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सब कुछ खत्म हो जाएगा उसके साथ
Posted on 24 Jul, 2010 01:54 PM ग्रीन आजकल फैशन में है। इस साल इन्वायरनमेंट डे पर मीडिया में जितनी कवरेज दिखी, वह बेमिसाल थी। हालांकि ग्लोबल वॉर्मिंग पर दुनिया के देश किसी समझौते पर नहीं पहुंच पाए और न ही ऐसी उम्मीद है कि धरती को इस सबसे बड़े खतरे से उबारने का तरीका जल्द ही खोजा जा सकेगा, लेकिन इन्वायरनमेंट को लेकर इस दौरान मचे शोर ने जागरूकता कई गुना बढ़ा दी है। लोग अपने लेवल पर धरती को बचाने की जुगत करने लगे हैं, सरकारी
काश, आज बाबा साहब होते
Posted on 19 Jul, 2010 07:15 PM
सदियां गुजर गईं, पर अपने देश में सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा आज भी चलती जा रही है। आजादी के 62 सालों के बाद भी यह मध्ययुगीन सामंती चलन हमारे कई छोटे-बड़े शहरों और कस्बों से पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। राजगढ़, भिंड, टीकमगढ़, उज्जैन, पन्ना, रीवा, मंदसौर, नीमच, रतलाम, महू, खंडवा, खरगौन, झाबुआ, छतरपुर, नौगांव, निवाड़ी, सिहोर, होशंगाबाद, हरदा, ग्वालियर, सागर, जबलपुर जैसे मध्य प्रदेश के अनेक शहरों
बिगड़ते पर्यावरण से बढ़ेगा पलायन
Posted on 17 Jul, 2010 12:49 PM तेजी से बिगड़ता पर्यावरण पूरी दुनिया के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। यह जलवायु परिवर्तन को लेकर बढ़ती चिंता ही है कि दुनिया के 193 देशों के बड़े नेता कोपेनहेगन में इस मसले पर बातचीत करने के लिए एकत्रित हुए थे। हालांकि, इस सम्मेलन में कोई ऐसा फैसला तो नहीं लिया गया जो यहां आने वाले सभी देशों को मान्य हो लेकिन कुछ प्रमुख देशों ने एक आपसी समझौता अवश्य किया है।
फसलों की रक्षक काली सेना
Posted on 16 Jul, 2010 03:31 PM
प्रकृति ने पौधों की सुरक्षा व वृद्धि के लिए जमीन में नाना प्रकार के सूक्ष्म जीवों को दिया है। ये सूक्ष्म जीव जमीन की उर्वराशक्ति के द्योतक हैं। जमीन की उपरी सतह (लगभग 1.5 फुट तक की गहराई) में जड़ों के आस-पास के क्षेत्र में ये सक्रिय रहते हैं और पौधे की सुरक्षा व वृद्धि में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार – 2010 के लिए आवेदन आमंत्रित
Posted on 15 Jul, 2010 10:20 AM वर्ष 2010 के लिए इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार के लिए (भारतीय नागरिकों/संगठनों) जिन्होंने पर्यावरण की सुरक्षा/संरक्षण के लिए विशिष्ट कार्य किए हों, से नामांकन आमंत्रित किए जाते हैं। भारत के ऐसे कोई भी नागरिक जिनके पास पर्यावरण के क्षेत्र में कम से कम 10 वर्षों का कार्य अनुभव हो (उन्हें इस अनुभव के समर्थन में प्रकाशित/फिल्ड कार्य का विवरण प्रस्तुत करना होगा)/ऐसे एनजीओ जो कम से कम पांच वर्षों से पर
कमजोर ‘लैला’ से प्रभावित हो सकता है मानसून
Posted on 12 Jul, 2010 10:10 AM
चारों ओर लैला की ही चर्चा है। हर कोई लैला के बारे में ही बात कर रहा है। कोई इसे जबर्दस्त चक्रवाती तूफान करार देता है, तो कोई इसके कमजोर होने पर राहत महसूस कर रहा है। अब तक करीब 25 जानें लेने वाला यह तूफान भले ही कमजोर पड़ गया हो, पर सच तो यह हे कि इसके हमारे मेहमान मानसून का मिजाज बिगाड़ दिया है। अब मानसून हमसे रुठ जाएगा, जो पहले आने वाला था, अब उसे आने में कुछ देर हो जाएगी। हमारे देश में मानसून एक ऐसी शक्ति है, जो अच्छे से अच्छे बजट को बिगाड़ सकती है। कोई भी तुर्रमखाँ वित्तमंत्री इसके बिना अपना बजट बना ही नहीं सकता। पूरे देश का भविष्य मानसून पर निर्भर करता है। इसलिए इस बार मानसून को लेकर की जाने वाली तमाम भविष्यवाणियों को प्रभावित कर
पीपल कथा अनंता
Posted on 10 Jul, 2010 09:40 AM
कबीर कह गए हैं कि कुदरत की गति न्यारी और निराली होती है। संसार का नियम सोच-समझ और विचार से परे चलता है। तो क्या कोई कुदरत की कला का पारखी हो सकता है?
खरे उतरे जलवायु वैज्ञानिकों के निष्कर्ष
Posted on 09 Jul, 2010 09:13 PM

इंग्लैंड के ईस्ट एंग्लिया विश्वविद्यालय की जलवायु परिवर्तन शोध इकाई के निष्कर्षों की स्वतंत्र समीक्षा करने वाली समिति का कहना है कि जलवायु वैज्ञानिकों ने पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ काम किया है। समीक्षा समिति का कहना है कि “वैज्ञानिकों के निष्कर्षों में कोई त्रुटि नहीं है लेकिन उन्होंने अपने काम की पूरी जानकारी देने में कोताही बरती है और निष्कर्षों का बचाव करने की कोशिश की है।”

रस ही जीवन / जीवन रस है
Posted on 09 Jul, 2010 05:09 PM साल भर हमारे कोमल मनों में जो तनाव जमा होते रहते हैं, उनसे उल्लासपूर्ण विमुक्ति का दुर्लभ मौका, जब आप कोयले को कोयला और कीचड़ को कीचड़ कह सकते हैं। होली के दिन कोई किसी का गुसैयां नहीं रह जाता। किसी से भी प्यार किया जा सकता है और किसी पर भी छींटाकशी की जा सकती है। लेकिन यह छींटाकशी भी विनोद भाव के परिणामस्वरूप मृदु और सहनीय हो जाती है। बल्कि जिसका परिहास किया जाता है, वह भी बुरा न मानने का अभिनय करते हुए बरबस हंस पड़ता है। शायद यही 'बुरा न मानो होली है' के हर्ष-विनोद घोष का उद्गम स्थल है। भारत में होली सबसे सरस पर्व है। दशहरा और दीपावली से भी ज्यादा। दूसरे त्योहारों में कोई न कोई वांछा है। या वांछा की पूर्ति का सुख। होली दोनों से परे है। यह बस है, जैसे प्रकृति है। अस्तित्व के आनंद का उत्सव। वांछा और वांछा की पूर्ति, दोनों में द्वंद्व है। यह जय-पराजय से जुड़ा हुआ है। दोनों ही एक अधूरी दास्तान हैं। सच यह है कि दूसरा हारे, तब भी हमारी पराजय है। कोई भी सज्जन किसी और को दुखी देखना नहीं चाहता। किसी का वध करके उसे खुशी नहीं होती। करुणानिधान राम ने जब रावण पर अंतिम प्राणहंता तीर चलाया होगा, तो उनका हृदय विषाद से भर गया होगा। उनके दिल में हूक उठी होगी कि काश, रावण ने ऐसा कुछ न किया होता जो उसके लिए मृत्यु का आह्वान बन जाए; काश, उसने अंगद के माध्यम से भेजे गए संधि प्रस्ताव को मंजूर कर लिया होता; काश, उसने विभीषण की सत सलाह का तिरस्कार नहीं किया होता। अर्जुन का विषाद तो बहुत ही प्रसिद्ध है। युद्ध छिड़ने के ऐन पहले उसे अपने तीर-तूरीण भारी लगने लगे।
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