खोखले साबित होते गंगा रक्षा के वादे

भारतीय परंपरा में गंगा को पृथ्वी की साक्षात देवी माना गया है। अंतिम समय में मां गंगा की गोद में समाकर ही मोक्ष मिलता है। चौदह साल तक एक पैर पर खड़ा होकर गंगा को धरती पर उतारने के लिए तपस्या करने वाले राजा भगीरथ ने कभी सपने में भी न सोचा होगा कि जिन मां गंगा के अवतरण के लिए उनकी कई पीढ़ियां भेंट चढ़ गईं उसकी इस धरा पर ऐसी दुर्दशा होगी। जहां गंगा अविरल बहती थी वहां कहीं-कहीं पानी नजर आता है। जहां पानी दिखता है वहां गंदगी और दुर्गंध गंगा की पवित्रता पर सवाल उठाने पर मजबूर कर देते हैं। यह जुमला अब तो और भी प्रासंगिक हो गया है कि हमारी गंगा मैली हो गयी है पापियों के पाप धोते-धोते।

उत्तराखंड में बांध समर्थक खूब मुखर हुए हैं। जगह-जगह धरना-प्रदर्शनों का सिलसिला चल रहा है। बांध विरोधियों को विकास विरोधी बताया जा रहा है। उनसे अपने घरों की बिजली का कनेक्शन कटवाने की बात कही जा रही है। संतों को सामाजिक जीवन में अनावश्यक दखल न देने की सलाह दी जा रही है। चेतावनी दी जा रही है कि संत बांधों के विरोध से बाज नहीं आये तो उनमें और गृहस्थों में संघर्ष अपरिहार्य हो जायेगा।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहा गया है। मां और मातृभूमि को स्वर्ग से भी अधिक महान मानने वाले भारतीय न जाने कब से गंगा को मां कहते आये हैं, उसे देवी और मोक्षदायिनी मानते आए हैं। लेकिन शायद कुछ लोगों की दृष्टि में केंद्रीय सरकार द्वारा गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिए जाने से उसके रुतबे में इजाफा हुआ है। इससे उसकी सुरक्षा की पक्की गारंटी मिल गई है। राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय स्मारक, राष्ट्रीय पशु-पक्षी की तर्ज पर किसी चीज को राष्ट्रीय घोषित करने को शायद वे उसकी सुरक्षा का अचूक उपाय मानते हैं। संत, समाजसेवी और पर्यावरणविद् गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने की मांग करते आ रहे थे। विभिन्न मंचों से यह आवाज उठ रही थी कि गंगा का प्रदूषण रुके, उसका प्रवाह निर्बाध हो और उसकी पवित्रता-निर्मलता बरकरार रखने के पुख्ता इंतजाम किये जायें। इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फरवरी, 2009 में उसे राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ-साथ ‘राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण’ का गठन भी किया। गंगा रक्षा के लिए आंदोलन प्रधानमंत्री के कदम के बाद भी जारी हैं, बल्कि और तेज हुए हैं और मांगें ज्यों की त्यों हैं। तो क्या घाटी प्राधिकरण का निर्माण और गंगा को दिया गया राष्ट्रीय नदी का तमगा कारगर साबित नहीं हो रहा है?

गंगा को लेकर देश में वर्षों से गहरी चिंता जाहिर की जाती रही है। उसे प्रदूषण मुक्त करने का सरकारी उपक्रमों का इतिहास भी लंबा है। जून, 1985 में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की ‘गंगा कार्य योजना’ के श्रीगणेश से लेकर फरवरी, 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा ‘राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण’ के गठन तक का सफर तय किया जा चुका है। विगत 17 अप्रैल को घाटी प्राधिकरण की तीसरी बैठक हुई। उसके अध्यक्ष मनमोहन सिंह ने उसमें जो कुछ कहा, उससे जाहिर है कि गंगा प्रदूषण नियंत्रण योजनाएं अपने लक्ष्य से अभी बहुत दूर हैं। गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक नदी के किनारे बसे शहरों का 290 करोड़ लीटर गंदा पानी प्रतिदिन उसमें जा रहा है। आंकड़े बताते हैं कि इसका 40 प्रतिशत (110 करोड़ लीटर) ही शोधित हो पाता है। यह आंकड़ा भी कितना सच है, पता नहीं। गंगा कार्य योजना को लागू हुए 25-26 वर्ष बीत गए। फिर भी गंगा की दशा निरंतर बद से बदतर होती जा रही है। उसमें गंदा पानी, कूड़ा-कचरा, औद्योगिक इकाइयों का जहरीला अपशिष्ट आदि बदस्तूर डाले जा रहे हैं, जिससे उसका पानी पीने तो क्या नहाने के लायक भी नहीं बचा है।

अब जरा गौर करें कि कितना सरकारी धन इस काम पर खर्च किया गया। गंगा कार्य योजना को उसकी शुरुआत में 896.05 करोड़ रुपये दिए गए। अप्रैल, 2011 में केंद्रीय सरकार ने राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के अधीन 7000 करोड़ रुपये की भारी-भरकम परियोजना ‘निर्मल गंगा मिशन’ मंजूर की। गंगा की सफाई का जिम्मा घाटी प्राधिकरण को सौंपा गया। परियोजना का क्रियान्वयन आठ वर्ष की समय-सीमा में उन तमाम राज्यों के सहयोग से होना है, गंगा जिनसे होकर गुजरती है। इस राशि में 1900 करोड़ रुपया इन राज्यों (उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल) को वहन करना है। विश्व बैंक ने इसके लिए सरकार को एक बिलियन डालर (लगभग 5500 करोड़ रुपये) का ऋण दिया है। जाहिर है कि गंगा को निर्मल बनाने में धन की कमी आड़े नहीं आ रही है। इसके लिए उपलब्ध विपुल धनराशि का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार के रास्ते नेता, नौकरशाह तथा स्वयंसेवी संस्थाओं की जेबों में पहुंच रहा है, यह आरोप अलबत्ता लगाया जा रहा है।

घाटी प्राधिकरण की 17 अप्रैल की बैठक में प्रधानमंत्री ने उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि वे परियोजना लागू करने में अपेक्षित रुचि एवं तेजी नहीं दिखा रहे हैं। उसके लिए 2600 करोड़ रुपये आवंटित हुए हैं, लेकिन राज्य सरकारें उसका उपयोग नहीं कर पा रही हैं। यानी प्रधानमंत्री ने एक तरह से गंगा प्रदूषण मुक्ति के कार्य में शिथिलता का ठीकरा राज्य सरकारों के सिर फोड़ा। बैठक का माहौल निराशाजनक था। इसमें प्रधानमंत्री के साथ उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा झारखंड के मुख्यमंत्री उपस्थित थे। पश्चिम बंगाल के प्रतिनिधि के रूप में वित्त मंत्री अमित मित्र आये थे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश की चिंता प्रयाग कुंभ मेले के दौरान गंगा में पर्याप्त जल की उपलब्धता तक सीमित थी। विजय बहुगुणा गंगा पर बड़े-बडे बांधों को उत्तराखंड के विकास का मंत्र साबित करने में लगे थे। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी, पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन अथवा जल संसाधन मंत्री पवन बंसल के पास गंगा रक्षा की किसी कारगर योजना का प्रारूप नहीं था। गंगा की दुरावस्था को रेखांकित करने तथा कर्तव्य पालन में कोताही बरतने के लिए राज्यों को कोसने वाले प्रधानमंत्री इस मसले में केंद्र सरकार की उदासीनता पर खामोश रहे।

घाटी प्राधिकरण का गठन देश में गंगा मुक्ति आंदोलनों के ज्वार की त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था, उसके सुविचारित समाधान के रूप में नहीं। आंदोलनों के दबाव में उसमें कतिपय सामाजिक कार्यकर्ताओं का समायोजन तो हुआ, किन्तु राजनेता अथवा नौकरशाह उन्हें बराबर का दर्जा देने में सदैव गुरेज करते हैं। ऐसे में संदेह होता है कि क्या घाटी प्राधिकरण गंगा रक्षा की समस्या का सही निदान करने तथा उसके समाधान की दिशा में प्रभावी कदम उठाने में सक्षम होगा? सरकारी स्तर पर सही नीति निर्धारण में कठिनाई तो है ही, उसके क्रियान्वयन के लिए वर्तमान सरकारी तंत्र पर भरोसा करना भी कठिन है। सामाजिक कार्यकर्ताओं, संतों आदि के माध्यम से गंगा के मुद्दे पर जन जागरण तथा गंगा रक्षा के अभियान में जन सहभागिता सुनिश्चित करना नितांत आवश्यक है। वरना घाटी प्राधिकरण की कछुआ चाल और निष्प्रभावी वर्तमान व्यवस्था के चलते ‘निर्मल गंगा मिशन’ का अंजाम गंगा कार्य योजना जैसा ही होगा। गंगा मुक्ति के अब तक की कोशिशों के बेनतीजा होने का प्रमुख कारण जनसहभागिता का अभाव माना जाता है। हरिद्वार की गंगा सभा आजकल एक प्रयास कर रही है।

गंगा आरती से ठीक पहले हर की पौड़ी पर एकत्र हजारों श्रद्धालुओं को गंगा को अविरल-निर्मल बनाये रखने की शपथ दिलाई जाती है। यह मात्र एक कर्मकांड न होकर गंगाभक्तों को ठोस कार्य की प्रेरणा दे सके तो सराहनीय कहा जायेगा। अंग्रेज सरकार ने 1912 में हरिद्वार में गंगा पर हर की पौड़ी से पहले भीमगोड़ा में बांध बनाने की योजना बनाई थी। मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में 1916 में 25 रियासतों के साथ यहां के पुरोहितों ने उसका जबरदस्त विरोध किया और बांध की योजना निरस्त हुई। सरकार को हर की पौड़ी तक गंगा की अविच्छिन्न धारा का प्रवाह सुनिश्चित करना पड़ा। पुरोहितों के इस तर्क को स्वीकार किया गया कि गंगा स्नान तथा तमाम वैदिक कर्मकांड के लिए निर्बाध गंगा चाहिए, बांध से बंधी गंगा नहीं। क्या धर्माचार्य और श्रद्धालु जन उत्तराखंड में बांधों के विरोध में एक बार फिर वैसा ही आंदोलन शुरू करने का मन बना रहे हैं?

जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती और स्वामी जयेंद्र सरस्वती सहित कुछ धर्माचार्यों के नेतृत्व में संत समाज को गंगा मुक्ति के लिए खड़ा करने की कोशिश हो रही है। 18 जून को दिल्ली में जंतर-मंतर पर स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के नेतृत्व में आयोजित धरने से गंगा मुक्ति संग्राम का शंखनाद हुआ। राजघाट पर संतों ने गंगा की निर्मलता का लक्ष्य प्राप्त होने तक संग्राम को जारी रखने का संकल्प लिया। जंतर-मंतर तक मुक्ति मार्च के बाद हुई सभा को संबोधित करते हुए शंकराचार्य ने सरकार को कोई ठोस नीति बनाने के लिए तीन महीने का अल्टीमेटम दिया। नीति नहीं बनी तो 25 नवंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में साधु-संतों का वृहद् जमावड़ा फिर होगा। उन्होंने सोनिया गांधी को परोक्ष संदेश दिया कि गंगा की अविरलता की रक्षा किये बिना लोगों का दिल जीतना मुमकिन नहीं है। कांग्रेस के दिग्विजय सिंह तथा आस्कर फर्नांडिस धरना स्थल पर मौजूद रहे। मंच पर भाजपा की वरिष्ठ नेता उमा भारती भी दिखीं। संतों के सड़क पर उतरने से सरकार में बेचैनी है। आंदोलन की आहट सुनकर केंद्र सरकार ने आनन-फानन में 13 जून को अलकनंदा पर निर्माणाधीन श्रीनगर जलविद्युत परियोजना को निरस्त करने का निर्णय लिया। उसका काम केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 30 जून, 2011 को पर्यावरण नियमों के उल्लंघन की शिकायत पर रुकवा दिया था।

2006 में उसकी क्षमता बिना अनुमति 200 से बढ़ाकर 330 मेगावाट तथा ऊंचाई 63 से बढ़ाकर 90 मीटर कर दी गई थी। इससे धारी देवी मंदिर डूब क्षेत्र में आ गया। उसे बचाने के लिए तब से शुरू किया गया धरना अब भी जारी है। परियोजना निरस्त करने के निर्णय से एक ओर तो इसके विरोधियों ने खुद को विजयी महसूस किया और आनंद मनाया, लेकिन दूसरी ओर उसके तमाम समर्थक सड़कों पर उतर आये। राज्य के कैबिनेट मंत्री प्रसाद नैथानी ने परियोजना का काम फिर से शुरू न होने पर 10 जुलाई से जंतर-मंतर पर अनशन करने की चेतावनी दी है। 2500 करोड़ की इस परियोजना पर 1500 करोड़ खर्च किये जा चुके हैं। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की टीम 17 जून को इसके कार्यों के निरीक्षण के लिए जब श्रीनगर पहुंची, तो उन गांव वासियों ने बांध का काम न रोकने की मार्मिक अपील की, जिन्होंने बिजली पैदा होने की उम्मीद में उसके लिए अपनी जमीन-जायदाद दे दी थी।

गंगा रक्षा की सरकारी कोशिशें तब तक बेमानी साबित होंगी, जब तक कथनी और करनी का यह फर्क नहीं मिटता और जब तक गंगा मैया के प्रति हमारी श्रद्धा व्यवहार में नहीं उतरती। सच्चाई तो यह है कि गंगा मैली हो रही है, क्योंकि हमारा मन, हमारा आचरण मैला है। हम जिस गंगा को मां पुकारते हैं, मरते समय जिसके पवित्र जल की कुछ बूंदें कंठ में पड़ जाने से मोक्ष सुनिश्चित मानते हैं, उसी गंगा में कूड़ा-कचरा-गंदगी बहाने में हमें रत्तीभर संकोच नहीं होता।

गंगा को बचाने के लिए देश में सैकड़ों संगठन उग आये हैं। उनमें से काफी सारे कागजी हैं तथा सरकारी धन के लालच में गंगा मुक्ति आंदोलन का ढोंग कर रहे हैं। कुछ श्रेय लेने की होड़ में फंसकर एक-दूसरे से टकराते नजर आ रहे हैं। 1998 से अनवरत संघर्षरत मातृ सदन, हरिद्वार ने अब तक 33 बार गंगा मुक्ति का संग्राम छेड़ा है। उसके संस्थापक स्वामी शिवानंद ने गंगा के लिए अपने शिष्यों की कुर्बानी तक दे दी। 115 दिन लंबी तपस्या के बाद षड्यंत्र के शिकार हुए स्वामी निगमानंद के बलिदान की चर्चा देश-विदेश में हुई। उसके बाद मातृ सदन तेजी से गंगा मुक्ति आंदोलन के केंद्र के रूप में उभरा। प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल (स्वामी सानंद) ने यहां एकाधिक बार गंगा के लिए अनशन और तप किया। उसके फलस्वरूप ही पाला मनेरी, भैरोंघाटी एवं लोहारी नागपाला परियोजनाएं बंद की गईं। किन्तु हरिद्वार का संत समाज गंगा रक्षा की मुहिम में मातृ सदन के साथ खड़ा होने को तैयार नहीं है। उन पर अपनी ढपली अपना राग वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। स्वामी स्वरूपानंद के साथ भी हरिद्वार के गिने-चुने साधु-संत ही जुड़ सके।

इस बीच उत्तराखंड में बांध समर्थक खूब मुखर हुए हैं। जगह-जगह धरना-प्रदर्शनों का सिलसिला चल रहा है। बांध विरोधियों को विकास विरोधी बताया जा रहा है। उनसे अपने घरों की बिजली का कनेक्शन कटवाने की बात कही जा रही है। संतों को सामाजिक जीवन में अनावश्यक दखल न देने की सलाह दी जा रही है। चेतावनी दी जा रही है कि संत बांधों के विरोध से बाज नहीं आये तो उनमें और गृहस्थों में संघर्ष अपरिहार्य हो जायेगा। लीलाधर जगूड़ी ने तो गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के 135 किलोमीटर लंबे क्षेत्र को गंगा पर बांध निर्माण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित करने की मांग पर कुछ चिढ़ते हुए कहा, ‘‘गंगोत्री से गंगासागर तक के सम्पूर्ण क्षेत्र को ही क्यों न संवेदनशील मान लिया जाये?’’ उन जैसे लोग सवाल करते हैं कि गंगा के प्रदूषण की सारी हाय-तौबा उत्तराखंड में ही क्यों मचाई जा रही है, कानपुर, वाराणसी, प्रयाग आदि में क्यों नहीं जहां गंगा प्रदूषण कई गुना ज्यादा है? अब उन्हें कौन बताए कि गंगा की निर्मलता-अविरलता का प्रश्न बांधों से जुड़ा है, जिनका निर्माण उत्तराखंड में हो रहा है।

वैज्ञानिक दृष्टि से बड़े बांध पर्यावरण तथा गंगा की निर्मलता दोनों ही लिहाज से अवांछित हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि उत्तराखंड का समूचा शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व दलों की सीमा से ऊपर उठकर ‘विकास के लिए बिजली और बिजली के लिए बांध’ का राग अलाप रहा है। बांधों के समर्थक कहते हैं कि अब तक बंद की जा चुकी चार परियोजनाओं को पूरा होने दिया जाता तो 1700 करोड़ मूल्य की बिजली राज्य के हिस्से आती। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा तो परियोजनाओं को खुला समर्थन दे रहे हैं। वे कहते हैं कि राज्य में 27000 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता है और कुल बिजली 3400 मेगावाट पैदा हो रही है। परियोजनाओं को बंद करने की दशा में वे राज्य के लिए 25000 करोड़ की क्षतिपूर्ति की मांग करते हैं। 11 जून को स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती से भेंट कर उन्होंने कहा कि उन परियोजनाओं को नहीं छेड़ा जाना चाहिए जो आवश्यक शोध के बाद वैज्ञानिकों द्वारा प्रमाणित की गई हैं। किन्तु शंकराचार्य ने उन्हें वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत तलाशने का परामर्श दिया। इसी बीच 18 जून को उत्तरकाशी से जो खबर आई, उसने जलविद्युत परियोजनाओं के सामने बड़ा प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया। पूछा जाने लगा कि इन्हें विकास कहें या विनाश? लोहारी नागपाला परियोजना (उत्तरकाशी) की सुरंगों से पानी के रिसाव के कारण आस-पास के अनेक गांवों के सामने बाढ़ का खतरा उत्पन्न होने की बात सुनकर हड़कंप मच गया।

वहां के जिलाधिकारी डॉ. दिनेश गोस्वामी कहते सुने गए कि बांधों के निर्माण से पहले उनसे संबंधित विषयों के गहन अध्ययन के आधार पर बहुत सारी सावधानी बरतने तथा बड़े बांधों की बजाय छोटे बांध बनाने की आवश्यकता पर विचार किया जाना चाहिए। 17 जून को हरिद्वार पधारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने स्पष्ट कहा कि ऊर्जा की आवश्यकता पूर्ति के लिए छोटे बांध ही बनने चाहिएं। माकपा केंद्रीय समिति के सचिव विजय रावत ने अलग सवाल खड़ा किया। उन्होंने पूछा कि टिहरी बांध से हमें कितनी बिजली मिल रही है, चालू और प्रस्तावित पनबिजली परियोजनाओं से कितनी बिजली पैदा होगी, उत्तराखंड का उसमें हिस्सा कितना होगा, उनका मालिक कौन होगा तथा राज्य की बिजली की जरूरत कितनी है आदि विषयों पर हमें कितनी जानकारी है? कुछ लोगों का कहना तो यह है कि तमाम पनबिजली परियोजनाएं मिलकर भी राज्य की जरूरत का मात्र 3 प्रतिशत बिजली ही मुहैया करा पाएंगी। किंतु बांध समर्थक बांध बनने पर राज्य के विकास की बड़ी रंगीन तस्वीर पेश करते हैं। उनकी मानें तो उत्तराखंड की तरक्की का केवल एक ही रास्ता है और वह है वहां की तमाम नदियों पर बांध बना कर उनसे बिजली पैदा करना।

रामचंद्र गुहा ने हाल ही में एक लेख में कहा है कि ऊर्जा की जरूरतें पूरी करने के लिए बड़े बांध न एकमात्र उपाय हैं, न सर्वश्रेष्ठ। पर्यावरण और आर्थिक दृष्टियों से बड़ी परियोजनाओं के मुकाबले छोटी परियोजनाएं बेहतर हैं, जिनमें नदी को रोका नहीं जाता। बड़े बांधों के कारण पानी के प्रवाह में कमी, बाढ़, स्थानीय लोगों के उजड़ने, कीमती जंगलों के डूबने और भूकंप का खतरा बढ़ने की आशंका अरुणाचल में भी जताई जा चुकी है, जहां 100 से अधिक बांध बनाना प्रस्तावित था। वस्तुतः पर्यावरण और विकास के बीच सामंजस्य बनाये रखकर भी ऊर्जा की जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। लेकिन ‘हर कीमत पर विकास’ की बात करने वाले कुछ लोग दोनों के बीच झूठा विरोध दर्शाते हैं। दोनों में सामंजस्य की बात उन्हें हित में नहीं लगती।

धर्म और आस्था के प्रश्नों पर काम कर रही विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने गंगा रक्षा के लिए भी पहल की है। गंगा के प्रश्न पर उसने 1983 में पहली बार ‘भारत माता-गंगा माता’ तथा 1995 में दूसरी बार ‘भारत माता-गंगा माता-गऊ माता’ नाम से अभियान चलाये। 1983 में 30 दिवसीय एकात्मता यात्रा के माध्यम से देशभर में गांव-गांव तक 10 करोड़ लोगों से संपर्क किया गया। गंगा के प्रति जन आस्था के विराट जागरण के पश्चात विहिप नेता अशोक सिंघल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को गंगा की अवस्था से अवगत कराया। अपने वायदे के अनुसार प्रधानमंत्री ने गंगा की पवित्रता बनाये रखने के लिए ‘गंगा कार्य योजना’ की घोषणा की। बाद में स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती की अध्यक्षता में गठित गंगा रक्षा समिति के तत्वावधान में गंगा की वस्तुस्थिति जानने के लिए गंगा सागर से प्रयाग तक जलयात्रा आयोजित हुई। स्वामी अवधेशानंद गिरि के नेतृत्व में हरिद्वार से दिल्ली तक गंगा रक्षा यात्रा निकाली गई।

गंगा रक्षा के लिए किये जा रहे अलग-अलग प्रयासों को समन्वित करने के लिए आगे आये बाबा रामदेव ने गंगा रक्षा मंच का गठन किया। अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त इस संगठन के प्रतिनिधि मंडल ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पांच-सूत्रीय ज्ञापन दिया। प्रधानमंत्री ने तब बताया कि गंगा रक्षा के लिए एक बड़ी योजना पर विचार चल रहा है। उन्होंने उसकी अविरलता-निर्मलता की रक्षा के लिए धन की कमी न आने देने का आश्वासन भी दिया। बाद में राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण के गठन और गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिए जाने के कदम उन्होंने उठाये। प्रधानमंत्री से प्रतिनिधि मंडल ने कहा था कि टिहरी झील से पहले किसी बिंदु से गंगा की एक धारा निकाली जाये और बांध को लांघते हुए उसे गंगा में मिला दिया जाये। इससे गंगा का प्रवाह अविरल बना रहेगा और उस समझौते का पालन भी होगा जो अंग्रेज सरकार ने 1916 में महामना के साथ किया था।

हरिद्वार कुंभ-2010 में गंगा रक्षा का मुद्दा अभूतपूर्व प्रमुखता से उठा। 5 अप्रैल को गंगा की अविरलता पर विराट संत सम्मलेन का आयोजन हुआ। उसके निर्णयानुसार गंगा रक्षा की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए 9 अप्रैल को चार घंटे के लिए कुंभ में संतों के शिविरों के द्वार बंद रहे और तमाम कार्यक्रम स्थगित कर दिए गए। हाल ही में विहिप के संत उच्चाधिकार समिति की बैठक हरिद्वार में 19-20 जून को हुई। लगभग 75 वरिष्ठ कार्यकर्ताओं तथा धर्माचार्यों ने इसमें भाग लिया। अन्य विषयों के साथ इसमें गंगा का मुद्दा भी उठाया गया। इस संबंध में सबका मत था कि विकास की जो योजनायें बनें, वे भारतीय परिवेश और आस्था से बेमेल न हों। पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन के समय जन आस्था और गंगा की अविरलता-निर्मलता को बनाये रखने की आवश्यकता को नजरअंदाज न किया जाये। जाहिर है कि मोक्षदायिनी गंगा की मुक्ति के तमाम उपक्रम बेअसर साबित हो रहे हैं। इसके लिए नेतृत्व में इच्छाशक्ति का अभाव, नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार, व्यवस्था का बांझपन आदि कारण गिनाये जा सकते हैं। लेकिन इसका एक महत्वपूर्ण कारण संभवतः वह पाखंड भी है जो हमारे सामाजिक जीवन की पहचान बनता जा रहा है।

गंगा के प्रति श्रद्धा विह्नलता के बावजूद सामान्य जन का आचरण उसकी निर्मलता के लिए खतरा पैदा करता है। कुछ अपवादों को छोड़कर, इस सिलसिले में धार्मिक नेतृत्व का व्यवहार भी आम आदमी के लिए प्रेरणादायी नहीं लगता। गंगा के किनारे बने आश्रम, अखाड़े और मठ उसकी स्वच्छता के प्रति जितने संजीदा हैं, वह कतई काफी नहीं है। किंतु वे गंगा की महत्ता और उसकी पवित्रता का गुणगान करते थकते नहीं। गंगा रक्षा की सरकारी कोशिशें तब तक बेमानी साबित होंगी, जब तक कथनी और करनी का यह फर्क नहीं मिटता और जब तक गंगा मैया के प्रति हमारी श्रद्धा व्यवहार में नहीं उतरती। सच्चाई तो यह है कि गंगा मैली हो रही है, क्योंकि हमारा मन, हमारा आचरण मैला है। हम जिस गंगा को मां पुकारते हैं, मरते समय जिसके पवित्र जल की कुछ बूंदें कंठ में पड़ जाने से मोक्ष सुनिश्चित मानते हैं, उसी गंगा में कूड़ा-कचरा-गंदगी बहाने में हमें रत्तीभर संकोच नहीं होता। घर-परिवार से लेकर समाज और राष्ट्र स्तर तक की तमाम समस्याओं के हल सिर्फ राजनीति में ढूंढना या उनके लिए सरकार का मुंह देखना हमारी राष्ट्रीय आदत हो गई है। क्या सिर्फ सरकारी परियोजनाओं के भरोसे गंगा की पवित्रता बहाल करना मृगमरीचिका सिद्ध नहीं होगा? क्या सामाजिक शक्ति के जागरण और व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की प्रबल भावना के बिना राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान संभव है? यह सवाल हमसे गंगा मैया भी पूछ रही हैं। इस सवाल का जवाब केवल आंदोलनकारियों को ही नहीं, बल्कि हममें से हर एक को देना होगा।

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