स्मृति

पैर रखते ही
बाँस का पुल
चरमराता डोलता है।

कहीं नीचे बहुत गहरी अतल खाई है।

सबल उत्कंठा
नवल आवेग
आगे खींचते हैं,
‘लौट आओ’
चीखकर भय कहीं पीछे बोलता है।

आह! स्मृति की अजानी राह-
दर्द अजगर-सा
निगलकर उगल देता है।-
शेष हैं तारे,
पार का वह घना झुरमुट
दूर सिमटी नदी,
खुले स्वर के पाल,
गीत की वह कड़ी तिरती है
हिल गई है एक सूखी डाल।

Path Alias

/articles/samartai

Post By: admin
×