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कमजोर मानसून से सूखे की आशंका
Posted on 24 Jul, 2012 11:40 AM इस बार कमजोर मानसून की वजह से सूखे की आशंका ने किसानों की मुसीबत बढ़ा दी है। जुलाई का तीसरा हफ्ता बीत गया लेकिन बारिश का कोई आसार नहीं है। इसका असर खेती और पीने के पानी पर दिखने लगा है। कमजोर मॉनसून की वजह से न सिर्फ खेती और जल प्रबंधन में दिक्कत आ रही है बल्कि खाने-पीने की चीजों की कीमतें भी बढ़ रही हैं। पिछले साल के मुकाबले इस बार 8 लाख हेक्टेयर क्षेत्र कम बुआई हुई है। इससे ज्वार बाजरा जैसे प
अकाल मंडराने लगा है
Posted on 23 Jul, 2012 03:38 PM शिवराम की एक कविता है अकाल। उसकी कुछ लाइनें हैं
‘रूठ जाते हैं बादल/ सूख जाती हैं नदियाँ /सूख जाते हैं पोखर-तालाब/ कुएँ-बावड़ी सब/ सूख जाती है पृथ्वी/ बहुत-बहुत भीतर तक / सूख जाती है हवा / आँखों की नमी सूख जाती है / हरे भरे वृक्ष / हो जाते हैं ठूँठ /डालियों से /सूखे पत्तों की तरह /झरने लगते हैं परिंदे/ कातर दृष्टि से देखती हैं /यहाँ-वहाँ लुढ़की / पशुओं की लाशें’
बांधों का दुराग्रह कहीं का न छोड़ेगा
Posted on 21 Jul, 2012 02:46 PM भारतीय लोकतंत्र की परिधि में विकास के नये मंदिर नहीं आते। चाहे सेज का मामला हो, चाहे लंबी चौड़ी सड़कें बनाना हो या किसी बड़े बांध का मामला हो कभी भी इन पर सवाल नहीं उठाया जाता। बड़ी परियोजनाओं में लोगों को अपने घर, खेती, पनघट, गोचर और जंगलों से हाथ धोना पड़ता है। बड़ी परियोजनाएं यानी बड़ी कंपनियां साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण ही है। और यह प्रक्रिया दिन प्रतिदिन तेज होती जा रही है और जिसमें जनता का कोई रक्षक नहीं रह गया है। वर्तमान में उत्तराखंड सहित भारत के सभी पहाड़ी इलाकों में बांधों का दौर शुरू हो गया है। नदियां लगातार बांधी जा रही हैं। बांधों में ही पहाड़ की सभी समस्याओं का हल देख रहे लोग एक बड़े दुराग्रह का शिकार हैं बता रहे हैं शेखर पाठक।

विकास के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं और हर एक को अपनी बात कहने का जनतांत्रिक अधिकार है। इसलिए जीडी अग्रवाल, राजेंद्र सिंह और उनके साथियों, भरत झुनझुनवाला और श्रीमती झुनझुनवाला के साथ पिछले दिनों जो बदसलूकी हुई, वह सर्वथा निंदनीय है। यह हमला कुछ लोगों ने नियोजित तरीके से किया था। राजनीतिक पार्टियों का नजरिया बहुत सारे मामलों में एक जैसा हो गया है, पर विभिन्न समुदायों ने अभी अपनी तरह से सोचना नहीं छोड़ा है।
वन मिटा सकते हैं गरीबी
Posted on 20 Jul, 2012 03:43 PM

संयुक्त वन प्रबंधन का राष्ट्रीय स्तर पर कोई कानूनी ढांचा नहीं हैं, जिसके कारण स्थानीय ग्रामीण समुदायों में यह पू

पानी और बाजार
Posted on 19 Jul, 2012 06:12 PM ‘जल ही जीवन है’ ऐसा कहा गया है। पहले हमारे पूर्वज राह चलते पथिक को पानी पिलाने में बहुत सुकून पाते थे। जगह-जगह पर प्याऊ लगाकर लोगों का प्यास बुझाया जाता था लेकिन वही पानी अब बोतलों में बंद करके बाजार में बेचा जा रहा है। पानी, बाजार की वस्तु हो गई है। जिसे कंपनियां अपने बोतलों में भरकर बाजार में 12 से 15 रुपए तथा कैन में भरकर बेच रही हैं। पानी के व्यवसायीकरण ने पानी को मंहगा बना दिया है। पानी क
गंगा को देखकर दुख होता है
Posted on 19 Jul, 2012 10:20 AM गंगा गंदगी से ज्यादा आधुनिकता और परंपरा के पाखंड की शिकार हैं। कांग्रेस और भाजपा और उनसे जुड़े तमाम संगठन इसी का खेल खेल रहे हैं। गंगा को हर तरह से लूटने की कोशिश हो रही है। मोक्षदायिनी गंगा को कहीं बांध में बांधकर तो कहीं गंदे नाले का कचरा डालकर कचरा ढोने वाली मालगाड़ी बना रहे हैं। जब गंगा नदी राष्ट्रीय प्राधिकरण का गठन हुआ तो दावा किया गया था कि गंगा को टेम्स नदी की तरह साफ-सुथरा और सदानीरा ब
खोखले साबित होते गंगा रक्षा के वादे
Posted on 19 Jul, 2012 10:01 AM भारतीय परंपरा में गंगा को पृथ्वी की साक्षात देवी माना गया है। अंतिम समय में मां गंगा की गोद में समाकर ही मोक्ष मिलता है। चौदह साल तक एक पैर पर खड़ा होकर गंगा को धरती पर उतारने के लिए तपस्या करने वाले राजा भगीरथ ने कभी सपने में भी न सोचा होगा कि जिन मां गंगा के अवतरण के लिए उनकी कई पीढ़ियां भेंट चढ़ गईं उसकी इस धरा पर ऐसी दुर्दशा होगी। जहां गंगा अविरल बहती थी वहां कहीं-कहीं पानी नजर आता है। जहां
गंगा बहाव में ही मानव का अस्तित्व
Posted on 18 Jul, 2012 04:58 PM राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के गठन को तीन वर्ष हो गए हैं, लेकिन विगत तीन वर्षों में मूल-भूत विसंगतियां भी दूर नहीं की जा सकी हैं। यह स्थिति तब है, जब प्रधानमंत्री स्वयं इस प्राधिकरण के अध्यक्ष हैं। प्राधिकरण के बैठक में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री द्वारा गंगा पर बांध बनाने की जोर देना एक तरह से गंगा का मखौल उड़ाया जा रहा है। गंगा नदी के संबंध में आस्था पक्ष के आधार पर ही समझौता हुआ था, लेकि
गंगा : साधु-संतों से कुछ अपेक्षाएं भी हैं
Posted on 18 Jul, 2012 12:05 PM भारत की सबसे प्रमुख पहचान गंगा है। अगर गंगा को नहीं बचाया गया तो भारत देश का नाम कैसे बचेगा। जिस गंगा का नाम लेने मात्र से पवित्रता का बोध होता है। यह देश की एकता और अखंडता का माध्यम और भारत की जीवन रेखा के अतिरिक्त और बहुत कुछ है। गंगा जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी दोनों है। एक समय में हमारी आस्था इतनी प्रबल थी कि फिरंगी सरकार को भी झुकना पड़ा था। अंग्रेजी हुकूमत ने गंगा के साथ आगे और छेड़छाड़ न करने का वचन दिया था। पर अंग्रेजों की सांस्कृतिक संतानें आज गंगा को लुटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। गंगा पर हो रहे अत्याचार के बारे में बता रहे हैं रामबहादुर राय।

पिछले दो-तीन सालों से जिस तरह की गतिविधियां गंगा के बारे में चलाई जा रही हैं, वे आशा नहीं जगातीं। यह बात अलग है कि उन गतिविधियों को संचालित करने वाले कोई ऐरे-गैरे लोग नहीं हैं। साफ है कि वे बहुत माने-जाने लोग हैं। उनकी प्रतिष्ठा है। कई तो ऐसे हैं जो न केवल प्रतिष्ठित हैं, बल्कि पदस्थापित भी हैं। ऐसे लोगों के प्रयास से गंगा को बचाने का जो भी काम चलेगा, उसे सफल होना चाहिए। यही आशा की जाती है।

इसमें कोई संदेह न पहले था न आज है कि गंगा का हमारे जीवन में कितना गहरा असर है। धार्मिक ग्रंथों में गंगा का जो वर्णन है, वह उसके प्रभाव को बढ़ाता है और बनाए रखता है। न जाने कब से यह परंपरा बनी हुई है। इतना तो साफ है कि गंगोत्री से गंगासागर तक दूरी चाहे जितनी हो और गंगा चाहे जहां की भी हो, उसकी एक-एक बूंद पवित्र मानी जाती है। इसी तरह गंगा के किनारे जो थोड़ा क्षण भी गुजार लेता है, वह इस रूप में स्वयं को धन्य पाता है कि गंगा के प्रवाह में वह न केवल भागीरथ को देखता है बल्कि उन पुरखों को भी देखता है, जो उसके अपने हैं। गंगा का प्रवाह ही ऐसा है। गंगा की पवित्रता उसके प्रवाह में है। वह प्रवाह परंपरा का है और उस क्षण का है, जिस क्षण का व्यक्ति साक्षी बनता है।
जय हो गंगा माई, बेटे हुए कसाई
Posted on 12 Jul, 2012 05:21 PM अंग्रेजों ने भी गंगा की अविरलता का सम्मान किया लेकिन दुर्भाग्य है कि आज की सरकारें गंगा जैसी नदी को भी नाला बनाने पर तुली है। उसके शरीर से एक-एक बूंद निचोड़ लेना चाहते हैं। कानपुर जैसे शहरों में चमड़ा फैक्ट्रियों का पानी गंगाजल को गंदाजल ही बना देता है। अपने उद्गम प्रदेश में हर-हर बहने वाली गंगा अब सुरंगों और बांधों में कैद हो रही है। उद्गम के कैचमेंट में खनन, सुरंगों के बनने से हजारों लाखों पेड़ काटे जा रहे हैं जिससे हिमालय की कच्ची मिट्टी गाद बनकर गंगाजल को गंधला बना रही है। शहरों के कचरे, नैसर्गिक बहाव का कम होना और सरकारों की लापरवाही और बेइमानी गंगा पूर्णाहुति के जिम्मेदार हैं बता रहे हैं स्वामी आनंदस्वरूप।

दुर्भाग्य तो यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सिंचाई के लिए लिया जाने वाला यह गंगाजल, दिल्ली में विदेशी कंपनियों द्वारा पीने के लिए बेचा जा रहा है। साथ ही पवित्र गंगाजल कार और शौचालय साफ करने के काम आ रहा है। बाणगंगा और काली नदी जैसी सहायक नदियों के द्वारा उत्तर प्रदेश की चीनी, कागज और अन्य मिलों के साथ घरेलू मल-मूत्र गंगा नदी में डाल कर पूरी नदी की हत्या कर देते हैं। रही-सही कसर कानपुर के छब्बीस हजार से भी अधिक छोटे-बड़े उद्योग पूरी कर देते हैं, जिनमें करीब चार सौ चमड़ा शोधन कारखाने भी शामिल हैं।

गंगा का नाम लेने मात्र से पवित्रता का बोध होता है। यह देश की एकता और अखंडता का माध्यम और भारत की जीवन रेखा के अतिरिक्त और बहुत कुछ है। गंगा जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी दोनों है। आज भी लगभग तीस करोड़ लोगों की जीविका का माध्यम है। मगर पिछली डेढ़ सदी से गंगा पर हमले पर हमले किए जा रहे हैं और हमें जरा भी अपराध-बोध नहीं है। एक समय में हमारी आस्था इतनी प्रबल थी कि फिरंगी सरकार को भी झुकना पड़ा था। अंग्रेजी हुकूमत ने गंगा के साथ आगे और छेड़छाड़ न करने का वचन दिया था। उसने बहुत हद तक उसका पालन करते हुए हरिद्वार में भागीरथ बिंदु से अविरल प्रवाह छोड़ कर गंगा की अविरलता बनाए रखी। देश आजाद तो हुआ, पर अंग्रेजों की सांस्कृतिक संतानें भारत में ही थीं और उन्होंने भारत की संस्कृति की प्राण, मां गंगा पर हमले करने शुरू किए।
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