देश तरक्की की राह पर दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, लेकिन जिस गति से तरक्की हो रही है, उसी गति से हमारे देश में पर्यावरण की समस्या भी बढ़ रही है। जमीन, जंगल और पानी कम हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें वर्तमान सरकार भी पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर दिख रही है। इस कारण प्रत्येक वर्ष हमें केंद्रीय बजट में पर्यावरण संरक्षण के लिए जरूरी प्रयासों की झलक दिखाई पड़ती रहती है। उधर केंद्र सरकार ने विकास की जरूरत को रेखांकित करते हुए पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है। ।
पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने 203 नए कोयला क्षेत्रों में खनन के प्रस्तावों पर यह कहते हुए मंजूरी देने से इंकार कर दिया था अगर इन क्षेत्रों में खनन होता है तो इससे प्रदूषण तो फैलेगा ही, वहां के हरित क्षेत्र का भी नामोनिशान मिट जाएगा। इससे स्पष्ट हेता है कि विकास की मौजूदा औद्योगिक नीतियों के चलते हमारे पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंच रहा है। इसी अहसास के चलते विनाशकारी विकास और पर्यावरण के बीच टकराव भी देखने को मिलता है।
इस देश में र्इंधन और बिजली उत्पादन में कोयला एक बड़ा कारक रहा है, लेकिन उससे होने वाले प्रदूषण और धरती के बढ़ते तापमान ने समूची दुनिया को ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के बारे में सोचने पर मजबूर किया है। इसलिए अब जरूरत इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचने और नयी नीति तैयार करने की है। ऐसा भी नहीं है कि पर्यावरण समस्या महज हमारे देश की ही है बल्कि समूची दुनिया ही आज पर्यावरण संकट से जूझ रही है। विश्व के सभी देशों के सामने सबसे बड़ी चुनौती हरित या साफ-सुथरी तकनीक का विकास करना और इसे बढ़ावा देना है।
महत्वपूर्ण चुनौतियों में से पर्यावरणीय संकट सबसे महत्वपूर्ण है। इस समस्या ने मानवीय अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। मौजूदा विकास की गति और स्वरूप ने पर्यावरणीय संसाधनों के ऊपर भारी दबाव डाला है। दुनिया ने विकास की गति के जिस रफ्तार को पकड़ा है उस रफ्तार से पीछे आना संभव नहीं है। इसलिए पर्यावरण और विकास की मौलिक अवधारणा का अंतर्द्वंद्व अब स्पष्ट रूप से सामने है, क्योंकि मानव जाति पर्यावरण के जैवमंडल का अटूट हिस्सा है। ।
विकास की इस धारा में उत्पादन इंसान की जरूरतों के अलावा बाजार के लिए भी केंद्रीकृत हो चुका है। मांग और आपूर्ति के बाजारवादी सिद्धांत ने अंधाधुंध उत्पादन को प्रोत्साहित किया है। ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन आज भी जारी है। वर्तमान में संपूर्ण उद्योग-धंधों का विस्तार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित र्इंधनों पर टिका है। विकास के इस मकड़जाल के कारण दुनिया के सामने वैश्विक तपन की समस्या खड़ी हो गयी है।
औद्योगिकीकरण की वर्तमान प्रक्रिया के पूर्व भी कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने के लिए सदियों से वनों को काटा जाता रहा है, लेकिन अब यह कटान खतरनाक स्तर पर पहुंच गयी है। इससे साबित होता है कि इंसान की प्रकृति पर किसी भी तरह से निर्भरता उसे नकरात्मक रूप से प्रभावित करने वाली है। ऐसे में हमारे सामने वैकल्पिक स्रोत को विकसित करने की जरूरत है। क्योंकि वैकल्पिक स्रोत से ही हम विकास की गति को तेज कर सकते हैं और पर्यावरण की रक्षा भी कर सकते हैं। ।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि जब भी ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती की बात आती है तो विकसित और विकासशील देशों के अलग-अलग खेमे बन जाते हैं। अमेरिका और चीन कार्बन उर्त्सजन के मामले में दुनिया में सबसे आगे है। उधर भारत में भी वैकल्पिक स्रोतों को विकसित करने की जरूरत है। इन वैकल्पिक स्रोतों से ही भारत तरक्की की राह पर अग्रसर होगा और विकास के साथ पर्यावरण की भी रक्षा हो सकेगी।
घटते पेड़, बढ़ता प्रदूषण
2010 के सर्वे के मुताबिक पिछले चार सालों में दिल्ली में 61,350 पेड़ काटे गए। यही हाल दूसरे स्थानों का भी है। तेजी से जंगलों को खत्म किया जा रहा है लेकिन पेड़ लगाने की गति न के बराबर है, जो चिंताजनक है। बीते पांच वर्षों में कुल मिलाकर 2,03,567 हेक्टेयर वन भूमि खनन और औद्योगिक परियोजना में फंसी। बिजली परियोजनाओं की बात करें तो 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत वर्ष 2012 तक 50,000 मेगावाट ताप बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। वहीं 12वीं योजना में एक लाख मेगावाट अतिरिक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य है। ।
जाहिर है कि ऐसे में तमाम विद्युत परियोजनाओं का विकास होगा। इसमें वन भूमि प्रभावित होगी। पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की वजह से कई तरह के खतरे मंडरा रहे हैं। इससे आए दिन तूफान, चक्रवात, बारिश, सूखा, कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में वृद्धि हुई है और नए जानलेवा बीमारियां भी। यह संकेत हैं कि मानव को प्रकृति के साथ छेड़छाड़ बंद करना चाहिए अन्यथा इस ग्रह से जीवन समाप्त भी हो सकता है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के जलवायु परिवर्तन मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि विभिन्न देशों को बार-बार चक्रवात और तूफान का सामना करना पड़ रहा है। इन कारणों से जलवायु परिवर्तन भी हुआ है। तूफानों और चक्रवात के आने की अवधि भी छोटी होती जा रही है। एक पेड़ कटने पर उसकी भरपाई बहुत मुश्किल से होती है। दोबारा रोपे गए पेड़ों पर नयी पत्तियां आने में समय लगता है लेकिन एक बार उन्हें जीवन मिल जाने पर वह पहले की तरह आक्सीजन देते हैं। बड़े और करीब 50 से 60 साल पुराने पेड़ों को दोबारा रोपने पर सफलता की दर 75 फीसदी है। ।
पेड़ों की कटाई से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए अक्सर शहर के बाहरी क्षेत्रों में पौधरोपण किया जाता है। लेकिन इससे शहर के अंदर का वातावरण बेअसर रहता है। इसलिए शहरी क्षेत्र के अंदर जहां कहीं संभव हो पौध रोपण किया जाना चाहिए। इससे बचने के लिए वृक्षारोपण सहित पर्यावरण पर ध्यान देने के साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार लाने की भी जरूरत है।
कृषि क्षेत्र में वैकल्पिक स्रोत
देश में कुल भूमि का क्षेत्रफल करीब 329 लाख हेक्टेयर है। इसमें खेती करीब 144 लाख हेक्टेयर में होती है। भारत में मृदा अपरदन की दर करीब 2,600 लाख टन प्रतिवर्ष है। यानी इस मिट्टी को बचाना बेहद जरूरी है क्योंकि तमाम प्रयासों के बाद भी भारत में अब तक सिर्फ 40 फीसदी भूमि ही सिंचित है। आंकड़े यह बताते हैं कि देश में करीब 71 लाख हेक्टेयर भूमि ऊसर है जबकि पूरी विश्व में यह आंकड़ा लगभग 9250 हेक्टेयर के करीब बताया जाता है। जो मृदा ऊसर है उसे भी खेती योग्य बनाने की जरूरत है।
आंकड़े बताते हैं कि देश में वर्ष 1951 में मनुष्य-भूमि अनुपात 0.48 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति था, जो दुनिया के न्यूनतम अनुपात में से एक था। वर्ष 2025 में यह आंकड़ा घट कर 0.23 हेक्टेयर होने का अनुमान है। ऐसे में मृदा संरक्षण के जरिए खेती की एक बड़ी चुनौती से निबटा जा सकता है।
कृषि वैज्ञानिक डॉ एएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि देश में प्रतिवर्ष क्षरण के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। इससे जलीय प्रदूषण बढ़ता है। यदि इससे बचाया जा सके तो हर साल करीब छह हजार लाख टन मिट्टी की ऊपरी परत बचेगी और इससे हर साल करीब 5.53 लाख टन नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश की मात्रा भी बचेगी साथ ही पर्यावरण को भी फायदा होगा।
आंकड़े बताते हैं कि अनुकूल परिस्थितियों में मिट्टी की एक इंच मोटी परत जमने में करीब आठ सौ साल लगते हैं जबकि एक इंच मिट्टी को उड़ाने में आंधी और पानी को चंद पल लगते हैं। एक हेक्टेयर की ऊपरी परत में नाइट्रोजन की मात्रा कम होने से किसान को औसत तीन से पांच सौ रुपए खर्च करना पड़ता है। वायु प्रदूषण बढ़ता है, सो अलग। इसे भी रोकने की जरूरत है।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन की रिपोर्ट में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रतिवर्ष 27 अरब टन मिट्टी का क्षरण जल भराव, क्षारीकरण के कारण हो रहा है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के बराबर है। खेती योग्य जमीन के नीचे काफी भू-भाग ऐसा है, जो लवणीय व क्षारीय है। इसकी कुल क्षेत्रफल करीब सात लाख हेक्टेयर बताया जाता है। मिट्टी में सल्फेट व क्लोराइट में घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाता है।
ई-कचरा
सूचना तकनीक के मौजूदा दौर में दुनिया ई-कचरे का ढेर बनती जा रही है। जो पर्यावरण को लंबे समय तक और गहरे तक प्रदूषित करने वाला है। यह ई- कचरा अक्षरणीय प्रदूषक है लेकिन ये चुनौतियां ऐसी है जो केवल मौजूदा अवस्था के साथ ही नहीं जुड़ी है।
अंतरिक्ष कचरा
अंतरिक्ष कचरा पृथ्वी के चारो ओर उसकी कक्षा में एकत्रित मानव निर्मित उपग्रहों, उसके टुकड़ों आदि पदार्थों का संग्रह है, जो अब किसी काम के नहीं रहे। इन कचरों में अंतरिक्ष से भेजे गए यानों के वे कल पुरजों भी शामिल है, जो सही तरीके से काम नहीं कर रहे हैं। रॉकेट के कल-पुरजों के छोटे टुकड़े, उपग्रहों के नष्ट हुए हिस्से आदि भी अंतरिक्ष कचरा है। इनके आपस में टकराने से यानों की कार्यक्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है। इन कचरों के मानवयुक्त वाहनों से टकराने के भी खतरे रहते हैं। सबसे बड़ा खतरा यह है कि अंतरिक्ष कचरे के आपस में टकराने से पैदा होने वाले, परावर्तन प्राकृतिक संपदा को नुकसान पहुंचाता है। अंतरिक्ष कचरे से विकिरण की समस्या का भी खतरा रहता है।
प्लास्टिक कचरा
प्लास्टिक कचरा पर्यावरण का सबसे बड़ा दुश्मन बन चुका है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि प्लास्टिक का चलन शुरू होने के पीछे क्या कारण है। जिस तरह से वनों की कटाई हुई और लकड़ी की उपयोगिता कम हुई उस गति से प्लास्टिक ने पांव पसारा और आज यह हमारे लिए खतरा बन चुका है। प्लास्टिक का आविष्कार 1862 में इंगलैंड में हुआ, लेकिन अब इसकी सबसे ज्यादा खपत भारत में हो रही है। चूंकि प्लास्टिक एक कार्बन पदार्थ है। इसे बहिष्कार करके सांचे में ढाल कर विभिन्न रूप दिया जाता है। इसमें पाए जानेवाले मोनोमर से कैंसर हो सकता है। इसमें नाइलोन होता है। यह भी कैंसर का वाहक है। इसके दुष्प्रभावों को देखते हुए पर्यावरण मंत्रालय ने 40 माइक्रोन से कम की प्लास्टिक के बनने और इस्तेमाल पर रोक लगा रखा है।
खनिज तत्वों को बचाना जरूरी
इसमें कोई संदेह नहीं कि हरित क्रांति के बाद उत्पादन क्षमता में करीब तीन से चार गुना बढ़ोतरी हुई है। इसके प्रमुख कारण थे- उन्नत किस्म के बीज का चयन, उर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई कर सामयिक और पर्याप्त उपयोग आदि। लेकिन इसका एक दुष्परिणाम भी सामने आया, जो हमारे सामने हैं। अधिक उत्पादन की लालसा में तमाम किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खादों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। इससे कुछ समय के लिए उत्पादन जो बढ़ गया लेकिन मिट्टी की उर्वरा शक्ति कमजोर हुई और पर्यावरण प्रदूषण बढ़ा, जो भविष्य के लिए गंभीर चुनौती बन सकता है। ।
इससे मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण हो सकता है। मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का सीधा मतलब है भविष्य में उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ना। जब मिट्टी में पोषक तत्व नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, गंधक, मैग्नीशियम एवं सूक्ष्म तत्वों में तांबा, लोहा, जस्ता, बेरान आदि नहीं होंगे तो पौधे का पूर्ण रूप से विकास नहीं होगा। इसके तहत पोषण प्रबंधन पद्धति, एकीकृत जल प्रबंधन, एकीकृत बीज प्रबंधन, एकीकृत कीट प्रबंधन आदि पर विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है।
भारत में लगभग 146.82 मिलियन हेक्टेयर जमीन जल व वायु अपरदन अथवा क्षारीयता, अम्लीयता आदि के कारण क्षरण का शिकार हैं। इसका एक बड़ा कारण जमीन के रख-रखाव के अनुचित तरीकों का अमल में लाया जाना है।
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