पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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गंगा-जल
Posted on 26 Sep, 2013 01:44 PM फूटकर समृद्धि की स्रोत स्वर्णधारा से
छलकी
गंगा बही धर्मशील,
सूर्य स्थान था
जहां से मानव-स्वरूप
कोई धर्मावतार
रत्नजटित, आभूषित, स्वयं घटित,
हिम के धवल श्रृंगों पर
आदिम आश्चर्य बना :

जनता का शक्ति धन
साधन धनवानों का...
उसी चकाचौंध में सज्जनता छली गई,
धर्म धाक,
भोला गजरात चतुर अंकुश से आतंकित
अहंहीन दास बना,
नदी से, भाग-2
Posted on 26 Sep, 2013 01:37 PM जितना ही जल
अंजलि में तुममें से उठा पाता हूँ
मेरे लिए तुम उतनी ही हो।
उससे ही अपनी तृषा शांत करता हूँ
उससे ही अपने भीतर उगते सूर्य को
अर्घ्य चढ़ाता हूँ।
और हर बार रीती अंजलि
आँखों और मस्तक से लगा
अनुभव करता हूँ
मैं तुम्हें
अपने भीतर
बहते देख रहा हूँ।

नदी से, भाग 1
Posted on 26 Sep, 2013 01:31 PM तमाम दोपहर-
मैं तुम्हारे किनारे घूमता रहा
बिना यह जाने कि तुम कहां से आई हो
और किससे मिलने जा रही हो
तुम्हारी कितनी थाह है।
मुझे केवल वे लहरियाँ अच्छी लगती रहीं
जो तुममें उठती रहीं-
धूप में झिलमिलाती, खिलखिलातीं
मछलियों-सी कलाबाजियाँ खातीं, फिसलतीं।
लगातार यह कुतूहल मुझमें बना रहा
कि अंजुलि में भरते ही
वह लहराता रूप कहां चला जाता है।
विवशता
Posted on 24 Sep, 2013 01:50 PM कितना चौड़ा पाट नदी का, कितनी भारी शाम,
कितने खोए-खोए-से हम, कितना तट निष्काम,
कितनी बहकी-बहकी-सी दूरागत-वंशी-टेर
कितनी टूटी-टूटी-सी नभ पर विहगों की फेर,
कितनी सहमी-सहमी-सी क्षिति की सुरमई पिपासा,
कितनी सिमटी-सिमटी-सी जल पर तट-तरु-अभिलाषा,
कितनी चुप-चुप गई रोशनी, छिप-छिप आई रात,
कितनी सिहर-सिहर कर अधरों से फूटी दो बात,
स्मृति
Posted on 24 Sep, 2013 01:49 PM पैर रखते ही
बाँस का पुल
चरमराता डोलता है।

कहीं नीचे बहुत गहरी अतल खाई है।

सबल उत्कंठा
नवल आवेग
आगे खींचते हैं,
‘लौट आओ’
चीखकर भय कहीं पीछे बोलता है।

आह! स्मृति की अजानी राह-
दर्द अजगर-सा
निगलकर उगल देता है।-
शेष हैं तारे,
पार का वह घना झुरमुट
दूर सिमटी नदी,
खुले स्वर के पाल,
एक सूनी नाव
Posted on 24 Sep, 2013 01:48 PM एक सूनी नाव
तट पर लौट आई।
रोशनी राख-सी
जल में घुली, बह गई,
बंद अधरों से कथा
सिमटी नदी कह गई,
रेत प्यासी
नयन भर लाई।
भीगते अवसाद से
हवा श्लथ हो गई
हथेली की रेख काँपी
लहर सी खो गई
मौन छाया
कहीं उतराई।
स्वर नहीं,
चित्र भी बहकर
गए लग कहीं,
स्याह पड़ते हुए जल में
रात खोई-सी
उभर आई।
एक सूनी नाव
कुआनो नदी
Posted on 24 Sep, 2013 01:44 PM फिर बाढ़ आ गई होगी उस नदी में
पाक का फुटहिया बाजार बह गया होगा,
पेड़ की शाखों में बाँधे खटोले पर
बैठे होंगे बच्चे किसी काछी के
और नीचे कीचड़ में खड़े होंगे चौपाए
पूँछ से मक्खियाँ उड़ाते।
मेरी निगाह कुछ कमजोर हो गई है।
दिल्ली की सड़के दीखती हैं जैसे कुआनो नदी-
नदी जो एक कुएँ से निकली है
जिसे मैं अपने बचपन में
गंगे!
Posted on 24 Sep, 2013 01:40 PM परिवर्तित काल-पटल पर अंकित करती अपना ज्योति-ज्वार।
‘गं-गं’ स्वर में जाने कब से उद्गीथ गा रही गंग-धार।।

अग-जग में प्राण-पुलक भरती, अहरह मुद मंगल-भरिता है।
कैसे कह दूँ, इस धरणी पर मातः, तू केवल सरिता है।।

तु उस लघु मानव की स्मृति जो वामन से कभी विराट् हुआ।
लघुता का अनु हो ब्रह्मांडित, देवों का भी अभिराट् हुआ।।
दृष्टि अभिसार
Posted on 24 Sep, 2013 01:39 PM वह दिवस अद्भुत रहा, वह धूलि धूसर साँझ
दिन-भर बेंत वन के मध्य, क्षीण कटि,
वैतसी तनु-भार चंदन-खौरी
साजती,अनिमेष लोचन ताकती
कोमल नरम बपु श्यामली,
एक वह कोई नदी।
और, मैं मानस-मुकुल को भूनता
सृष्टि को निष्कर्म सिद्धि बाँटता
काष्ठमौनी सिद्धियों का पीता रहा काषाय।
(कटु काषाय पर ही स्वाद जल का मिष्ट होता है।)
पर वह दिवस अद्भुत रहा, वह धूलि-धूसर साँझ
चेतना की नदी
Posted on 24 Sep, 2013 01:37 PM (नदी प्रतीक है त्रिकालव्यापी व्यक्ति चैतन्य के प्रवाह की। इसी व्यक्ति चैतन्य के भीतर लोक चैतन्य (कलेक्टिव कांशसनेस) भी प्रतिष्ठित है, ठीक वैसे ही जैसे व्यक्तिदेह के भीतर कूटस्थ अचल विश्वसत्ता प्रकाशित है। अतः जो मेरी नदी है वह सर्वव्यापिनी भी है और मेरा भोग, मेरा आस्वाद वास्तव में एक प्रीतिभोज है, सारे समूह के भोग और आस्वादन से जुड़ा हुआ। यदि उस बाहर की नदी के साथ भीतर की नदी का, जो वस्तुतः एक चैत
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