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यमुना रानी
Posted on 20 Oct, 2010 10:06 AM एक काव्य-हृदयी ऋषि वहां यमुना के किनारे रहकर हमेशा गंगास्नान के लिए जाया करता था। किन्तु भोजन के लिए वापिस यमुना के ही घर आ जाता था। जब वह बूढ़ा हुआ-ऋषि भी अंत में बूढ़े होते हैं-तब उसके थके मांदे पांवों पर तरस खाकर गंगा ने अपना प्रतिनिधि रूप एक छोटा-सा झरना यमुना के तीर पर ऋषि के आश्रम में भेज दिया। आज भी वह छोटा सा सफेद प्रवाह उस ऋषि का स्मरण कराता हुआ बह रहा है।हिमालय तो भव्यता का भंडार है। जहां-तहां भव्यता को बिखेरकर भव्यता की भव्यता को कम करते रहना ही मानो हिमालय का व्यवसाय है। फिर भी ऐसे हिमालय में एक ऐसा स्थान है, जिसकी ऊर्जस्विता हिमालय वासियों का भी ध्यान खींचती हैं। यह है यमराज की बहन का उद्गम-स्थान।

ऊंचाई से बर्फ पिघलकर एक बड़ा प्रपात गिरता है। इर्द-गिर्द गगनचुंबी नहीं, बल्कि गगनभेदी पुराने वृक्ष आड़े गिरकर गल जाते हैं। उत्तुंग पहाड़ यमदुतों की तरह रक्षण करने के लिए खड़ें हैं। कभी पानी जमकर बर्फ बन जाता है, और कभी बर्फ पिघलकर उसका बर्फ के जितना ठंडा पानी बन जाता है। ऐसे स्थान में जमीन के अंदर से एक अद्भुत ढंग से उबलता हुआ पानी उछलता रहता है। जमीन के भीतर से ऐसी आवाज निकलती है।
सागर-सरिता का संगम
Posted on 19 Oct, 2010 11:11 AM प्याज या कैबेज (पत्तागोभी) हाथ में आने पर फौरन उसकी सब पत्तियां खोलकर देखने की जैसे इच्छा होती है, वैसे ही नदी को देखने पर उसके उद्गम की ओर चलने की इच्छा मनुष्य को होती ही है। उद्गम की खोज सनातन खोज है। गंगोत्री, जमनोत्री और महाबलेश्वर या त्र्यंबक की खोज इसी तरह हुई है।छुटपन में भोज और कालिदास की कहानियां पढ़ने को मिलती थीं। भोज राजा पूछते हैं, “यह नदी इतनी क्यों रोती है?” नदी का पानी पत्थरों को पार करते हुए आवाज करता होगा। राजा को सूझा, कवि के सामने एक कल्पना फेंक दे; इसलिए उसने ऊपर का सवाल पूछा। लोककथाओं का कालिदास लोकमानस को जंचे ऐसा ही जवाब देगा न? उसने कहा, “रोने का कारण क्यों पूछते हैं, महाराज? यह बाला पीहर से ससुराल जा रही है। फिर रोयेगी नहीं तो क्या करेगी?” इस समय मेरे मन में आया, “ससुराल जाना अगर पसन्द नहीं है तो भला जाती क्यों है?” किसी ने जवाब दिया, “लड़की का जीवन ससुराल जाने के लिए ही है।”

सखी मार्कण्डी
Posted on 18 Oct, 2010 11:41 AM आगे जाकर जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तब इम्तहान के बाद हमारी भैयादूज होती है। फसल काटने के दिन होते। दो-दो दिन खेत में ही बिताने पड़ते। तब मार्कण्डी मुझे शकरकंद भी खिलाती और अमृत जैसा पानी भी पिलाती। जब यह देखने के लिए मैं जाता कि रात को ठंड के मारे वह कांप तो नहीं रही है, तब अपने आइने में वह मुझे मृगनक्षत्र दिखाती।क्या हरएक नदी माता ही होती है? नहीं। मार्कण्डी तो मेरी छुटपन की सखी है। वह इतनी छोटी है कि मैं उसे अपनी बड़ी बहन भी नहीं कह सकता।

बेलगुंदी के हमारे खेत में गूलर के पेड़ के नीचे दुपहर की छाया में जाकर बैठूं तो मार्कण्डी का मंद पवन मुझे जरूर बुलायेगा। मार्कण्डी के किनारे मैं कई बार बैठा हूं, और पवन की लहरों से डोलती हुई घास की पत्तियों को मैंने घंटों तक निहारा है। मार्कण्डी के किनारे असाधारण अद्भुत कुछ भी नहीं है। न कोई खास किस्म के फूल हैं, न तरह-तरह के रंगों की तितलियां हैं। सुन्दर पत्थर भी वहां नहीं हैं। अपने कलकूजन से चित्त को बेचैन कर डाले ऐसे छोटे-बड़े प्रपात भला वहां कहां से हों? वहां है केवल स्निग्ध शांति।

कहीं झीलों का शहर कहीं लहरों पर घर
Posted on 17 Oct, 2010 08:51 AM सोचो कि झीलों का शहर हो, लहरों पे अपना एक घर हो..। कोई बात नहीं जो झीलों के शहर में लहरों पर अपना घर नहीं हो पाए, कुछ समय तो ऐसा अनुभव प्राप्त कर ही सकते हैं जो आपको जिंदगी भर याद रहे। कहीं झीलों में तैरते घर तो कहीं, उसमें बोटिंग का रोमांचक आनन्द। कहीं झील किनारे बैठकर या वोटिंग करते हुए डॉलफिन मछली की करतबों का आनन्द तो कहीं धार्मिक आस्थाओं में सराबोर किस्से। ऐसी अनेक झीलें हैं हमारे देश में जिनमें से 10 महत्वपूर्ण झीलों पर एक रिपोर्ट।

डल लेक

जहां लहरों पर दिखते हैं घर


डल लेक का तो नाम ही काफी है। देश की सबसे अधिक लोकप्रिय इस लेक को प्राकृतिक खूबसूरती के लिए तो दुनियाभर में जाना ही जाता है, यह लोगों की आस्था से भी जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में इस लेक के किनारे देवी दुर्गा की निवास स्थली थी और इस स्थली का नाम था सुरेश्वरी। लेकिन यह झील ज्यादा लोकप्रिय हुई अपने प्राकृतिक और भौगोलिक
पुष्कर लेक
उत्तराखंडः प्रकृति नहीं विकास को कोसें
Posted on 15 Oct, 2010 03:43 PM अनियंत्रित और मैदानी प्रकृति का विकास उत्तराखंड जैसे पहाड़ी इलाकों के लिए विनाशकारी सिद्ध हो रहा है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि पड़ोस में लगी आग यदि हम नहीं बुझाएगें तो हमारा घर भी जल कर भस्म हो जाएगा। पूरा उत्तरी भारत इस बार उत्तराखंड की बाढ़ की भयावहता का विस्तार बन कर रह गया। इस विभीषिका का पुनरावृति रोकने के लिए आवश्यक भी है कि पहाड़ों को नैसर्गिक रूप से बचे रहने दिया जाए।-का.सं.सितम्बर के तीसरे सप्ताह की अखण्ड बारिश ने पूरे उत्तराखण्ड को तहस-नहस करके रख दिया था। अनुमान है कि इस दौरान दो सौ लोग तथा एकाध हजार पशु मारे गए। एक हजार मकान और फसल से भरे खेत भी नष्ट हो गए थे और अनेक सड़कें भी बह गई। वर्ष 1956, 1970 एवं 1978 में भी इस प्रकार की बारिश हुई थी। लेकिन तब इस प्रकार की तबाही नहीं हुई थी। मेरे बचपन में जहां गोपेश्वर गांव की आबादी 500 थी वह आज 15000 हो गई है। नए फैले हुए गोपेश्वर में बरसात के दिनों में टूट-फूट एवं जल-भराव की घटना कभी कभार होती रहती हैं लेकिन जो पुराना गांव है उसमें अभी तक इस प्रकार की गड़बड़ी नहीं के बराबर है। गोपेश्वर मन्दिर के नजदीक भूमिगत नाली पानी के निकास के लिए बनी थी जिसमें जलभराव की नौबत ही नहीं आती थी।

पैदावार बढ़ाने की मुश्किलें
Posted on 15 Oct, 2010 03:10 PM खेती छोटे जोतों में घाटे का सौदा सिद्ध हो रही है। खेती वाली जमीनें आवासीय क्षेत्रों में तब्दील हो गई हैं। लेकिन जहां खेती की जमीन कम हो रही है वहीं बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों के लिए घटते खेतों से अधिक पैदावार लेने की होड़ बढ़ गई है। पर्यावरण संरक्षण के मामलों में खेती को हम अक्सर भूल जाते हैं। लेकिन खेती ही आदिम मानव की वह पहली मुख्य गतिविधि थी, जिससे पर्यावरण बड़े पैमाने पर प्रभावित हुआ था। आदिम मानव ने जंगलों को जलाने या बिल्कुल साफ करने की शुरुआत खेतों को बनाने के लिए की थी। खेती करने से मनुष्य को खाने के लिए जंगलों में जगह-जगह भटकने की मजबूरी कम हो गई थी।

पर्यावरण के नजरिए से खेती को समझना जरूरी है। एक ही तरह के फसल चक्र से जमीन में सूक्ष्म खनिज संबंधी असंतुलन पैदा हो जाता है। यह जैव विविधता खेती में तब और कम हो जाती है जब बड़े पैमाने पर व्यावसायिक लाभ के लिए प्रयोगशाला में निर्मित बीजों से एक ही तरह के फसल की खेती की जाती है। इससे खेती पर निर्भर जीव जंतुओं की विविधता और उनके भोजन चक्र पर भी असर पड़ता है। एकल प्रजातियां विविधता भी खत्म कर रही हैं
पानी को सहेजने का सवाल
Posted on 11 Oct, 2010 09:20 AM
भारत का भूजल बहुत तेजी से नीचे जा रहा है, यह सिलसिला बहुत पहले नहीं था।
पानी और शौचालय को तरसते 64 करोड़ लोग
Posted on 08 Oct, 2010 08:31 AM

भारत में 63 करोड़ 80 लाख लोग पानी और शौचालय को तरस रहे है।


ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय की सुविधा 55 प्रतिशत घरों में नहीं है और आज यह समस्या अपने विकराल रुप के साथ 74 प्रतिशत तक पहुंच गयी है।

आंकड़े बताते है कि शौचालय की कमी के कारण 44 प्रतिशत माताएं अपने बच्चों को खुले आसमान के नीचे मैदान में मल-मूत्र कराने को मजबूर है।

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