लेकिन फायदा नहीं हुआ। इस इलाके में फेफड़े के रोगों का अध्ययन करने वाले चिकित्सक रूपक घोष के अनुसार, ‘मुर्मू के मामले में हमने पाया कि उसके बच्चे को लगाने के लिए क्लोरोसिन आई-ऑइंटमेंट दे दिया गया था। उसकी एक्सपायरी डेट 2007 की थी।’ डॉक्टर घोष के अनुसार, इस इलाके के स्वास्थ्य केंद्रों में ऐसी लापरवाही आम है।
वीरभूम, बांकुड़ा, मेदिनीपुर और पुरुलिया जिलों के विभिन्न इलाकों में स्थित क्रशर्स में काम करने वालों के स्वास्थ्य को लेकर हाल में छह चिकित्सकों और 10 पर्यावरण विशेषज्ञों की एक टीम ने तीन महीने तक अध्ययन किया। चिकित्सकों के लिए हैरत की बात यह रही कि इन इलाकों से इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराए गए 402 रोगियों में सिर्फ 1.28 फीसदी पर दवाओं का असर दिखा यानी बाकी में सिलिका जमने का प्रभाव इतना अधिक था कि इलाज नामुमकिन था। ऊपर से यहां कुपोषण का स्तर सौ फीसदी पाया गया। अधिकांश मजदूरों में लीवर सिरोसिस के लक्षण पाए गए। यहां काम करने वाले मजदूरों में से 80 फीसदी की हालत कमोबेश ऐसी ही है।
इन क्रशर्स में मजदूरों को दो श्रेणियों में बांटा गया है। पहला हाजिरी और दूसरा टिकली हाजिरी एक प्रकार से बंधुआ मजदूर हैं जो रोजाना 50 से 60 रुपए कमाते हैं। उनकी आमदनी इससे ज्यादा नहीं हो पाती। टिकली ठेका मजदूर हैं जो आस-पास के गांवों से लाए जाते हैं। ये लोग 70-80 रुपए तक कमा लेते हैं। पत्थर से भरी एक टोकरी ट्रक में लादने की मजदूरी 10 रुपए है। यहां काम करने वाली सरस्वती माग्दी के अनुसार, हाजिरी के लिए काम पर पहुंचना जरूरी है। इन क्रशर्स में तोड़ने के लिए बड़े-बड़े बोल्डर्स पास की चितुरगेडिया खदान से लाए जाते हैं। बंधुआ मजदूरी के बारे में प्रशासन को पता है लेकिन एक-दूसरे पर जिम्मेदारी टालने का खेल चलता है। रामपुरहाट के एसडीओ अमिताभ सेनगुप्ता के अनुसार, शिकायत मिलने पर कार्रवाई होती है।
हाल में स्कूल के पास चल रहे एक क्रशर को बंद कराया गया था लेकिन ऐसे मामलों में फैसला करने का अधिकार अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के पास होता है जो जिले का भू-राजस्व अधिकारी भी होता है। अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट तरुण सिंह महापात्र के अनुसार, क्रशर्स पर निगरानी रखना प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का काम है। दूसरे, कोई कार्रवाई करने के पहले हमें यह भी देखना पड़ता है कि इन इलाकों की आबादी रोजगार के लिए इन क्रशर्स पर ही निर्भर है। क्रशर्स से भू-राजस्व विभाग को रॉयल्टी मिलती है लेकिन प्रदूषण से संबंधित कोई कार्रवाई प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ही कर सकता है। उसी के जरिए कोई शिकायत मिलने पर हम कार्रवाई कर सकते हैं। कुछ अरसा पहले राज्य सरकार के श्रम मंत्रालय ने यहां के मजदूरों के स्वास्थ्य परीक्षण और दिहाड़ी के बारे में जांच करने के लिए एक कमेटी बनाई थी। डॉक्टर रूपक घोष की कमेटी इसी का एक हिस्सा थी लेकिन इस रिपोर्ट का क्या हुआ, यह किसी को पता नहीं।
राज्य के श्रम विभाग के अनुसार, उनका विभाग इस बारे में छानबीन करेगा। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के 1996 में आए एक आदेश के अनुसार, क्रशर्स चलाने के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से अनुमति लेना जरूरी है। क्रशर्स में काम करने वाले मजदूरों को मास्क दिए जाने चाहिए और उनका नियमति स्वास्थ्य परिक्षण होना चाहिए। झारखंड के चितुरगेडिया में 18 क्रशर मजदूरों की खदान में मौत बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार के हर्जाना भरना पड़ा था। उसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिशा-निर्देश भी दिए थे लेकिन बाद के दिनों में बंगाल में तो इसे गंभीरता से लिया ही नहीं गया। आज की तारीख में हालत यह है कि बंगाल के चार जिलों में चल रहे छह सौ से अधिक क्रशर्स से 50 हजार की आबादी प्रभावित हो रही है। खेती चौपट हो रही है। बचाव के छह सूत्री उपायों को लेकर स्वयंसेवी संगठन अरसे से हल्ला मचा रहे हैं। मसलन, मशीनों को ढंक कर रखा जाए, उन्हें शेड में रखा जाए, क्रशर्स चलने के दौरान छिड़काव किया जाए, मजदूरों को मास्क दिए जाएं, उन्हें क्रशर मालिकों की ओर से फल दिए जाएं जिससे धूल का कम असर पड़े और नियमित मेडिकल जांच हो लेकिन पुलिस-क्रशर मालिकों और प्रशासन की मिलीभगत से ऐसी लॉबी तैयार हुई है जिस पर कोई असर नहीं हो रहा।
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