Posted on 13 Dec, 2013 12:59 PMविनोबाजी का भूदान आंदोलन कभी भारत के भूमिहीनों के लिए एक बड़ा सपना बन कर आया था। लेकिन सरकारों की इच्छाशक्ति में कमी, लालफीताशाही और जमींदारों की कुटिल चालों ने इस महत्वाकांक्षी अभियान को ध्वस्त कर दिया। इस आंदोलन को फिर से जांचा-परखा जा रहा है। इसकी जरूरत और अहमियत की पड़ताल कर रहे हैं प्रसून लतांत।
Posted on 09 Dec, 2013 03:20 PMमेरे शहर से होकर जाती है एक नदी कभी बहती है कभी रूकती है रोती ही रहती है अपनी दुर्दशा पर गंदे नाले जो गिरते हैं इस नदी में उन्होंने नदी को ही अपने जैसा बना लिया है मेरा शहर जो कि दिल है मेरे देश का देश को जीवंत करता है उसकी नदी का जीवन कहीं खो गया है जिस सूर्य सुता का जल सत्ता के अभिनव दुर्ग के
Posted on 08 Dec, 2013 10:51 AMराजाराम रावत ‘पीड़ित’ पहाड़ी (चिरगांव)बहती जाती थी वेत्रवती, उर विकल किंतु करती कल-कल। कहती जाती थी वेत्रवती, जागृत जन से चल-चल, चल-चल।। गति रोक न पल-भर को अपनी, मत कर विराम की तनिक चाह। जीवन बस तब तक जीवन है, जब तक है उसमें कुछ प्रवाह।। बनती-मिटती लहरें मानों, बोधित करती है बार-बार। बनने-मिटने को मत समझो, जीवन की अपनी जीत-हार।।
Posted on 08 Dec, 2013 10:31 AMअचला वृत्त है अचला जिसपै बनराजि छटा दिखला रही है। विटपावलि पुष्पित हो करके निज सौरभ पुंज लुटा रही है।। द्रुम पल्लवों में छिपी श्यामा जहां मन-मोहन गान-सुना रही है। सिखला रही राग-विहाग भरा अनुराग का पाठ पढ़ा रही है।। गिरि बिन्ध्य की गोद सजाती हुई सुख प्राणियों में सरसाती हुई। गुण गाती हुई मनभावन के इठलाती हुई बलखाती हुई।।
Posted on 08 Dec, 2013 10:26 AMसीने में दिल है एक तो, “मायूसियां” हजार। मेरे वतन पै, बेतवा हंसती है बार-बार।। आबादियों से दूर चट्टानों के सिलसिले- राहों में कच्चे-पक्के मकानों के काफिले। ढोरों के गोल लौटते जंगल से दिन ढले, जंगल के और बस्ती के ’महदूद’ फासले।। पेड़ों की छांव में टूटे हुए मजार। आता है याद मुझको उजड़ा हुआ ‘दयार’।। यह ‘ईसुरी’ का देश है, केशव की ‘वादियां’,
Posted on 06 Dec, 2013 10:34 AMजननी, जन्मभूमि स्वर्गादपि सबको अपनी-अपनी प्यारी। कौन नहीं जो उसके ऊपर हंस-हंसकर जाए बलिहारो।। कौन नहीं पुलकित होता है उसकी मनहर-प्रेरक छवि पर। करे नहीं वंदन-अभिनंदन उसका किस युग के कवि का स्वर।। व्योम-बिहारी पक्षी-गण भी फिर-फिर निज नीड़ों में आते। सिंह, सरीसृप, स्यार कौन जो अपने चुल-बिल को बिसराते।। जन्म भूमि का संग छुटते वृक्ष, बेलि, तृण-दल कुम्हलाते।