राजस्थान

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चम्बल
Posted on 20 Feb, 2010 03:46 PM


इत यमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस,
छत्रसाल से लरन की, रही न काहू हौंस।

प्रदूषण
Posted on 10 Feb, 2010 09:43 AM सतही पानी की अपेक्षा भूमिगत पानी के लिए प्रदूषण का खतरा कम है। लेकिन उसके प्रदूषण को पहचानना और सुधारना ज्यादा कठिन है। ताजा अध्ययनों से लगता है कि भूमिगत पानी के प्रदूषण की समस्या बढ़ रही है। कुछ इलाकों में तो यह काफी गंभीर है। इसके कुछेक दोषी ये हैं : राजस्थान में कपड़ा रंगाई-छपाई की इकाइयां, तमिलनाडु के चमड़ा शोधन केंद्र और रेशा उद्योग केंद्र।
जंगल का कटान
Posted on 08 Feb, 2010 05:30 PM

ज्यादातर खदानें वन क्षेत्रों में हैं। इसका अनिवार्य परिणाम यह है कि वहां के जंगल कटते हैं और भूक्षरण होता है। सुरंग वाली खानों के लिए भी काफी मात्रा में जंगल कटते हैं, क्योंकि सुरंगों की छतों को लट्ठों से सहारा दिया जाता है। गोवा में खानों के लिए पट्टे पर दी गई जमीन कुल जंगल का 43 प्रतिशत है। गोवा, दमन और दीव के वनसंरक्षक ने 1981 में कहा था, “खान के लिए जमीन देते समय पट्टे में कोई शर्त न
भीनासर आंदोलन - शायद इसलिए गोचर हरा-भरा है
Posted on 06 Feb, 2010 05:11 PM लेकिन बिना किसी सरकारी या गैर सरकारी मदद के खुद ही अपनी परंपरा को पहचान कर गोचर भूमि को हरा-भरा करने का जैसा उम्दा आंदोलन बीकानेर (राजस्थान) के भीनासर में प्रारंभ किया गया है वह अद्भुत है। अब राखी के दिन सिर्फ बहनें अपने भाइयों को राखी नहीं बांधती। भाई भी भाइयों को बांधते हैं और एक दूसरे की रक्षा करने का वचन देने के बजाय गांव के गोचर की रक्षा की प्रतिज्ञा दुहराते हैं। दो साल से भीनासर में राखी गां
अपार संभावनाएं
Posted on 06 Feb, 2010 02:04 PM यों हमारे यहां चरागाह के लिए अपार संभावनाएं हैं जैसे पश्चिमी राजस्थान में ऐसी जमीन बहुत है जो खेती लायक नहीं है। एक सर्वे के अनुसार पश्चिम राजस्थान के 11 जिलों में खेती योग्य परती जमीन 94.7 लाख हेक्टेयर और स्थायी चरागाह के योग्य जमीन 45.6 लाख हेक्टेयर है। इसमें थोड़ा भी सुधार कर लिया जाए तो भी बहुत बड़ी संख्या में पशुधन का गुजारा हो सकता है।
आगे क्या करें?
Posted on 06 Feb, 2010 01:59 PM चरागाहों के धीरे-धीरे क्षीण होते जाने पर हमारे जैसे विशाल देश के पशुधन की ठीक देख-भाल में अनेक गंभीर समस्याएं खड़ी हो गई हैं। सबसे बड़ा संकट तो खानाबदोश समाज पर पड़ा है। ‘बढ़ते रेगिस्तान’ पर नैरोबी में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में विशेषज्ञों ने सर्वसम्मति से स्वीकार से स्वीकार किया था कि सूखे और अधसूखे इलाकों के नाजुक पर्यावरण का सही उपयोग करने की दृष्टी से पशुपालन का सर्वोत्तम तरीका घुमंतूपन औ
सूखा और अभाव
Posted on 06 Feb, 2010 01:50 PM देश में बहुत सारे इलाके ऐसे हैं जहां हर चार-पांच साल में एक बार सूखा पड़ रहा है। राजस्थान, गुजरात और आंध्र प्रदेश में तो दो-तीन साल में सूखा पड़ता है। पश्चिमी राजस्थान तो हर ढाई साल में सूखे का शिकार होता है। भौगालिक क्षेत्र के हिसाब से कहें तो बार-बार सूखे का शिकार होने वाला भूभाग देश की कुल भूमि का 19 प्रतिशत है और कुल आबादी के 12 प्रतिशत लोग इसकी पकड़ में आते हैं। राहत की जो भी व्यवस्था की जाती
घुमंतुओं का आवागमन
Posted on 06 Feb, 2010 01:44 PM केंद्रीय मरुभूमि शोध संस्थान के डॉ.
राजस्थान में घुमंतू
Posted on 06 Feb, 2010 01:39 PM रूखी आबोहवा में पशुपालन ही सबसे ज्यादा सुरक्षित धंधा है। किसी साल सूखा पड़ता है तो हो सकता है खेती में अच्छे मौसम की तुलना में 10 प्रतिशत से भी कम पैदावार हो, लेकिन दूध और ऊन की पैदावार में 50 प्रतिशत से ज्यादा ही पैदावार रहती है।
चार विकल्प
Posted on 06 Feb, 2010 01:32 PM सार्वजनिक संसाधनों के ह्रास के कारण गांव के सामने चार विकल्प रह गए हैं- ऐसे इलाकों में चले जाएं जहां संसाधन भरपूर हों, अपने पशुओं की संख्या कम कर दें, बची हुई सार्वजनिक जमीन का ज्यादा लाभ उठाने की दृष्टि से पुराना रिवाज छोड़कर नए सिरे से तय करें कि किस प्रकार के जानवर पालने हैं, या सार्वजनिक जमीन का भरोसा छोड़ अपना प्रबंध खुद करें, भले ही इसमें पशुपालन का खर्च एकदम बढ़ जाए। लोग इन चारों विकल्पों क
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