चरागाहों के धीरे-धीरे क्षीण होते जाने पर हमारे जैसे विशाल देश के पशुधन की ठीक देख-भाल में अनेक गंभीर समस्याएं खड़ी हो गई हैं। सबसे बड़ा संकट तो खानाबदोश समाज पर पड़ा है। ‘बढ़ते रेगिस्तान’ पर नैरोबी में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में विशेषज्ञों ने सर्वसम्मति से स्वीकार से स्वीकार किया था कि सूखे और अधसूखे इलाकों के नाजुक पर्यावरण का सही उपयोग करने की दृष्टी से पशुपालन का सर्वोत्तम तरीका घुमंतूपन और क्षेत्रों की बदली का ही है।
लेकिन लगता है कि हमारी सरकार की समझ में अभी यह बात आई नहीं है। उसने ऐसी कोई नीति नहीं बनाई है जिससे घुमंतू लोगों को बदलते पर्यावरण के अनुसार खुद को ढाल लेने या उन्हें पर्यावरण को सुधारने में ही मदद मिले।
अधिकांश सरकारी विभागों की कोशिश यही रहती है कि घुमंतू लोगों को एक जगह बसा दिया जाए। पर्यावरण विभाग की एक रिपोर्ट तो कहती है कि “ये घुमंतू वर्तमान समाज के लिए एक मुसीबत हैं और इनकी घुमक्कड़ी खत्म किए बिना कोई चारा नहीं है”। सरकार की नीतियों, पर्यावरण विनाश तथा स्थायी निवासियों के बढ़ते आक्रोश आदि के कारण अनेक घुमंतू समूहों ने घुमक्कड़ी छोड़ दी और बेजमीन मजदूर बन गए हैं।
एक जमाने में पर्यावरण संसाधनों और चराई के परिणाम के बीच जो प्राकृतिक संतुलन रहा करता था, वह अब गड़बड़ा गया है। घुमंतुओं को जो पहले सहज उपलब्ध था, अब उसका मिलना मुश्किल हो गया है। कारण साफ है। एक तो सरकार के पास चरागाहों को सुरक्षित रखने की नीतियों का अभाव और फिर कमजोर जमीन में भी खेती को बढ़ावा देने वाली सरकारी नीतियां और भी कहर ढा रही हैं। ऐसी हालत में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए चरवाहों ने अपने जानवरों की संख्या बढ़ा ली है और वे उन्हें पेड़-पौधों की टहनियों और पत्तों पर पालने लगे हैं। नतीजा यह हुआ कि उजड़े हुए चरागाहों से बाहर निकले पशु जंगलों की राह पकड़ने लगे हैं। इससे जंगलों पर भार बढ़ता जा रहा है। लेकिन मुख्यमंत्रियों से लेकर कैविनेट मंत्रियों तक किसी भी राजनीतिज्ञ को घुमंतू जनों की समस्याओं का एहसास बिल्कुल नहीं है और इसलिए ये यही पसंद करेंगे कि ये लोग मर-खप जाएं ताकि समस्या खत्म हो।
पिछले दौर में देश में चारे की पैदावार बढ़ाने के लिए कुछ छिटपुट कोशिशें किसानों ने अपनी निजी जमीन में की थीं। फिर 1953 में नई दिल्ली के भारतीय कृषि शोध संस्थान ने चारा और चरागाह के आर्थिक पक्ष और उनकी किस्म सुधारने का कुछ काम शुरू किया था। 1955 में करनाल में नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टियूट की स्थापना से चारे वाली फसलों पर शोध को बल मिला। 1959 में जोधपुर केन्द्रीय मरुभूमि शोध संस्थान की स्थापना हुई। 1962 में झांसी में चरागाह और घास पर शोध करने वाली एक और संस्था खोली गई। फिर 1970 में चारे वाली फसलों की एक समन्वित योजना शुरू की गई। देश के अलग-अलग राज्यों में इसके आठ केंद्र और छह उपकेंद्र आबोहवा की भिन्नता को ध्यान में रखकर खोले गए। अनेक राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों में भी चारे वाली फसलों पर कुछ काम हुआ।
चूंकि औसत जोत का रकबा छोटा रहता है इसलिए सभी क्षेत्रीय संस्थाएं वर्तमान फसलचक्र में चारे को खासकर फसलों को स्थान देने की हिमायात करती हैं। किसानों तक चारे वाली फसलों की अधिक उपज वाली किस्मों के बीज भी पहुंचाने की कोशिश हो रही है।
लेकिन सार्वजनिक जमीन में चारे वाले पेड़ लगाने और घास के मैदानों को फिर से हरा-भरा करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया है। झांसी की शोध संस्था का कहना है कि केवल उन झाड़ियों को हटा देने भर से प्रति हेक्टेयर 1.2 से 4.2 टन तक घास में सालाना वृद्धि हो सकती है।
पशुपालन राज्यों का विषय है। राज्य की योजनाओं में चारे का विकास एक गौण कार्य है। चौथी पंचवर्षीय योजना में पशुपालन के लिए नियत कुल राशि का केवल 4.2 प्रतिशत भाग चारे-दाने पर खर्च हुआ था। पांचवीं पंचवर्षीय योजना में तो वह 2.9 ही रहा।
लेकिन लगता है कि हमारी सरकार की समझ में अभी यह बात आई नहीं है। उसने ऐसी कोई नीति नहीं बनाई है जिससे घुमंतू लोगों को बदलते पर्यावरण के अनुसार खुद को ढाल लेने या उन्हें पर्यावरण को सुधारने में ही मदद मिले।
अधिकांश सरकारी विभागों की कोशिश यही रहती है कि घुमंतू लोगों को एक जगह बसा दिया जाए। पर्यावरण विभाग की एक रिपोर्ट तो कहती है कि “ये घुमंतू वर्तमान समाज के लिए एक मुसीबत हैं और इनकी घुमक्कड़ी खत्म किए बिना कोई चारा नहीं है”। सरकार की नीतियों, पर्यावरण विनाश तथा स्थायी निवासियों के बढ़ते आक्रोश आदि के कारण अनेक घुमंतू समूहों ने घुमक्कड़ी छोड़ दी और बेजमीन मजदूर बन गए हैं।
एक जमाने में पर्यावरण संसाधनों और चराई के परिणाम के बीच जो प्राकृतिक संतुलन रहा करता था, वह अब गड़बड़ा गया है। घुमंतुओं को जो पहले सहज उपलब्ध था, अब उसका मिलना मुश्किल हो गया है। कारण साफ है। एक तो सरकार के पास चरागाहों को सुरक्षित रखने की नीतियों का अभाव और फिर कमजोर जमीन में भी खेती को बढ़ावा देने वाली सरकारी नीतियां और भी कहर ढा रही हैं। ऐसी हालत में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए चरवाहों ने अपने जानवरों की संख्या बढ़ा ली है और वे उन्हें पेड़-पौधों की टहनियों और पत्तों पर पालने लगे हैं। नतीजा यह हुआ कि उजड़े हुए चरागाहों से बाहर निकले पशु जंगलों की राह पकड़ने लगे हैं। इससे जंगलों पर भार बढ़ता जा रहा है। लेकिन मुख्यमंत्रियों से लेकर कैविनेट मंत्रियों तक किसी भी राजनीतिज्ञ को घुमंतू जनों की समस्याओं का एहसास बिल्कुल नहीं है और इसलिए ये यही पसंद करेंगे कि ये लोग मर-खप जाएं ताकि समस्या खत्म हो।
पिछले दौर में देश में चारे की पैदावार बढ़ाने के लिए कुछ छिटपुट कोशिशें किसानों ने अपनी निजी जमीन में की थीं। फिर 1953 में नई दिल्ली के भारतीय कृषि शोध संस्थान ने चारा और चरागाह के आर्थिक पक्ष और उनकी किस्म सुधारने का कुछ काम शुरू किया था। 1955 में करनाल में नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टियूट की स्थापना से चारे वाली फसलों पर शोध को बल मिला। 1959 में जोधपुर केन्द्रीय मरुभूमि शोध संस्थान की स्थापना हुई। 1962 में झांसी में चरागाह और घास पर शोध करने वाली एक और संस्था खोली गई। फिर 1970 में चारे वाली फसलों की एक समन्वित योजना शुरू की गई। देश के अलग-अलग राज्यों में इसके आठ केंद्र और छह उपकेंद्र आबोहवा की भिन्नता को ध्यान में रखकर खोले गए। अनेक राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों में भी चारे वाली फसलों पर कुछ काम हुआ।
चूंकि औसत जोत का रकबा छोटा रहता है इसलिए सभी क्षेत्रीय संस्थाएं वर्तमान फसलचक्र में चारे को खासकर फसलों को स्थान देने की हिमायात करती हैं। किसानों तक चारे वाली फसलों की अधिक उपज वाली किस्मों के बीज भी पहुंचाने की कोशिश हो रही है।
लेकिन सार्वजनिक जमीन में चारे वाले पेड़ लगाने और घास के मैदानों को फिर से हरा-भरा करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया है। झांसी की शोध संस्था का कहना है कि केवल उन झाड़ियों को हटा देने भर से प्रति हेक्टेयर 1.2 से 4.2 टन तक घास में सालाना वृद्धि हो सकती है।
पशुपालन राज्यों का विषय है। राज्य की योजनाओं में चारे का विकास एक गौण कार्य है। चौथी पंचवर्षीय योजना में पशुपालन के लिए नियत कुल राशि का केवल 4.2 प्रतिशत भाग चारे-दाने पर खर्च हुआ था। पांचवीं पंचवर्षीय योजना में तो वह 2.9 ही रहा।
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