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पूरी दुनिया आपकी क्लाइंट हो सकती है
Posted on 22 Jul, 2013 11:37 AM फंडा यह है कि... अगर आप कुछ नया कर रहे हैं तो दुनिया आपकी तरफ उम्मीद से देखने लगती है। वह आपसे मदद हासिल करने के लिए तैयार रहती है। जरूरत बस एक मुहिम और उसके प्रति समर्पण की ही होती है।
कोचाबांबा की लड़ाई
Posted on 21 Jul, 2013 08:43 AM बोलिविया में पानी को धरती माता का खून माना जाता है। कंपनी की इन करतूतों से गुस्सा भड़का और लोग सड़कों पर निकल आए। उन्होंने कोचाबांबा शहर बंद कर दिया, केंद्रीय बाजार पर कब्जा कर लिया और शहर में आने-जाने पर रोक लगा दी। सरकार ने सेना बुला ली। आंदोलन के बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। आंदोलन और तेज हो गया। अप्रैल 2000 में सेना ने गोली चलाई और एक विद्यार्थी मारा गया। आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा। कंपनी का अनुबंध खत्म कर दिया गया और उसे देश छोड़कर जाना पड़ा। जनांदोलन ने इसके बाद कोचाबांबा शहर के जलतंत्र को चलाने की चुनौती स्वीकारी। सममूलक बंटवारे पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाई। लातीनी अमरीका के देश बोलिविया में परिवर्तन की शुरुआत कई तरह के जनांदोलनों से हुई। इनमें बहुचर्चित है वहां के दो नगरों में पानी के निजीकरण के खिलाफ आंदोलन। ला पाज शहर में 1997 में तथा कोचाबांबा में 1998 में पानी के निजीकरण के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ। सात सालों तक चले इस संघर्ष में 3 जानें गई और सैकड़ों स्त्री-पुरुष जख्मी हुए। अस्सी के दशक में बिलिविया गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा था। 1982 में मुद्रास्फीति की दर करीब 25 फीसदी हो गई थी। बोलिविया विश्व बैंक की शरण में गया। विश्व बैंक ने कर्ज के साथ निजीकरण की शर्तें भी लगाई। रेलवे, वायुसेवा, संचार, गैस, बिजली आदि सभी क्षेत्रों को निजी कंपनियों को सौंप दिया गया। इनके बाद पानी का नंबर आया। इसके निजीकरण के लिए ‘कुशल प्रबंध’ और पूंजी निवेश की जरूरत की दलीलें दी गई।
हमसे संभलने को कहती धरती
Posted on 01 Jul, 2013 03:31 PM कोई सात हजार वर्ष पुरानी बात है, हमारे ग्रह पर तब हिमयुग समाप्त हुआ ही था, मानव ने खुलकर धूप सेंकना शुरू किया था। इसी धूप से जन्मी प्रकृति या फिर कहें आधुनिक जलवायु। हमने इस जलवायु चक्र की गतिशीलता, सुबह-शाम, मौसम सबका हिसाब बरसों से दर्ज कर रखा है। सदियों से शांत अपनी जगह पर खड़े वृक्षों के तनों की वलयें, ध्रुवों पर जमी बर्फ, समंदर की अतल गहराइयों में जमी मूंगें की चट्टानें सब हमारे बहीखाते हैं। मगर न जाने कैसे यह चक्र गडबड़ाने लगा जनवरी-फरवरी सर्दी, मार्च से मई तक गर्मी, जून से सितंबर तक बारिश, अब नहीं रहती। पता ही नहीं चलता कब कौन सा मौसम आ जाए। कुछ-कुछ हरा, कुछ ज्यादा नीला, कहीं से भूरा और कहीं-कहीं से सफेद रंग में रंगा जो ग्रह अंतरिक्ष से दिखता है, वह पृथ्वी है। मिट्टी, पानी, बर्फ और वनस्पतियों से रंगी अपनी पृथ्वी। यहां माटी में उगते-पनपते पौधे, सूर्य की किरणों से भोजन बनाते हैं और जीवन बांटते हैं। इन पर निर्भर हैं हम सभी प्राणी, यानी जीव-जंतु और मानव। इस धरती का हवा-पानी और प्रकाश, हम सब साझा करते हैं। हम सब मिलकर एक तंत्र बनाते हैं। लेकिन कुछ समय से सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है। पिछले कुछ वर्षों से हमारी धरती तेजी से गर्म हो रही है। पिछले कुछ वर्षों से हमारी धरती तेजी से गर्म हो रही है, मौसम बदल रहे हैं, बर्फ पिघल रही हैं, समंदर में पानी बढ़ रहा है और वो तेजी से जमीन को निगलता जा रहा है। कुल मिलाकर हम सभी का अस्तित्व खतरे में है। धरती के गर्म होने की रफ्तार इतनी ज्यादा है कि कुछ वर्षों बाद आप अंतरिक्ष से पृथ्वी को देखेंगे तो या तो वहां सेहरा देखेंगे या फिर समंदर।
सौर युद्ध की चपेट में विश्व
Posted on 30 Jun, 2013 12:53 PM दुनियाभर में इस बात की आशा बंधी है कि सौर ऊर्जा के माध्यम से विद्
रसायनों की जहरीली दुनिया
Posted on 26 Jun, 2013 09:49 AM सन् 1930 के दशक से शुरू हुई रासायनिक होड़ ने लाखों वर्षों की सभ्यत
ऊंची छतों पर हरी-भरी दुनिया
Posted on 16 Jun, 2013 10:07 AM भीषण गर्मी में कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुके शहरों के मकान किस तरह भट्ठी में तब्दील हो जाते हैं, ये हममें से किसी से छिपा नहीं है, लेकिन मिट्टी और वनस्पतियों से युक्त ये छतें सीधी धूप को रोककर अवरोधक का काम करती हैं। जाहिर सी बात है कि इससे बिल्डिंग का तापमान कम हो जाता है। इससे बिल्डिंग की कूलिंग कास्ट करीब बीस फीसदी तक कम हो जाती है। जहां तक भारत की बात है तो भारत में ग्रीन रूफ्स या ग्रीन बिल्डिंग्स अभी दूर की कौड़ी लगती है। कुछ बड़े शहरों में इसकी पहल तो हो रही है लेकिन ये अभी न के बराबर है, लेकिन ये बात सही है कि अगर शहर इलाके की नई बिल्डिंग्स ग्रीन बिल्डिंग्स के कांसेप्ट को लागू करें तो भारत 3,400 मेगावाट बिजली बचा सकता है। जब पूरी दुनिया में बात ग्रीन वर्ल्ड की हो रही हो, दुनिया के तेजी से खत्म होते प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की बातें हो रही हों, तो ग्रीन हाउस की परिकल्पना बहुत तेजी से हकीक़त में बदल रही है, यानी ऐसे घर जो हरे-भरे हों, जहां छतों पर हरियाली लहलहाए। जहां छतों से रंग-बिरंगे फूल मुस्कराएं। हरे-भरे लॉन में मुलायम-सी घास हो, कुछ छोटे-बड़े पेड़-पौधे हों। ऐसी छतें हमारे देश में भले ही न हो, लेकिन अमेरिका और यूरोप में हकीक़त बनती जा रही हैं। ये ऐसी छतें होतीं हैं, जिन्हें ग्रीन टॉप या ग्रीन रूफ कहा जाता है। आने वाले समय में अपने देश में भी शायद छतों पर हरी-भरी दुनिया का नया संसार दिखेगा। छतें केवल छतें नहीं होंगी, बल्कि बगीचा होंगी, खेत होंगी, फार्महाउस होंगी, जिन पर आप चाहें तो खूब सब्जी पैदा करें। इन्हीं छतों से बिजली पैदा की जाएगी। इनसे घरों का तापमान कंट्रोल किया जा सकेगा। कुछ मायनों में एसी का काम करेंगी। इन्हीं के जरिए वाटरहार्वेस्टिंग का भी काम होगा। आप चकित होंगे, एक छत से इतने काम! क्या सचमुच छतें इतने काम की हैं। हां, साहब वाकई छतें बहुत काम की हैं। भले अभी तक हमने इनका महत्व नहीं पहचाना हो, लेकिन दुनियाभर में कम होती जमीनों और पर्यावरण के प्रति जागरूकता ने छतों को वो महत्व प्रदान कर ही दिया है, जो बहुत पहले हो जाना चाहिए था।
यदि समुद्र न होते तो...
Posted on 13 Jun, 2013 10:10 AM समुद्रों के खारेपन की चर्चा के बगैर समुद्र का महत्व अधूरा रहेगा। यह सच है कि यदि समुद्र में पानी कम हो जाए, तो यही खारापन बढ़कर आसपास की इलाकों की ज़मीन बंजर बना दे; ऐसे इलाकों का भूजल पीने-पकाने लायक न बचे; लेकिन सच भी है कि समुद्री खारेपन का महत्व, इस नुकसान तुलना में कहीं ज्यादा फायदे की बात है। गर्म हवाएं हल्की होती हैं और ठंडी हवाएं भारी; कारण कि गर्म हवा का घनत्व कम होता है और ठंडी हवा का ज्यादा। यह बात हम सब जानते हैं। यही बात पानी के साथ है। जब समुद्र का पानी गर्म होकर ऊपर उठता है, तो उस स्थान विशेष के समुद्री जल की लवणता और आसपास के इलाके की लवणता में फर्क हो जाता है। इस अंतर के कारण ही समुद्र से उठे जल को गति मिलती है। नदियां न होती, तो सभ्यताएं न होती। बारिश न होती, तो मीठा पानी न होता। पोखर-झीलें न होती, तो भूजल के भंडार न होते। भूजल के भंडार न होते, तो हम बेपानी मरते। पानी के इन तमाम स्रोतों से हमारी जिंदगी का सरोकार बहुत गहरा है। यह हम सब जानते हैं; लेकिन यदि समुद्र न होते, तो क्या होता? इस प्रश्न का उत्तर तलाशें, तो हमें सहज ही पता चल जायेगा कि धरती के 70 प्रतिशत भूभाग पर फैली 97 प्रतिशत विशाल समुद्री जलराशि का हमारे लिए क्या मायने है? समुद्र के खारेपन का धरती पर फैले अनगिनत रंगों से क्या रिश्ता है? समुद्री पानी के ठंडा या गर्म होने हमें क्या फर्क पड़ता है? महासागरों में मौजूद 10 लाख से अधिक विविध जैव प्रजातियों का हमारी जिंदगी में क्या महत्व है? दरअसल,किसी न किसी बहाने इन प्रश्नों के जवाब महासागर खुद बताते हैं हर बरस। आइये, जानें !

सच यह है कि यदि समुद्र में इतनी विशाल जलराशि न होती, तो वैश्विक तापमान में वृद्धि की वर्तमान चुनौती अब तक हमारा गला सुखा चुकी होती। यदि महासागरों में जैव विविधता का विशाल भंडार न होता, तो पृथ्वी पर जीवन ही न होता। यदि समुद्र का पानी खारा न होता, तो गर्म प्रदेश और गर्म हो जाते और ठंडे प्रदेश और ज्यादा ठंडे।
Ocean
जैव विविधता संरक्षण मंत्र : जीओ और जीने दो
Posted on 23 May, 2013 10:06 AM

अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस (22 मई) पर विशेष

Indian biodiversity
हे भगवान प्लास्टिक
Posted on 15 May, 2013 10:25 AM आज पूरी दुनिया, नई, पुरानी, पढ़ी-लिखी, अनपढ़ दुनिया भी इन्हीं प्लास्टिक की थैलियों को लेकर एक अंतहीन यात्रा पर निकल पड़ी है। छोटे-बड़े बाजार, देशी-विदेशी दुकानें हमारे हाथों में प्लास्टिक की थैली थमा देती हैं। हम इन थैलियों को लेकर घर आते हैं। कुछ घरों में ये आते ही कचरे में फेंक दी जाती हैं तो कुछ साधारण घरों में कुछ दिन लपेट कर संभाल कर रख दी जाती हैं, फिर किसी और दिन कचरे में डालने के लिए। इस तरह आज नहीं तो कल कचरे में फिका गई इन थैलियों को फिर हवा ले उड़ती है, एक और अंतहीन यात्रा पर। फिर यह हल्का कचरा जमीन पर उड़ते हुए, नदी नालों में पहुंच कर बहने लगता है। पिछले दिनों देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा कि हमारा देश प्लास्टिक के एक टाईम बम पर बैठा है। यह टिक-टिक कर रहा है, कब फट जाएगा, कहा नहीं जा सकता। हर दिन पूरा देश कोई 9000 टन कचरा फेंक रहा है! उसने इस पर भी आश्चर्य प्रकट किया है कि जब देश के चार बड़े शहर- दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता ही इस बारे में कुछ कदम नहीं उठा रहे तो और छोटे तथा मध्यम शहरों की नगरपालिकाओं से क्या उम्मीद की जाए? कोई नब्बे बरस पहले हमारी दुनिया में प्लास्टिक नाम की कोई चीज नहीं थी। आज शहर में, गांव में, आसपास, दूर-दूर जहां भी देखो प्लास्टिक ही प्लास्टिक अटा पड़ा है। गरीब, अमीर, अगड़ी-पिछड़ी पूरी दुनिया प्लास्टिकमय हो चुकी है। सचमुच यह तो अब कण-कण में व्याप्त है - शायद भगवान से भी ज्यादा! मुझे पहली बार जब यह बात समझ में आई तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं एक प्रयोग करके देखूं- क्या मैं अपना कोई एक दिन बिना प्लास्टिक छूए बिता सकूंगी। खूब सोच समझ कर मैंने यह संकल्प लिया था। दिन शुरू हुआ। नतीजा आपको क्या बताऊं, आपको तो पता चल ही गया होगा। मैं अपने उस दिन के कुछ ही क्षण बिता पाई थी कि प्लास्टिक ने मुझे छू लिया था!
मस्कवा नदी के देश में
Posted on 28 Apr, 2013 04:14 PM मुझे बुद्धिप्रसाद ने जानकारी दी कि चौदह अक्तूबर को मेरे लिए अखिल संघीय कृषि विज्ञान अकादमी में चर्चा
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