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पानी के साथ
Posted on 23 Jun, 2011 09:25 AM पानी के साथ
हम पनघट के किस्से पीते हैं
घाट की कथाएँ
कमण्डल में आ
करती हैं जलाभिषेक

कलष के पानी में
खनकती है
गूजरी की हँसी

झील ही देती है
मेरे भीतर के पानी को
लहर

मेरी आँखें आईना हैं
जिसमें झील अपना चेहरा निहारती है

कानों में झील का एकान्त
बजता है
और प्यास
कण्ठ से निकलकर
बड़ी झील
Posted on 22 Jun, 2011 08:59 AM बड़ी झील: पानी को रहना सिखाती हुई
और प्यास को जीना

बड़ी झीलः कभी नर्मदा के
बहते आलाप को सुनती हुई मगनमन
कभी अपनी चुप्पी में अथाह
कभी अपने आवेग में
सम्पूर्णतः वाचाल

बड़ी झीलः जिसका पानी दिखता है
भोपाल के चेहरे पर खिला-खिला
और रहता है
हिन्दी-उर्दू की तरह मिला-जुला
जैसे काया में मन
Posted on 21 Jun, 2011 09:18 AM जैसे काया में मन रहता है
वैसे ही धरती में रहती है झील

लड़ती हुई फूहड़ता-विद्रूपता के खिलाफ़
दरअसल जो सुन्दरता की तरफ़दारी है

जैसे काया में मन रहता है
वैसे ही धरती में
झील रहती है
हर पहर जो पृथ्वी पर प्रेम की
कथा रचती है

झील में दूरदुनिया से पाखी आते हैं
अच्छे विचार की तरह
झील के आदर-सत्कार की उन्हें बड़ी तलब
झील भरी है
Posted on 20 Jun, 2011 01:23 PM झील भरी है
चलती है डोलती हुई
पानी का दोलन
झील को प्रिय है

हमारे मन से कितनी मिलती-जुलती
नाव है झील

प्यास बुझाती
लहराती चल रही है
कितनी तो चिन्ता-फिकर है
फिर भी झील चल रही है लहराती
पार लगाती
सांगोपांग जिउ

झील एक नाव है
Posted on 18 Jun, 2011 08:36 AM झील एक नाव है
जो धरती में तैर रही है

लिए हुए यह इच्छाएँ:
कि पानी है तो ज़िन्दगानी है
और पानी पाने से
प्यास नहीं होगी खंख

प्यास मर जाना
ज़िन्दगी के
ज़िन्दा न रहने की
कैफि़यत है

शताब्दियों को
उनके घाट उतारती
झील एक नाव है
और कविता के भीतर
पानी का तनाव है

पृथ्वी पानी का देश है
Posted on 17 Jun, 2011 09:09 AM पृथ्वी के तीन हिस्से से अधिक में
पानी की बसाहट (है)
कितने-कितने तो ढंग की-
कितने-कितने तो रंग की

पृथ्वी के भीतर-बाहर
पानी की कितनी चहल-पहल
जिसमें हलचल नहीं
वह पानी कहाँ हुआ
पानी की पद्धति से ही
हल हो रहा जीवन का गणित
प्यार की कितनी भाषाएँ हैं
पानी के पास
बारिश एक भाषा ही तो है
कई तरह के एहसास की
मटका
Posted on 16 Jun, 2011 08:55 AM पानी रिस-रिस कर
पानी को शीतल रखता है
इसी (सु) क्रिया से मटका
पानी पर मरता है

खाली रहना मटका को
बहुत भारी लगता है
बीतता नहीं उसका वक़्त
खालीपन के बोझ से
मटका लुढ़कता रहता है
इधर से उधर-उधर से इधर

अनमास लेने के बाद तो
बिन पानी के लगता नहीं मटका का जी
और उजड़ने लगती है उसकी रंगत

अपने पानी से भेंट
घट-ध्वनि
Posted on 15 Jun, 2011 09:01 AM (घट-ध्वनि में गूँजती है
श्रवण कुमार की करुन-कथा)

घट-ध्वनि
कि सीने पर श्रवण कुमार
खाता है शब्दभेदी वाण

माँ-पिता की प्यास
श्रवण के घायल कलेजे में
टीसती है
पानी न दे पाने का
उसका अफ़सोस
मृत्यु के मुँह तक जाता है!

वाण से श्रवण कुमार मरता है
श्राप से राजा दशरथ

तड़पती कथा
बहती है
पानी की आवाज़
Posted on 14 Jun, 2011 09:12 AM ऊपर पानी
नीचे पानी
पानी बीच ज़िन्दगानी है

घूँट-घूँट में
बूँद-बूँद में
रंगत और रवानी है

कितनी जानी-पहिचानी है
पानी की आवाज़
जनम-जनम से
नाभिनाल इससे ही
अपनी बोली-बानी है।

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