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एक अनमोल, बेमोल और असाधारण पुस्तक
Posted on 13 Apr, 2012 02:04 PM ‘आज भी खरे हैं तालाब’ करीब दो दशक पूर्व पर्यावरण कक्ष, गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित की गई ऐसी पुस्तक थी जिस पर कोई कॉपीराइट नहीं है। तब से अब तक इस पुस्तक के बत्तीस संस्करण आ चुके हैं और करीब दो लाख से अधिक प्रतियां पाठकों तक पहुंच चुकी हैं। हिन्दी के अलावा इसके पंजाबी, बांग्ला, मराठी, उर्दू एवं गुजराती भाषा में संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इतना ही नहीं इक्कीस आकाशवाणी केंद्रों ने इस पुस्तक को संपूर्णता में प्रसारित किया है और कुछ ने तो श्रोताओं की मांग पर दो-तीन बार पुनः प्रसारित किया है। गांधी शांति प्रतिष्ठान ने इस ‘अनमोल’ पुस्तक के नवीनतम संस्करण को ‘बेमोल’ वितरित करने का अनूठा निर्णय लिया है। यह विशेष संस्करण भी दो हजार प्रतियों का है। पुस्तक का शुरुआती वाक्य है ‘अच्छे-अच्छे काम करते जाना।’
आज भी खरे हैं तालाब
अविरल एवं निर्मल गंगा की चुनौती पर विचार गोष्ठी
Posted on 13 Apr, 2012 01:21 PM

एक दिवसीय विचार गोष्ठी


आप सादर आमंत्रित हैं

14 अप्रैल 2012 : सुबह 10 बजे से शाम 05 बजे तक ।

स्थान - सोसाइटी फॉर प्रोमोशन ऑफ वेस्टलैंड डेवलपमेंट, विष्णु दिगम्बर मार्ग - दीनदयाल उपाध्याय मार्ग के पास (नजदीक अजय भवन / गांधी पीस फाउंडेशन)

निवेदक
जल मापने का महंगा पैमाना
Posted on 13 Apr, 2012 12:07 PM

भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी बीस रुपए प्रतिदिन से कम पर गुजारा करती है। ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि

मैला और मुकुट के बीच गहरा फासला
Posted on 13 Apr, 2012 10:34 AM

आधुनिक भारत में इंसान की गुलामी के अब दो ही नमूने मिलते हैं। रिक्शे पर बैठे आदमी को उसे चलाने वाला मेहनतकश आदमी ही ढोता है। इसके अलावा आदमी ही आदमी का मैला सिर पर ढोता है। इन दोनों मामलों में मैला ढोने की कुप्रथा कहीं ज्यादा शर्मनाक है। ज्यादा अफसोसजनक यह है कि देश के कानून, सरकार, आयोग, पुलिस या प्रशासन सभी के लिए इस कुप्रथा का खात्मा सदियों से चुनौती बना हुआ है।

केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट को दी गई एक हालिया जानकारी के मुताबिक सदियों पुरानी मैला कुप्रथा को जड़ से खत्म करने के लिए आगामी मानसून सत्र में एक विधेयक पेश करने की तैयारी हो रही है। एक अनुमान के मुताबिक अकेले इसी इस अमानवीय कुप्रथा के शिकंजे में देश भर में आज भी पांच लाख से ज्यादा लोग फंसे हैं। जबकि लाखों लोग ऐसी दूसरी कुप्रथाओं का भी त्रासद दुख भोग रहे हैं। कुप्रथाओं पर लगाम लगाने के प्रयासों में पाबंदी से ज्यादा उन पीड़ितों के पुनर्वास की जरूरत होती है। लेकिन इस दिशा में हो रहे प्रयासों की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगता है कि उस जनहित याचिका के 2003 में दायर होने के 9 साल बाद इस विधेयक के लाने की मंशा उच्चतम न्यायालय को बताई गई है।
लोक कल्याण के लिए निकल पड़े स्वामी सानंद
Posted on 12 Apr, 2012 04:47 PM

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती से आशीर्वाद लेने के बाद अपराह्न चार बजे स्वामी सानंद (प्रो.

पानी की फिक्र
Posted on 12 Apr, 2012 03:23 PM

यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित पानी के शोधन के लिए बने नियम-कायदों की अनदेखी की

जल दोहन रोकने के लिए सख्त कानून की जरूरतः मनमोहन
Posted on 11 Apr, 2012 10:15 AM नई दिल्ली, 10 अप्रैल। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश में आबादी की तुलना में पहले से ही कम पानी की उपलब्धता के और कम होते जाने पर चिंता जताते हुए कहा है कि अपने स्वामित्व वाली भूमि मनचाहा पानी निकालने की छूट नहीं होनी चाहिए। उन्होंने भूजल निकालने की छूट को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाए जाने की जरूरत पर जोर दिया है। राजधानी में ‘भारत जल सप्ताह’ का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि दुनिया क
भारतीय जल सप्ताह के उद्घाटन समारोह के मौके पर मंगलवार को दीप प्रज्जवलित करते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
नदियां जोड़ो, पर क्यों
Posted on 10 Apr, 2012 02:12 PM

नदी जोड़ो परियोजना के लिए ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट की तुलना में कहीं ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। तब क्या सुप्रीम कोर

देश की नदियों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा!
Posted on 10 Apr, 2012 11:24 AM

जल योजना के तहत अभी इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों पर अपना कब्जा जमा लिया है। हमार

विष रस भरा कनक घट जैसे
Posted on 10 Apr, 2012 10:15 AM

संदर्भ : ‘राष्ट्रीय जल-नीति 2012’


मसौदे का ‘पॉल्यूटर पेज’ का सिद्धांत भी इस बात की तरफ साफ इशारा करता है कि अपना मुनाफा ज्यादा से ज्यादा करने के लिए जितना चाहे पानी प्रदूषित करो, बस थोड़ा सा जुर्माना भरो और काम करते रहो। मसौदे में कहीं भी किसी भी ऐसे सख्त कानून या कदम की बात नहीं की गई है या ऐसे प्रयासों की बात नहीं की गई है कि अपशिष्ट और प्रदूषक पैदा ही न हों।

हाल ही में भारत के जल संसाधन मंत्रालय ने नई ‘राष्ट्रीय जल-नीति 2012’ का मसौदा जल विशेषज्ञों और आम नागरिकों के लिए प्रस्तुत किया है। यूं तो ये मसौदा सभी लोगों के लिए सुझाव आमंत्रित करता है लेकिन इसके पीछे की वास्तविकता कुछ और ही है। कई रहस्यों पर पर्दा डालती हुई और शब्दों से खेलती हुई यह जल-नीति इस बात की तरफ साफतौर पर इशारा करती है कि सरकार अब जलापूर्ति की जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ रही है। और यह काम बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों और वित्तीय संस्थाओं को सौंपना चाहती है। जलनीति के इस मसौदे को अगर देखा जाय तो पहली नजर में मन खुश हो जाता है। जलनीति में पहली बार जल-संकट से निजात के लिए एक एकीकृत दृष्टिकोण को महत्ता दी गई है। ऐसा लगता है कि साफ पेयजल और स्वच्छता के साथ-साथ पारिस्थितिकीय जरूरतों को भी प्राथमिकता दी गई है। पर जब इस मसौदे को हम गहराई से परखते हैं, तो साफ हो जाता है कि किस तरह से इसमें लच्छेदार भाषा का इस्तेमाल करके शब्दों का एक खेल खेला गया है।
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