‘आज भी खरे हैं तालाब’ करीब दो दशक पूर्व पर्यावरण कक्ष, गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित की गई ऐसी पुस्तक थी जिस पर कोई कॉपीराइट नहीं है। तब से अब तक इस पुस्तक के बत्तीस संस्करण आ चुके हैं और करीब दो लाख से अधिक प्रतियां पाठकों तक पहुंच चुकी हैं। हिन्दी के अलावा इसके पंजाबी, बांग्ला, मराठी, उर्दू एवं गुजराती भाषा में संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इतना ही नहीं इक्कीस आकाशवाणी केंद्रों ने इस पुस्तक को संपूर्णता में प्रसारित किया है और कुछ ने तो श्रोताओं की मांग पर दो-तीन बार पुनः प्रसारित किया है। गांधी शांति प्रतिष्ठान ने इस ‘अनमोल’ पुस्तक के नवीनतम संस्करण को ‘बेमोल’ वितरित करने का अनूठा निर्णय लिया है। यह विशेष संस्करण भी दो हजार प्रतियों का है। पुस्तक का शुरुआती वाक्य है ‘अच्छे-अच्छे काम करते जाना।’अनुपम जी भी ढेरों अच्छे काम करते रहते हैं और सारा श्रेय दूसरों को सौंपकर हमेशा भार मुक्त बने रहते हैं, जिससे कि अगला अच्छा कार्य कर पाएं। पुस्तक की पंक्तियां हैं ‘जहां सदियों से तालाब बनते रहे हैं, हजारों की संख्या में बने हैं - वहां तालाब बनाने का पूरा विवरण न होना शुरु में अटपटा लग सकता है, पर यही सबसे सहज स्थिति है। ‘तालाब कैसे बनाएं’ के बदले चारों तरफ ‘तालाब ऐसे बनाएं’ का चलन था।’
यह पुस्तक भी हमें बताती है कि लोकरुचि पर आधारित किसी रचना को ‘ऐसे’ लिखा जाता है। भाषा की माधुयर्ता और थिरकन के बीच कहीं यह महसूस ही नहीं होता कि इसमें कोई ऐसा शब्द भी है, जिसका अर्थ समझने के लिए किसी अन्य सूत्र का सहारा लेना पड़ेगा। दरअसल पूरी पुस्तक कुछ भी समझाने के बजाए समझने की प्रक्रिया को गति प्रदान करती है। एक ऐसा समय जिसमें लोग अपने घर के कचरे तक को बिना पैसे के किसी को नहीं देते उसी दौर में सोने से भी अनमोल पुस्तक का बेमोल मिलना यह बताता है कि समाज में अभी सामुहिकता की संभावनाएं शेष हैं।
हम जान गए हैं कि आने वाले समय में सर्वाधिक तीव्र संघर्ष पानी की उपलब्धता को लेकर ही होगा। भूजल के संवर्द्धन का तालाब के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं है। लेकिन हमारी आधुनिक विकास अवधारणा ने हमें यह समझा दिया है कि जमीन का तालाब के लिए छोड़ा जाना विकास विरोधी है। तभी तो हम देखते हैं कि दिल्ली जैसे महानगर से लेकर इंदौर जैसे छोटे शहरों के तथाकथित हजारों लाखों एकड़ के ‘मास्टर प्लान’ में एक भी तालाब प्रस्तावित नहीं होता। जबकि इस पुस्तक में जिस प्रकार से देश भर के तालाबों का जिक्र आता है उससे सहज ही समझा जा सकता है कि क्यों कुछ दशक पूर्व जहां कुछ हाथ खोदने पर ही पानी निकल आता था और आज हम धरती को एक-एक किलोमीटर तक छेद देते हैं और पानी फिर भी रूठा रहता है।
पुस्तक की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए ‘बिहार के लक्खीसराय क्षेत्र के आस-पास कभी 365 ताल एक झटके में बने थे। कहानी बताती है कि कोई रानी थी, जो हर दिन एक नए तालाब में स्नान करना चाहती थी। इस विचित्र आदत ने पूरे क्षेत्र को तालाबों से भर दिया। इस कहानी के कोई सौ तालाब आज भी यहां मिल जाएंगे और इनके कारण ही इस इलाके का जलस्तर उम्दा बना हुआ है।’ लेकिन हमने तो तालाब के स्थान पर स्विमिंग पूल की संस्कृति अपनाई है, जिसमें लाखों लीटर पानी प्रति सप्ताह बजाए जमीन में उतरने के ड्रेनेज में बहा दिया जाता है।
लेकिन आजादी के बाद जो व्यवस्था हमने चुनी वह कमोवेश अंग्रेजों के सिद्धांतों का ही अनुसरण थी। ‘देश के अनेक भागों में फिर कर अंग्रेजों ने कुछ या काफी जानकारियां जरुर एकत्र कीं, लेकिन यह सारा अभ्यास कुतुहल से ज्यादा नहीं था। उसमें कर्तव्य के सागर और उसकी बूंदों को समझने की दृष्टि नहीं थी। इसलिए विपुल मात्रा में जानकारियां एकत्र करने के बाद जो नीतियां बनीं, उनमें तो इस सागर और बूंद को अलग-अलग ही किया।’ अब इन पंक्तियों में ‘अंग्रेजों’ की जगह यदि ‘योजना आयोग’ लिख दिया जाए तो वर्तमान का सारा ताना-बाना कांच जैसा साफ नजर आ जाता है।
इस पुस्तक का ‘संदर्भ’ वाला हिस्सा भी मूल पुस्तक जितना ही रोचक बन पड़ा है। सामान्यतौर पर संदर्भ महज कुछ किताबों, सूत्रों या उदाहरणों का पुलिंदा भर होता है, लेकिन इस पुस्तक में इसके प्रस्तुतिकरण को भी अलग से रेखांकित किए जाने की आवश्यकता है। इसे पढ़ने के पश्चात और विस्तार में जाना आसान दिखाई देने लगता है। कुल मिलाकर अपनी लेखनी और साज सज्जा में अनमोल प्रतीत होने वाली यह पुस्तक जिस वाक्य ‘अच्छे-अच्छे काम करते जाना’ से शुरू होती है तो पूर्णता भी उसी वाक्य ‘अच्छे-अच्छे काम करते जाना’ पर ही पाती है। पिछले दो दशकों में हिन्दी की कोई किताब न तो इतनी पढ़ी गई और न ही बांची गई। इसकी लोकप्रियता के पीछे कहीं न कहीं तालाबों की अनिवार्यता भी छिपी है। इसे पढ़कर सैंकड़ों हजारों नए तालाब खोदे गए या पुनर्जीवित किए गए हैं। कई व्यक्तियों और संस्थाओं ने इसे पढ़कर पानी के पारम्परिक स्त्रोतों के पुनुरुद्धार का कार्य भी प्रारंभ किया है। ये सबकुछ ‘आज भी खरे हैं तालाब’ की सार्थकता सिद्ध करता है और बताता है कि यह विचार कुछ छपे हुए पन्नों में सीमित न रहकर पूरी धरती पर विस्तारित हुआ है।
यह पुस्तक भी हमें बताती है कि लोकरुचि पर आधारित किसी रचना को ‘ऐसे’ लिखा जाता है। भाषा की माधुयर्ता और थिरकन के बीच कहीं यह महसूस ही नहीं होता कि इसमें कोई ऐसा शब्द भी है, जिसका अर्थ समझने के लिए किसी अन्य सूत्र का सहारा लेना पड़ेगा। दरअसल पूरी पुस्तक कुछ भी समझाने के बजाए समझने की प्रक्रिया को गति प्रदान करती है। एक ऐसा समय जिसमें लोग अपने घर के कचरे तक को बिना पैसे के किसी को नहीं देते उसी दौर में सोने से भी अनमोल पुस्तक का बेमोल मिलना यह बताता है कि समाज में अभी सामुहिकता की संभावनाएं शेष हैं।
हम जान गए हैं कि आने वाले समय में सर्वाधिक तीव्र संघर्ष पानी की उपलब्धता को लेकर ही होगा। भूजल के संवर्द्धन का तालाब के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं है। लेकिन हमारी आधुनिक विकास अवधारणा ने हमें यह समझा दिया है कि जमीन का तालाब के लिए छोड़ा जाना विकास विरोधी है। तभी तो हम देखते हैं कि दिल्ली जैसे महानगर से लेकर इंदौर जैसे छोटे शहरों के तथाकथित हजारों लाखों एकड़ के ‘मास्टर प्लान’ में एक भी तालाब प्रस्तावित नहीं होता। जबकि इस पुस्तक में जिस प्रकार से देश भर के तालाबों का जिक्र आता है उससे सहज ही समझा जा सकता है कि क्यों कुछ दशक पूर्व जहां कुछ हाथ खोदने पर ही पानी निकल आता था और आज हम धरती को एक-एक किलोमीटर तक छेद देते हैं और पानी फिर भी रूठा रहता है।
पुस्तक की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए ‘बिहार के लक्खीसराय क्षेत्र के आस-पास कभी 365 ताल एक झटके में बने थे। कहानी बताती है कि कोई रानी थी, जो हर दिन एक नए तालाब में स्नान करना चाहती थी। इस विचित्र आदत ने पूरे क्षेत्र को तालाबों से भर दिया। इस कहानी के कोई सौ तालाब आज भी यहां मिल जाएंगे और इनके कारण ही इस इलाके का जलस्तर उम्दा बना हुआ है।’ लेकिन हमने तो तालाब के स्थान पर स्विमिंग पूल की संस्कृति अपनाई है, जिसमें लाखों लीटर पानी प्रति सप्ताह बजाए जमीन में उतरने के ड्रेनेज में बहा दिया जाता है।
पिछले दो दशकों में हिन्दी की कोई किताब न तो इतनी पढ़ी गई और न ही बांची गई। इसकी लोकप्रियता के पीछे कहीं न कहीं तालाबों की अनिवार्यता भी छिपी है। इसे पढ़कर सैंकड़ों हजारों नए तालाब खोदे गए या पुनर्जीवित किए गए हैं। कई व्यक्तियों और संस्थाओं ने इसे पढ़कर पानी के पारम्परिक स्त्रोतों के पुनुरुद्धार का कार्य भी प्रारंभ किया है। ये सबकुछ ‘आज भी खरे हैं तालाब’ की सार्थकता सिद्ध करता है और बताता है कि यह विचार कुछ छपे हुए पन्नों में सीमित न रहकर पूरी धरती पर विस्तारित हुआ है।
एक अनूठी जानकारी हमारे सामने आती है कि देश के जिन तीन जिलों राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर और बीकानेर में देश की सबसे कम वर्षा होती है, वहां के शत प्रतिशत गांवों में पानी का प्रबंधन है। इस बाबद अनुपम जी लिखते है, ‘पानी के मामले में हर विपरीत परिस्थिति में उसने जीवन की रीत खोजने का प्रयत्न किया और मृगतृष्णा को झुठलाते हुए जगह-जगह तरह-तरह के प्रबंधन किए।’ लेकिन आज शहरों में तीन सौ किलोमीटर तक की दूरी से पानी लाने का पागलपन साफ दर्शा रहा है कि शहरीकरण पर रोक लगाए बिना पानी नहीं बचाया जा सकता। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ महज तालाबों की गुणगाथा भर नहीं है बल्कि इसके मायने हैं आधुनिक विकास के ढर्रे और आधुनिक समाज की गिरती सामाजिकता पर गंभीर विमर्श। जरा इन पंक्तियों पर गौर करिए, ‘अंग्रेज सात समुंदर पार से आए थे और अपने समाज के अनुभव लेकर आए थे। वहां वर्गों पर टिका समाज था, जिसमें स्वामी और दास के संबंध थे। वहां राज्य ही फैसला करता था कि समाज का हित किसमें है। यहां जाति का समाज था और राजा जरुरी थे पर राजा और प्रजा के संबंध अंग्रेजों के अपने अनुभवों से एकदम भिन्न थे। यहां समाज अपना हित स्वयं तय करता था और उसे अपनी शक्ति से, अपने संयोजन से पूरा करता था। राज उसमें सहायक होता था।’ ब्रिटिश साम्राज्य पूर्व के भारत की सामाजिक स्थिति का यह अत्यंत सुंदर व सारगर्भित वर्णन है।लेकिन आजादी के बाद जो व्यवस्था हमने चुनी वह कमोवेश अंग्रेजों के सिद्धांतों का ही अनुसरण थी। ‘देश के अनेक भागों में फिर कर अंग्रेजों ने कुछ या काफी जानकारियां जरुर एकत्र कीं, लेकिन यह सारा अभ्यास कुतुहल से ज्यादा नहीं था। उसमें कर्तव्य के सागर और उसकी बूंदों को समझने की दृष्टि नहीं थी। इसलिए विपुल मात्रा में जानकारियां एकत्र करने के बाद जो नीतियां बनीं, उनमें तो इस सागर और बूंद को अलग-अलग ही किया।’ अब इन पंक्तियों में ‘अंग्रेजों’ की जगह यदि ‘योजना आयोग’ लिख दिया जाए तो वर्तमान का सारा ताना-बाना कांच जैसा साफ नजर आ जाता है।
इस पुस्तक का ‘संदर्भ’ वाला हिस्सा भी मूल पुस्तक जितना ही रोचक बन पड़ा है। सामान्यतौर पर संदर्भ महज कुछ किताबों, सूत्रों या उदाहरणों का पुलिंदा भर होता है, लेकिन इस पुस्तक में इसके प्रस्तुतिकरण को भी अलग से रेखांकित किए जाने की आवश्यकता है। इसे पढ़ने के पश्चात और विस्तार में जाना आसान दिखाई देने लगता है। कुल मिलाकर अपनी लेखनी और साज सज्जा में अनमोल प्रतीत होने वाली यह पुस्तक जिस वाक्य ‘अच्छे-अच्छे काम करते जाना’ से शुरू होती है तो पूर्णता भी उसी वाक्य ‘अच्छे-अच्छे काम करते जाना’ पर ही पाती है। पिछले दो दशकों में हिन्दी की कोई किताब न तो इतनी पढ़ी गई और न ही बांची गई। इसकी लोकप्रियता के पीछे कहीं न कहीं तालाबों की अनिवार्यता भी छिपी है। इसे पढ़कर सैंकड़ों हजारों नए तालाब खोदे गए या पुनर्जीवित किए गए हैं। कई व्यक्तियों और संस्थाओं ने इसे पढ़कर पानी के पारम्परिक स्त्रोतों के पुनुरुद्धार का कार्य भी प्रारंभ किया है। ये सबकुछ ‘आज भी खरे हैं तालाब’ की सार्थकता सिद्ध करता है और बताता है कि यह विचार कुछ छपे हुए पन्नों में सीमित न रहकर पूरी धरती पर विस्तारित हुआ है।
Path Alias
/articles/eka-anamaola-baemaola-aura-asaadhaarana-pausataka
Post By: Hindi