राजकिशोर

राजकिशोर
मौत के ख़िलाफ़ मोर्चाबंदी
Posted on 20 Nov, 2014 02:13 PM

यह सच है कि पदार्थ जगत की शक्ति बहुत ही भयावह होती है तथा भूकंप जैसी घटनाएं विनाश से बचने की हम

महाकुंभ की पवित्र छाया में
Posted on 16 Jan, 2013 10:10 AM
मैं कुंभ की पवित्रता का अनुभव कर सकता हूं और उनके दिलों की धड़कन स
समान श्रम के लिए असमान वेतन अन्याय
Posted on 16 Nov, 2011 08:25 AM

इस तरह वृद्धि का एक ऐसा सकारात्मक चक्र शुरू हो जाएगा जो आम खुशहाली को बढ़ाएगा। मौजूदा अर्थव्यवस्थाओं के संकट का बड़ा कारण यह है कि मुनाफे का सबसे बड़ा हिस्सा उद्योगपति और उसके मैनेजरों के पास के पास चला जाता है और श्रम करनेवालों को उसका नगण्य हिस्सा मिलता है। इससे अर्थव्यवस्था का संतुलन खत्म हो जाता है। गाड़ी के एक तरफ ज्यादा बोझ पड़ता है, तो वह पलटने के कगार पर आ जाती है।

समान योग्यता वाले दो व्यक्तियों में एक को रोजगार मिला हुआ है और दूसरा बेरोजगार है- यह एक ऐसा अन्याय है जिसे बेकारी कहते हैं। क्या इस अन्याय के लिए वह आदमी खुद जिम्मेदार है जो पूरी कोशिश करने के बाद भी अपने लिए रोजगार नहीं खोज पाता है? एक जमाने में, जब अर्थव्यवस्था पर किसी का नियंत्रण नहीं था, रोजगार की कोई कमी नहीं थी। कृषि-आधारित समाज व्यवस्था में कोई बेकार नहीं होता। अगर किसी की प्रवृत्ति काम करने की नहीं है या कोई कला, लेखन या पहलवानी में रुचि लेता है, तो उसका खर्च पूरा परिवार उठाता है। जब से औद्योगिक व्यवस्था आई है, रोजगार का मामला प्राकृतिक नहीं रहा। यानी कितना रोजगार होगा, किस किस्म का रोजगार होगा, यह अर्थव्यवस्था तय करती है। चूंकि इस व्यवस्था में रोजगार का मामला जीवन-मरण का हो जाता है, इसलिए राज्य को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वह अर्थव्यवस्था का स्वरूप जनहित के आधार पर तय करे। जहां पांच-सात प्रतिशत से ज्यादा बेकारी है, वहां मानना होगा कि अर्थव्यवस्था और राज्य, दोनों फेल कर गए हैं।

ऐसा ही एक अन्याय है, समान श्रम, परंतु असमान वेतन। आजकल मैं जहां काम करता हूं, वहां तीन तरह के ड्राइवर हैं। एक तरह के ड्राइवर वे हैं जिनकी नौकरी पक्की है। इनका वेतन लगभग पंद्रह हजार रुपए महीना है। इन्हें मकान भत्ता, चिकित्सा भत्ता तथा अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं।

मधुमास का सरस उत्सव
Posted on 01 Sep, 2011 06:07 PM

यह सोख्ता स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक संबंधों के रस को भी सोखता रहता है और जीवन को उतना रसमय नहीं

वर्धा में बारिश
Posted on 09 Jul, 2010 12:04 PM
आंखों को और उनसे जुड़े मानसिक जगत को हरीतिमा और वर्षा क्यों भली लगती है? इसके जैविक कारण होंगे, पर ऐतिहासिक या कहिए प्रागैतिहासिक कारण भी हैं। हमारे दूरस्थ पूर्वजों ने कई लाख वर्ष ऐसे ही वातावरण में बिताए होंगे। हमारा सामूहिक अवचेतन उन्हीं स्मृतियों को अपने गुह्य कक्ष में संजोए हुए हैं। जल ही जीवन है, कहा तो गया है, पर खुद जल में कितना जीवन है, मुझे पता नहीं। लेकिन वे पेड़-पौधे, जिन पर वर्षा के बादल अमृत की वर्षा करते हैं, जीवन से भरपूर हैं। दरअसल, ये पेड़-पौधे ही हमारे असली पूर्वज है, क्योंकि यह सचल सृष्टि उन्हीं की कोख से पैदा हुई है।चारों ओर हरा-भरा हो और निरंतर वर्षा हो रही हो, यह दृश्य मैंने ज्यादा नहीं देखा है – यों दुनिया को मैंने देखा ही कितना है- लेकिन जो भी दृश्य देखे हैं, वे किसी प्रेम कथा की तरह मन पर अंकित हैं। पहाड़ों पर बारिश का अपना आनंद है और हरे-भरे मैदान में बूंदों की थाप का अपना सुख। कोलकाता में खूब बारिश होती थी और वहां के वातावरण में वर्षा के दिन जितने असुविधाजनक होते हैं, उसकी तुलना के लिए मेरे पास कोई समांतर अनुभव नहीं है। शायद गांवों में इसी तरह जीवन कीचड़ में लिथड़ जाता हो। फिर भी कोलकाता का जो मौसम मन में रमा हुआ है, वह वर्षा का मौसम ही है। दिल्ली में तो बारिश होती ही नहीं है। जब होती है, तो उसका भी कुछ खुमार होता है, पर इस महान शहर में ऐसा दृश्य मुझे अभी तक देखने को नहीं मिला कि दूर-दूर तक घास
सितारों के आगे जहां और भी हैं
Posted on 13 Sep, 2010 03:29 PM

इस साल प्रकृति ने भारत के अधिकांश हिस्से में और दुनिया के कुछ हिस्सों में जो नजारा पेश किया है, वह हैरान करने वाला है। इतनी बारिश हो रही है कि हर कोई चकित है।

रस ही जीवन / जीवन रस है
Posted on 09 Jul, 2010 05:09 PM
साल भर हमारे कोमल मनों में जो तनाव जमा होते रहते हैं, उनसे उल्लासपूर्ण विमुक्ति का दुर्लभ मौका, जब आप कोयले को कोयला और कीचड़ को कीचड़ कह सकते हैं। होली के दिन कोई किसी का गुसैयां नहीं रह जाता। किसी से भी प्यार किया जा सकता है और किसी पर भी छींटाकशी की जा सकती है। लेकिन यह छींटाकशी भी विनोद भाव के परिणामस्वरूप मृदु और सहनीय हो जाती है। बल्कि जिसका परिहास किया जाता है, वह भी बुरा न मानने का अभिनय करते हुए बरबस हंस पड़ता है। शायद यही 'बुरा न मानो होली है' के हर्ष-विनोद घोष का उद्गम स्थल है। भारत में होली सबसे सरस पर्व है। दशहरा और दीपावली से भी ज्यादा। दूसरे त्योहारों में कोई न कोई वांछा है। या वांछा की पूर्ति का सुख। होली दोनों से परे है। यह बस है, जैसे प्रकृति है। अस्तित्व के आनंद का उत्सव। वांछा और वांछा की पूर्ति, दोनों में द्वंद्व है। यह जय-पराजय से जुड़ा हुआ है। दोनों ही एक अधूरी दास्तान हैं। सच यह है कि दूसरा हारे, तब भी हमारी पराजय है। कोई भी सज्जन किसी और को दुखी देखना नहीं चाहता। किसी का वध करके उसे खुशी नहीं होती। करुणानिधान राम ने जब रावण पर अंतिम प्राणहंता तीर चलाया होगा, तो उनका हृदय विषाद से भर गया होगा। उनके दिल में हूक उठी होगी कि काश, रावण ने ऐसा कुछ न किया होता जो उसके लिए मृत्यु का आह्वान बन जाए; काश, उसने अंगद के माध्यम से भेजे गए संधि प्रस्ताव को मंजूर कर लिया होता; काश, उसने विभीषण की सत सलाह का तिरस्कार नहीं किया होता। अर्जुन का विषाद तो बहुत ही प्रसिद्ध है। युद्ध छिड़ने के ऐन पहले उसे अपने तीर-तूरीण भारी लगने लगे।
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