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पर्यावरण को बचाना है तो सभी क्षेत्रों में वैकल्पिक स्रोतों को अपनाएं
Posted on 12 Jun, 2014 12:03 PM

देश तरक्की की राह पर दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, लेकिन जिस गति से तरक्की हो रही है, उसी गति से हमारे देश में पर्यावरण की समस्या भी बढ़ रही है। जमीन, जंगल और पानी कम हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें वर्तमान सरकार भी पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर दिख रही है। इस कारण प्रत्येक वर्ष हमें केंद्रीय बजट में पर्यावरण संरक्षण के लिए जरूरी प्रयासों की झलक दिखाई पड़ती रहती है। उधर केंद्र सरकार ने विकास की जरूरत क

giridih pollution
भूमि को प्रदूषण से बचाने की करें शुरूआत
Posted on 11 Jun, 2014 03:38 PM विशेषज्ञों का कहना है कि पर्यावरण में बदलाव के कारण भारत में चावल और गेहूं की ऊपज में कमी आयेगी। पर्यावरण में हो रहे बदलाव के परिणाम स्वरूप प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोतरी होगी और इसकी सबसे गहरी चोट गरीबों पर पड़ेगी।
पर्यावरण संरक्षण के माध्यम से मिली आजीविका
Posted on 11 Jun, 2014 11:36 AM प्रमोद महतो रांची के ओरमांझी के कुल्ही गांव में निजी विद्यालय चलाने और खेतीबाड़ी का काम करते हैं। गांव में चलाये जा रहे समेकित जलछाजन प्रबंधन कार्यक्रम के सचिव के रूप में कार्य करते हुए वे वर्षा जल संरक्षण के साथ सामुदायिक सब्जी पौधशाला चलाने का काम करते हैं। ये अपने गांव के किसानों को उन्नत किस्म के पौधे उचित दाम पर उपलब्ध कराते हैं। भारतीय बागवानी अनुसंधान परिषद, पलांडू द्वारा विकसित बैगन की स्वर
पर्यावरण संरक्षण में पंचायती राज का हो सकता है अहम योगदान
Posted on 11 Jun, 2014 11:06 AM भारतीय संविधान के 73वें संशोधन के उपरांत ग्यारहवीं अनुसूची के अंतर्गत पंचायती राज सहकारिता विषय निम्न प्रकार है :
कल्याणकारी (प्राकृतिक) खाद द्वारा कृषि विकास
जल संग्रहण विकास
सामाजिक वानिकी
लघु वन उत्पाद
जल निकायों का निकर्षण एवं साफ–सफाई
व्यर्थ जल संग्रहण एवं निष्कासन
सामुदायिक बायोगैस प्लांटों की स्थापना
र्इंधन व चारा विकास
तबाही के कारखाने
Posted on 23 Feb, 2014 04:10 PM आदिवासियों को आज भी मनुष्य से एक दर्जा नीचे का जीव माना जाता है। वे तो शुरू से विकास की खाद बनते रहे हैं। अंग्रेजों ने यही किया। देशी हुक्मरानों ने यही किया और अलग राज्य बनने के बाद आदिवासी मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में चल रही सरकारें भी यही कर रही हैं। इसे ही समाजशास्त्री के नेतृत्व में चल रही सरकारें भी यही कर रही हैं। इसे ही समाजशास्त्री आंतरिक उपनिवेशवादी शोषण कहते हैं और इससे लगता है कि आदवासी जनता को अभी मुक्ति नहीं। पूर्वी सिंहभूम के हरे-भरे चांडिल क्षेत्र में स्पंज आयरन कारखानों की चिमनियों से निकलता खतरनाक धुआं वहां के जन-जीवन पर घने कोहरे की तरह छाता जा रहा है। स्पंज आयरन कारखानों की चिमनियों से निकलने वाली गैसों में सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड प्रमुख हैं।

इसके अलावा उन गैसों में केडियम, क्रोमियम, आर्सेनिक, मैगनीज, सीसा, पारा जैसे खतरनाक तत्वों के बारीक कण भी मौजूद होते हैं, जो हवा के साथ मिल कर जहरीली गैसों में बदल जाते और बहुत आसानी से सांस के साथ मानव शरीर में पहुंच जाते हैं। वे युद्ध में प्रयुक्त होने वाले रासायनिक जहरीली गैसों से कम खतरनाक नहीं होते, फर्क सिर्फ इतना है कि उससे मौत तत्काल नहीं होती, लोग तिल-तिल कर मरते हैं। लेकिन इसकी चिंता न कारखाना मालिकों को है और न सरकार को।
ग्रामीणों के प्रयास से खेतों में आया नदी का पानी
Posted on 18 Feb, 2014 01:18 PM ग्रामीणों के प्रयास से हरीयाली आईसिजुआ। बाघमारा की मालकेरा दक्षिण पंचायत का बाड़ूघुटू गांव कभी पानी के लिए तरसता था, लेकिन अब वहां इसकी स्थाई व्यवस्था ह
फ्लोराइड क्या है और यह कहाँ पाया जाता है
Posted on 16 Feb, 2014 12:25 PM फ्लोराइडयुक्त जल और कैंसर के अन्तर्सम्बन्ध को लेकर सालों तक बहस चली है। यह बहस फिर से धरातल पर आया जब
खनन का अधिकार चाहिए
Posted on 06 Jan, 2014 02:43 PM कर्णपुरा घाटी के मूल निवासी डॉ.
काला सोना बचाने की जंग
Posted on 31 Dec, 2013 01:13 PM झारखंड की कर्णपुरा घाटी में धरती के नीचे दबे कोयले को हड़पने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियां लंबे अरसे से जुटी हुई हैं। लेकिन अब वहां के स्थानीय बाशिंदों ने अपनी इस खनिज संपदा को बचाने के लिए कमर कस ली है। सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने भी उनका उत्साह बढ़ाया है। इस उभरते आंदोलन का जायजा ले रहे हैं मनोज त्यागी।

कर्णपुरा घाटी में आराहरा जैसे दो सौ पाच गांव हैं जिनकी जमीन के नीचे ऐसा ही काला सोना मौजूद है। इन गांवों में साढ़े तीन लाख की आबादी रहती है। एनटीपीसी के अलावा पैंतीस और देशी विदेशी कंपनियों को सरकार इन गांवों की जमीन को कोयला ब्लाकों में तब्दील कर अब तक आबंटित कर चुकी है। यहां जमीन के अधिग्रहण की पुरजोर कोशिश कंपनियां कर रही हैं, पर इन गांवों के किसान हकीकत समझ गए हैं। उन्होंने अपने नजदीक में पहले खुली खदानों से विस्थापित हुए किसानों का दर्दनाक हाल देखा है। वे दहशत में हैं। शायद इसी दहशत से उनमें एक नया संकल्प उभर रहा है। झारखंड के हजारीबाग जिले के बड़का गांव प्रखंड में कर्णपुरा घाटी के बीच में स्थित है आराहरा गांव। पूरे गांव के नीचे काला सोना कहे जाने वाले बेशकीमती कोयले का विशाल भंडार है। रांची के सेंट्रल प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट (सीएमपीडीआईएल) के अध्ययन के मुताबिक यहां एक एकड़ जमीन के नीचे औसतन एक लाख से ढाई लाख टन कोयला भंडार है जिसका बाजार मूल्य करीब साठ करोड़ रुपए बैठता है। यहां कोयला खनन के लिए जमीन के अंदर खान नहीं बनानी पड़ती, ऊपर की तीन-चार फुट मिट्टी हटा देने से कोयले की परत चमकाने लगती है औऱ उसे गैंती से तोड़कर या हल्का-फुल्का विस्फोट करके उखाड़ा जा सकता है।
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