तस्करों के चंगुल से कैसे बचे डॉल्फिन

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डॉल्फिन को राष्ट्रीय जीव घोषित किया गया है और सरकार की ओर से उसे बचाने के दावे-दर-दावे हो रहे हैं।


यूं उसके शिकार पर 1972 से ही पाबंदी है पर तस्करों की निगाह उस पर बराबर लगी हुई है। डॉल्फिन मानव के मित्र के रूप में जाना जाता है। वह नदी में अक्सर कुलांचें भर-भर कर सावधान करता रहता है कि कहां पर पानी गहरा है और कहां भंवर है। लेकिन आज डॉल्फिन अपने ही अस्तित्व के लिए जूझ रही है। तस्करों द्वारा उसकी चर्बी नेपाल के रास्ते और चीन और अन्य देशों को पहुंचाई जा रही है जिसके चलते उसका शिकार होता रहता है।

डॉल्फिन की जैव संरक्षण में अहम भूमिका है। हमारे यहां यह गंगा और उसकी सहायक नदियों के साथ ही ब्रहृपुत्र और उसकी सहायक नदियों में भी पायी जाती है। बिहार-उत्तर प्रदेश में पर यह सोंस और असम में जिहू नाम से जानी जाती है। केन्द्र सरकार ने बीते साल इसे राष्ट्रीय जलचर घोषित किया है और असम सरकार ने 2008 में इसे राज्य के जल जंतु के रूप में मान्यता दी है। इसके बावजूद इसका अस्तित्व पर संकट में है। आज से चार-साढ़े चार दशक पूर्व तक इसके अस्तित्व पर कोई संकट नहीं था। लेकिन जब से इसकी चर्बी से चीन, जापान, कोरिया आदि देशों में यौनवर्धक दवाएं बनाने के कारोबार में तेजी आयी, देश में डॉल्फिन पर सकंट के बादल मंडराने लगे और इसके शिकार में बढ़ोतरी हो गई। सालाना सैकड़ों की तादाद में इसका शिकार किया जाने लगा। तेल की खातिर भी इनका खूब शिकार हुआ है। मछुआरों के जाल में फंसने से भी इनकी मौत हुईं। नतीजन देश में आज इनकी तादाद दो हजार के आस-पास ही रह गई है।

विशेषज्ञों के अनुसार वर्ष 2008 में असम में इनकी तादाद तकरीब ढाई सौ थी जो अब डेढ़ सौ के करीब रह गई है। बिहार में पश्चिमी चंपारण के सरिसवां के पास चंवर से निकलकर कटिहार के पास गंगा में मिलने तक कुल तीन सौ किमी लंबाई में बहने वाली बूढ़ी गंडक में एक अनुमान के अनुसार आज से तीन दशक पहले तक 18 से 20 हजार तक डॉल्फिन थीं लेकिन आज इनकी तादाद सैकड़ों में सिमट कर रह गई है।

जानकारों के मुताबिक एक डॉल्फिन में तीन-सवा तीन किलो के आसपास चर्बी होती है जिसे मछुआरे तस्करों को दो-सवा दो हजार किलो की दर से बेचते हैं। नेपाल के रास्ते जब तक यह चीन पहुंचती है, इसकी कीमत 30-32 हजार रुपये किलो तक हो जाती है। मजे की बात यह है कि डॉल्फिन की चर्बी का यह कारोबार बिहार में रक्सौल के जरिये नेपाल में काठमांडू तक बेरोकटोक होता है। वहां से तिब्बत के खासा बार्डर के रास्ते यह चीन पहुंचायी जाती है। ऐसा नहीं है कि सरकार इससे अनभिज्ञ है पर राष्ट्रीय जीव घोषित कर उसके संरक्षण और संवर्धन का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार इस ओर से आंखें मूंदे बैठी है।

सरकार के पास डॉल्फिन के संरक्षण-संवर्धन के बारे में न कोई खास सोच है और न ही नीति। पर्यावरण मंत्रालय के पास इस बारे में कोई जवाब नहीं है। यदि ऐसा होता तो वह राष्ट्रीय गंगा बेसिन प्राधिकरण की बैठक में इस बारे में कोई तो फैसला करती लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गंगा की सफाई से डॉल्फिन का संरक्षण-संवर्धन हो सकेगा, इसकी उम्मीद कम ही है। पिछले 25 सालों से बेहिसाब खर्च करने के बाद आज तक गंगा साफ हो नहीं सकी है।

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह कि डॉल्फिन संरक्षण की उम्मीद गंगा के उद्धार से तो होती नजर नहीं आती। उसके लिए सरकार को अलग से कोई दीर्घकालिक ठोस योजना बनानी होगी। सबसे पहले मछली पकड़ने वाले मछुआरों को मछली पालन उद्योग से जोड़ना होगा ताकि उनके लिए रोजगार की गारंटी हो सके। दूसरे जो मछुआरे मछली पकड़ने के काम में लगे हैं, उन्हें प्रशिक्षित करना होगा ताकि उनके द्वारा मछली पकड़ने के लिए बिछाये गये जालों में डॉल्फिन को फंसने से बचाया जा सके। नदियों में जहां डॉल्फिन हैं वहां मछली पकड़ने पर पाबंदी लगायी जाये और उन मछलियों के प्राकृतिक आवासों को संरक्षण प्रदान किया जाये जिन पर डॉल्फिन निर्भर रहती हैं। सरकार को प्राथमिकता के आधार पर भागलपुर में गंगा में बने विक्रमशिला डॉल्फिन अभयारण्य की तरह ही गंगा और ब्राहृपुत्र में डॉल्फिन अभयारण्य बनाना चाहिए।

मछुआरों को डॉल्फिन का महत्व समझाना होगा कि यह राष्ट्रीय जल जीव मानव का बहुत बड़ा मित्र है। इसको बचाना हमारा कर्तव्य है, तभी इस दिशा में सार्थक परिणाम की आशा की जा सकती है अन्यथा मौजूदा हालात में इनका संरक्षण-सवंर्धन आसान नहीं लगता। समझ नहीं आता कि गंगा को बचाने के लिए हाय तौबा मचाने वाले संगठन, पर्यावरणविद आदि इस राष्ट्रीय जल जीव के अस्तित्व के सवाल पर चुप्पी क्यों साधे हैं।
 

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