भारत

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आखिर हिमालय की चिंता किसको है ?
Posted on 16 May, 2014 02:04 PM हमारे लिए चुनौती यह है कि हिमालय से उभरी चुनौतियों को हम राष्ट्रव्य
हिमालयी देश साथ मिलकर लड़ें हिमालय की लड़ाई
Posted on 16 May, 2014 11:06 AM सितंबर 2011 को हिमालय दिवस के अवसर पर सैडेड द्वारा ‘हिमालय बचाओ’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में ‘गांधी पीस संस्थान, नेपाल’ के अध्यक्ष अर्जुन थापा ने अपने विचार रखे उनके वक्तव्य का लिखित पाठ यहां प्रस्तुत है।
हिमालय सिर्फ हिमालयी लोगों के चिंता का विषय नहीं है
Posted on 16 May, 2014 09:14 AM ‘हैस्को’ एनजीओं के प्रमुख अनिल जोशी के भाषण का लिखित पाठ यहां प्रस्तुत है। उनका यह वक्तव्य 9 सितंबर 2011 को हिमालय दिवस के अवसर पर दिया गया था।
Himalaya
गंगा प्रश्न
Posted on 16 May, 2014 09:03 AM

ऐ नए भारत के दिन बता...
ए नदिया जी के कुंभ बता!!
उजरे-कारे सब मन बता!!!
क्या गंगदीप जलाना याद तुम्हें
या कुंभ जगाना भूल गए?
या भूल गए कि कुंभ सिर्फ नहान नहीं,
गंगा यूं ही थी महान नहीं।
नदी सभ्यताएं तो खूब जनी,
पर संस्कृति गंग ही परवान चढ़ी।
नदियों में गंगधार हूं मैं,
क्या श्रीकृष्ण वाक्य तुम भूल गए?
ए नए भारत के दिन बता...

Ganga
गंगा तट से बोल रहा हूं
Posted on 16 May, 2014 08:42 AM

गंगा तट पर देखा मैंने
साधना में मातृ के
सानिध्य बैठा इक सन्यासी
मृत्यु को ललकारता
सानंद समय का लेख बनकर
लिख रहा इक अमिट पन्ना
न कोई निगमानंद मरा है,
नहीं मरेगा जी डी अपना
मर जाएंगे जीते जी हम सब सिकंदर
नहीं जिएगा सुपना निर्मल गंगा जी का
प्राणवायु नहीं बचेगी
बांधों के बंधन में बंधकर
खण्ड हो खण्ड हो जाएगा

Ganga
राष्ट्रवाद के नाते भी नकारें नदी जोड़
Posted on 15 May, 2014 03:45 PM

नदी जोड़ घातक - मेनका गांधी

river linking
प्रकृति और मानव के बीच सामंजस्य बनाने की जरूरत है
Posted on 15 May, 2014 01:45 PM हिमालय दिवस, 9 सितंबर 2011 को दिल्ली के आईआईसी में अगाथा संगमा (ग्रामीण विकास राज्य मंत्री, भारत सरकार) के दिए गए वक्तव्य पर आधारित आलेख यहां प्रस्तुत है।
भारतीय मानस का भूगोल
Posted on 15 May, 2014 10:12 AM

भारत में भौगोलिक चेतना और जलवायु चेतना अनादि काल से सांस्कृतिक चेतना का मूल अंग थी। कैलाश-मानसर

नदी जोड़ परियोजना : एक परिचय, भाग-2
Posted on 14 May, 2014 03:53 PM
जलमार्गों की श्रृंखला के तालमेल एवं पानी उठाने वाली व्यवस्था
drinking water
“नदियां जोड़ने वालों सत्याग्रह करते पानी की ‘कूक’ सुनो”
Posted on 13 May, 2014 04:14 PM

जब समाज और सेवा दो अलग-अलग शब्दों की तरह टूटते हैं तो बीच-बीच खाली जगह से सोशल वर्करों की घुसपैठ होती है। इन्हीं सोशल वर्करों में से तरक्की करके कुछ लोग एनजीओज बनते हैं, फिर इन एनजी.ओज को समाज की बजाए कंप्यूटर की वेबसाइट में ढूंढना पड़ता है।

बूंदों को देखो तो लगता है कि जैसे वे पानी के बीज हों। वर्षा धरती में पानी ही तो बोती है। पहले झले के पानी की एक-एक बूंद को पीकर धरती की गोद हरियाने लगती है। जैसे हरेक बूंद से एक अंकुर फूट रहा हो, जैसे धरती फिर से जी उठी हो। बरसात आते ही वह फूलों, फलों, औषधियों और अन्न को उपजाने के लिए आतुर दिखाई देती है।

कोई धरती से पूछे कि उसे सबसे अधिक किसकी याद आती है तो वह निश्चित ही कहेगी कि पानी की। वह पानी से ऊपर उठकर ही तो धरती बनी है। वह पानी को कभी नहीं भूलती। वह तो पानी की यादों में डूबी हुई है। ग्रीष्म ऋतु में झुलसती हुई धरती को देखो तो लगता है कि वह जल के विरह में तप रही है। उससे धीरे-धीरे दूर होता जल और उसकी गरम सांसें एक दिन बदली बनकर उसी पर छाने लगती हैं और झुलसी हुई धरती के श्रृंगार के लिए मेघ पानी लेकर दौड़े चले आते हैं।
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