बिगड़ते पर्यावरण से बढ़ेगा पलायन

तेजी से बिगड़ता पर्यावरण पूरी दुनिया के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। यह जलवायु परिवर्तन को लेकर बढ़ती चिंता ही है कि दुनिया के 193 देशों के बड़े नेता कोपेनहेगन में इस मसले पर बातचीत करने के लिए एकत्रित हुए थे। हालांकि, इस सम्मेलन में कोई ऐसा फैसला तो नहीं लिया गया जो यहां आने वाले सभी देशों को मान्य हो लेकिन कुछ प्रमुख देशों ने एक आपसी समझौता अवश्य किया है।

इस समझौते की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं। बुनियादी तौर पर यह लगता है कि विकसित और विकासशील देशों के हितों के टकराव की वजह से कोपनहेगन में कोई समझौता नहीं हो पाया। किसी समझौते तक नहीं पहुंच पाना जलवायु परिवर्तन के खतरे को और बढ़ाने सरीखा है। क्योंकि जिस तेजी से पर्यावरण की सेहत बिगड़ रही है और उसके भयावह नतीजे सामने आ रहे हैं उससे लगता है कि आने वाले दिनों में इंसानी जीवन के लिए और भी कई तरह की मुश्किलें खड़ी होने वाली है।

दरअसल, बढ़ते प्रदूषण की वजह से दुनिया के समक्ष नई समस्याएं खड़ी होती जा रही हैं। इन्हीं में से एक है पलायन का। दुनिया के कई वैज्ञानिकों ने प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित होने वाले क्षेत्रों का अध्ययन करने के बाद यह नतीजा निकाला है कि आने वाले दिनों में जलवायु परिवर्तन पलायन की एक बड़ी वजह बनने जा रहा है।

प्रदूषण की वजह से कितने लोगों का पलायन होगा, इस बाबत कई तरह के अनुमान सामने आ रहे हैं। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन ने अनुमान लगाया है कि 2050 तक तकरीबन 20 करोड़ लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा। वहीं कुछ संगठनों का मानना है कि 2050 तक यह संख्या 70 करोड़ होगी। मालूम हो कि 2050 तक दुनिया की आबादी बढ़कर नौ अरब तक पहुंच जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। इसका मतलब यह है कि उस समय तक दुनिया की कुल आबादी में से आठ फीसदी लोग प्रदूषण की वजह से पलायन की मार झेल रहे होंगे।

दरअसल, दुनिया भर में हुए औद्योगीकरण ने कई तरह की अव्यवस्थाओं और असंतुलन को जन्म दिया है। इस असंतुलन को भारत के उदाहरण के जरिए ही समझा जा सकता है। भारत के ज्यादातर शहरों का विकास बगैर किसी योजना के हुआ है। बेतरतीब बसे शहरों के पास न तो कचरे के निस्तारण के लिए कोई जरूरी ढांचा है और न ही वहां फैल रहे प्रदूषण पर लगाने के लिए कोई बंदोबस्त किया गया है। योजना के बिना बसे शहरों की एक बड़ी खामी यह भी है कि इन शहरों में पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए हरित पट्टी नहीं विकसित की गई है।

इस वजह से अब कई शहरों में लोगों का जीना बड़ा मुश्किल हो गया है। इस बात को स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि आने वाले दिनों में इन शहरों की हालत और भी खराब होगी। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में शहरों से पलायन शुरू होगा। अभी जहां लोग गांवों से शहरों में आ रहे हैं वहीं संभव है कि आने वाले दिनों में प्रदूषण की वजह से लोग शहरों से गांवों का रुख करे। यह जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली पलायन का एक चेहरा है।

पर्यावरण में पैदा हो रहे असंतुलन की वजह से दुनिया के कई क्षेत्रों में भूजल का स्तर काफी तेजी से नीचे जा रहा है। कई क्षेत्रों में तो भूजल स्तर इतना नीचे चला गया है कि वहां लोगों का रहना संभव नहीं है। वहीं कई इलाके ऐसे हैं जो बार-बार सूखे की मार झेलने को मजबूर हैं। दूसरी तरफ कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जिन्हें अक्सर बाढ़ का सामना करना पड़ रहा है। कहा जाए तो जलवायु परिवर्तन रंग बदल-बदल कर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरीके से कहर ढाने लगा है। बजाहिर, जब यह कहर और बढ़ेगा तो संबंधित क्षेत्र के लोगों के सामने पलायन के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा। दुनिया के कई देशों में जलवायु परिवर्तन की वजह से पलायन शुरू भी हो गया है। अभी इस समस्या से अफ्रीकी देशों के कुछ क्षेत्रों के लोग जूझ रहे हैं।

उदाहरण के लिए उत्तरी कीनिया के तुरकाना को लिया जा सकता है। इस इलाके में पहले हर आठ साल पर एक साल सूखा पड़ता था। अब यहां हर तीन साल में एक साल सूखा पड़ रहा है। इससे वहां से लोगों का पलायन शुरू हो गया है। वहां से पलायन करने वाले लोगों की संख्या दिनोंदिन बढ़ते जा रही है। उस क्षेत्र का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन की यही गति बनी रही तो इस क्षेत्र से पलायन करने वाले लोगों की संख्या 2040 तक दोगुनी हो जाएगी।

प्रदूषण की वजह से समुद्र के जल स्तर में बढ़ोतरी की बात काफी पहले से हो रही है। इस वजह से बड़ी संख्या में विस्थापन होगा और लोग अपने अस्तित्व को बचाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर होंगे। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि अगर समुद्र के जल स्तर में एक मीटर बढ़ोतरी होती है तो 2.4 करोड़ लोग विस्थापित होंगे। यह जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले पलायन का एक भयावह चेहरा है।

कोपनहेगन में जलवायु परिवर्तन के इस भयावह चेहरे की अनदेखी की गई। दरअसल, दुनिया पूंजीवाद के पीछे इस समय इस तरह से भाग रही है कि उसे तथाकथित विकास के अलावा कुछ और दिख ही नहीं रहा है। समस्या यह है कि जिसे विकास समझा जा रहा है वह विकास है ही नहीं। सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को क्या विकास माना जा सकता है? आखिर ऐसे विकास का क्या फायदा जिसकी वजह से एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी में गुजारनी पड़ी और साथ ही बड़ी संख्या में लोगों को पलायन की मार झेलनी पड़े? आखिर कहीं न कहीं तो यह तय किया जाना चाहिए कि विकास किस कीमत पर चाहिए।

इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना बेहद जरूरी है कि पर्यावरण की कीमत पर होने वाला विकास तात्कालिक तौर पर भौतिक समृद्धि तो ला सकता है लेकिन दीर्घकालिक तौर पर यह बर्बादी की वजह ही बनेगा। समय रहते सियासत छोड़कर समर्पण के साथ पर्यावरण को बचाने की मुहिम दुनिया भर में नहीं चलाई गई तो इसके बुरे नतीजों से बचना किसी के लिए भी संभव नहीं होगा।

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